अमीघूँट
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सतलोकवासी पूज्यपाद स्वामी 
श्री श्रीधर दासजी महाराज
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प्रकाशक : अखिल भारतीय संतमत-सत्संग-प्रकाशन-समिति  
महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट पत्रालय-बरारी, भागलपुर-३ (बिहार)
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अनुक्रमणिका 


श्रद्धेय श्री श्रीधर बाबा को मैं सतत आदर की दृष्टि से देखता आया हूँ। अतएव उनकी कृति पर मेरी कलम चले, यह सर्वथा अयोग्य है। उनकी सुकीर्ति और उनकी सुकृति के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ।
श्री संतमत-सत्संग मंदिर ‘सिकलीगढ़-धरहरा’ के वर्त्तमान व्यवस्थापक साधु श्रीसच्चिदानन्दजी को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने उनके अगम ज्ञान को सबके लिए सुगम किया है।
-संतसेवी
29/01/1988

।। ॐ श्रीसद्गुरवे नमः ।। 
‘अमीघूँट’ नान्मी पुस्तक ब्रह्मलीन पूज्यचरण 108 श्री श्रीधर बाबा के उन उपदेशों का संग्रह है, जिन्हें उन्होंने हजारों जन समुदाय के बीच किया है। उनका उपदेश अनपढ़ या पढ़˜वा सबों के लिए रुचिकर तथा हृदयग्राही होता था। मुझे उनके साथ बहुत बार कई-कई दिनों तक रहकर उपदेशों को सुनने का मौका लगा है, सुनकर आनन्द से मस्तक झूम जाता था, हृदय खिल उठता था। वे जब किसी सन्तवाणी का मर्म समझाने लगते थे, तो लगता था अमृत पिला रहे हैं। मैं तो उन महापुरुष से बहुत ही प्रभावित हूँ। मेरे जानते वे परमाराध्य श्री सद्गुरु महाराज के शिष्यों में साधुता के गुणों में सर्वोपरि थे। परमाराध्य श्री सद्गुरु महाराज उन्हें कर्मयोगी कहते थे। उनके सत्ताईस प्रवचनों का संग्रह यह ‘अमीघूँट’ नान्मी पुस्तक मानों अमृत-कलश है। इस पुस्तक को पढ़कर किसका हृदय आनन्द से भर नहीं जायगा? श्री सच्चिदानंदजी ने जो अभी श्री संतमत-सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा के व्यवस्थापक हैं, पूज्यचरण बाबा के उपदेशों का संग्रह कर यह पुस्तक ‘अमीघूँट’ जो छपवायी है, यह बहुत बड़े लोक-कल्याण का काम किया है। इस पुस्तक के बहुत भाग को मैंने पढ़ा है, जो मुझे बहुत ही भाया है। इसलिए मैं धर्मजिज्ञासुओं से आग्रह करूँगा कि इस पुस्तक को अवश्य ही पढ़ें, बहुत लाभ होगा।
इति
— शाही
28/1/1988

।। ॐ श्री सद्गुरवे नमः ।।
परमाराध्य प्रातःस्मरणीय अनन्त श्रीविभूषित सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहसंजी महाराज के प्रथम श्रेणी के प्रधान शिष्यों में सतलोक वासी पूज्यपाद स्वामी श्री श्रीधर दासजी महाराज अग्रगण्य हैं। पूज्य गुरुदेव द्वारा स्थापित श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर, सिकलीगढ़ धरहरा के विकास के साथ-साथ संतमत के प्रारम्भिक प्रचार एवं गुरुदेव की सेवा आपने बड़ी संलग्नता के साथ की। सादा जीवन, उच्च विचार की तो आप प्रतिमूर्ति ही थे। मान, बड़ाई एवं सांसारिक लिप्सा तो आपमें रंच मात्र भी नहीं थी। आपके उपदेश भी सरल भाषा में संतमत के अनमोल गंभीर ज्ञान को समेटे रहता था। सर्व साधारण भी इस अमृतमय ज्ञान को सहज ही ग्रहण कर झूम उठते थे। इस पुस्तक ‘अमीघूँट’ की माँग सत्संगियों की ओर से अनवरत की जा रही थी। स्वामी देवनारायण बाबा एवं स्वामी अनमोल बाबा (श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर, सिकलीगढ़ धरहरा) का तो विशेष आग्रह था ही। जन समूह के विशेष लाभ को देखते हुए पूज्य बाबा की जीवनी सहित इस पुस्तक का पुनः प्रकाशन कर अखिल भारतीय संतमत-सत्संग समिति अपने को गौरवान्वित समझती है।

फरवरी, 2011
विनीत
अ0 भा0 संतमत-सत्संग-प्रकाशन
महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट
भागलपुर-3 (बिहार)


बिहार राज्य के समस्तीपुर जिलान्तर्गत रोसड़ा अनुमण्डल के सिंघिया प्रखंड में लगमा नामक एक सुन्दर, सभ्य, सुशिक्षित और सम्पन्न गाँव है। यह पहले दरभंगा जिले में पड़ता था। यहाँ विभिन्न वर्णों के लोग रहते हैं। उनमें क्षत्रियों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
यह जमीन्दार परिवार का गाँव है। अभी भी यहाँ अधिकतर लोग जमीन्दारी ठाट-बाट का जीवन व्यतीत करते हैं। प्रत्येक परिवार में धाई रहती है, जो घर के सारे काम-काज करती है। इस गाँव के आस-पास छः सुसम्पन्न गाँव हैं—सिंघिया, माहें, डीहा, मोरवाड़ा, बसदेवा और अगरौल। इन सातो गाँवों में भरसुरिया क्षत्रिय रहते हैं।
भरसुरिया नाम पड़ने के पीछे इतिहास है। इनके पूर्वज बाबू जयदेव सिंह और बाबू हरिदेव सिंह दो भाई राजपुताने के धारनगर से यहाँ आये थे। ये पमार क्षत्रिय थे। पमार क्षत्रिय की पहचान यह थी कि उन्हें दो कंठ होते थे। दोनों भाई बड़े शूर-वीर थे।
जिस समय दोनों भाई सिंघिया आये थे, उस समय वहाँ राजा भर का राज्य था। इनका राज्य पूरे चक्रमणि परगने तक था। ये राजा जाति के दुसाध थे।
कहा जाता है कि एक बार एक ब्राह्मण अपनी पत्नी को डोली में लिये राजमार्ग से जा रहे थे। राजा ने अपने कुछ सिपाहियों को आदेश दिया कि उस ब्राह्मण की पत्नी को डोली से उतार लाओ। राजाज्ञा पाकर सिपाहियों ने ब्राह्मण को भगा दिया और उनकी पत्नी को राजदरबार में ले आये।
व्यथित ब्राह्मण ने अपनी घटना बाबू जयदेव सिंह और बाबू हरिदेव सिंह को जाकर सुनायी और उनसे अपनी पत्नी छुड़वाने की सहायता माँगी। राजा का यह अधर्मपूर्ण व्यवहार सुनकर दोनों भाई रोष से भर उठे। दोनों ने राजा को मारा डाला; उनके सिपाहियों को मार भगाया और ब्राह्मणी ब्राह्मण को लौटा दी। इन दोनों की वीरता के आगे राजा के सिपाहियों की एक भी न चली। इन दोनों ने उनके राज्य को दखल कर लिया। ब्राह्मणी ने इनकी वीरता की प्रशंसा करते हुए इन्हें आशीर्वाद दिया कि आपका राज्य अचल रहेगा, कोई दखल नहीं कर पायेगा।
उसी दिन से ये भरसुरिया क्षत्रिय कहलाने लगे। भरसुरिया अर्थात् जो राजा भर पर शूर (विजयी) हुए हों। इसी कारण वहाँ लोकोक्ति हो गयी—“भर मार भरसुरिया।” इन्हीं दो भाइयों के वंशज इन सातो गाँवों में रहते हैं।
लगमा गाँव एन0 ई0 रेलवे स्टेशन नयानगर से करीब 6-7 मील उत्तर-पूरब की ओर अवस्थित है। जनकपुर से बहकर आती हुई करेह नदी के किनारे बसा हुआ होने के कारण इस गाँव की प्राकृतिक छटा कुछ और ही है। इसी गाँव को पूज्यपाद बाबा श्री श्रीधर दासजी महाराज की पवित्र जन्म-भूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है।
आपका अवतरण इस धरातल पर सन् 1889 ई0 के लगभग भाद्रमास में हुआ। आपके पिता भरसुरिया क्षत्रिय-कुलभूषण बाबू श्री जागदम्बी सिंह जी छोटी रियासत के वंशज थे, जो कृषि-कर्म द्वारा परिवार का जीविकोपार्जन किया करते थे। धर्म में इनकी रुचि थी और रामचरितमानस, महाभारत, गीता आदि का श्रद्धापूर्वक पाठ किया करते थे। आपकी माता श्रीमती बासरानी देवी सरल हृदय की, भक्तिमती, धर्मपरायणा और अत्यन्त करुणामयी थीं। आपके दादा जी का नाम बाबू श्री सरबन सिंह जी था। तीन भाइयों मे आप सबसे छोटे थे। आपके पीछे एक बहन उत्पन्न हुई थी, जो कुछ वर्ष बाद काल-कवलित हो गयी। आपके बड़े भाई का नाम बाबू श्री बच्चन सिंहजी था और मँझले का नाम बाबू श्री जलधर सिंहजी। दोनों गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करते थे। बड़े भाई निःसंतान थे। मँझले भाई को सिर्फ दो पुत्रियाँ हुईं।
माता की स्नेहिल, वात्सल्य और ममतामयी गोद में आप शनैः शनैः बढे़ और पले। माता-पिता ने बड़े लाड़-प्यार के साथ आपका पालन-पोषण किया और आपकी सुख-सुविधा में किसी प्रकार की कमी न आने दी। छोटे भाई होने के नाते बड़े भाइयों का भी स्नेह आपको मिलता रहता था।
आपके माता-पिता ने आपका नाम शिवधर रखा और आप इसी नाम से पुकारे जाने लगे। आपके गाँव में आपके एक संन्यासी गुरु थे। कुछ दिनों के बाद उन्होंने आपसे कहा कि ‘शिवधर’ नहीं, ‘श्रीधर’ अपना नाम रखो। आपने इस नाम को स्वीकार कर लिया; फिर भी कुछ लोग आपको पुराने नाम से पुकारते रहे।
5 वर्ष की अवस्था में आपका विधिवत् मुण्डन-संस्कार हुआ और 12 वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार। आपकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव के विद्यालय में चौथी कक्षा तक ही हुई। आपके गाँव के विद्यालय में चौथी कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी। आपके गाँव के अतिरिक्त आस-पास के अन्य गाँवों में ऊँची कक्षा की पढ़ाई नहीं होती थी। आपके पिताजी की आर्थिक स्थिति भी उतनी अच्छी नहीं थी। इन्हीं कारणों से आप आगे न पढ़ सके, हालाँकि आप पढ़ने में तीव्र बुद्धि के थे और आगे पढ़ने की इच्छा भी रखते थे।
बाल्यकाल से ही आप कीर्त्तन-भजन, पूजा-पाठ बड़ी श्रद्धा और प्रेम से किया करते थे। रामचरितमानस, श्रीरघुनाथदास-कृत विश्राम-सागर, गीता आदि के अनेक दोहे, चौपाइयाँ, श्लोक आपने कंठाग्र कर लिये थे।
15-16 वर्ष की अवस्था में देश-भ्रमण की आपमें प्रबल इच्छा जाग्रत हुई। इसी उद्देश्य से आप घर से निकल पड़े। किसी से कुछ माँग कर खाना और बिना टिकट के रेलयात्र करना आपको बहुत बुरा लगता था। इसीलिये दिन में स्टेशन पर कुली का काम कर कुछ पैसे जमा कर लेते थे, उनसे भोजन करते थे और रात्रि में टिकट कटाकर यात्र करते थे। कर्म के प्रति आपकी यह अटूट निष्ठा आपके बाल्य काल से गहरी होती गयी।
आप बम्बई गये। वहाँ से कलकत्ता की ओर यात्र की। इस भ्रमण के क्रम में आप कलकत्ता, ढाका, नारायणगंज, बालिन्दो, गंगा-सागर, पुरी तथा आसाम गये। बालिन्दो में आपके गाँव के बहुत से लोग नौकरी करते थे। वहीं एक अँग्रेज नहापीठ साहब की दुकान थी, जिसमें पाट की खरीद-बिक्री का काम होता था। वहीं आप 15रुपये प्रति माह पर नौकरी पर रह गये और दरबान तथा रसोई बनाने का काम करने लगे। कुछ दिनों के बाद आप घर लौट आये।
सन् 1917 ई0 में आप मधेपुरा जिलान्तर्गत आलमनगर प्रखंड के सिंवार गाँव चले आये। यहाँ आपकी चचेरी बहन रहती थी यहाँ रहकर आप भाँजे (बहन के पुत्र) को पढ़ाने लगे। यहाँ एक वर्ष तक रहे।
सन् 1918 ई0 में उदाकिशुनगंज थाने के गंगोरा-झलाड़ी गाँव चले आये। उस गाँव के माननीय श्री जयधारी राय जी के दरवाजे पर रहने लगे और उनके तथा गाँव के अन्य कुछ बच्चों को खानगी रूप में पढ़ाने लगे। उस गाँव में एक विद्यालय था। विद्यालय के शिक्षक के अन्यत्र चले जाने पर गाँववालों ने आपको ही पढ़ाने की सलाह दी। आप पढ़ाने लगे। उस समय 3 रुपये प्रति माह वेतन मिलते थे। प्रत्येक शनिवार को बच्चे अरवा चावल, गुड़ तथा कुछ पैसे दक्षिणा के रूप में लाते थे, जिसे ‘शनिचरा’ कहा जाता था, जो गुरु जी को श्रद्धा से दिया जाता था।
लगभग दो वर्ष तक आपने वहाँ शिक्षण का कार्य किया। उसके बाद आप कुमारखंड (पूर्व नाम कुमरखत) चले आये। वहाँ के एक जमीन्दार बाबू श्री महेश्वरी प्रसाद सिंह जी के यहाँ रहकर बच्चों को पढ़ाने का ही काम करने लगे।
वहाँ कुछ महीने रहने के बाद आप बिहारीगंज चले आये, जहाँ आपके पिता जी तथा बड़े भाई एक मारवाड़ी श्री हीरालाल कालूराम के गोले में काम करते थे।
आप भी वहीं नौकरी करने लगे। वहीं आपको मालूम हुआ कि देवैल गाँव में एक साधु आये हैं, जो सत्संग करते हैं तथा लोगों को खूब चूड़ा-दही खिलाते हैं। देवैल गाँव बिहारीगंज से करीब 4 मील दक्षिण पड़ता है। आपका सोया आध्यात्मिक संस्कार जगा और इच्छा हुई कि उन साधु के दर्शन करूँ तथा उनका कुछ उपदेश श्रवण करूँ। अतः आप वहाँ गये और पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के प्रथम दर्शन सन् 1920 ई0 में किये। वहाँ एक सत्संग-मंदिर था।
आप बचपन में अपने घर पर बड़ी श्रद्धा और प्रेम से भगवान् का कीर्त्तन किया करते थे और कहा करते थे, “आज मोहि संत मिलेंगे; भगवान् मिलेंगे, कृपासिंधु मिलेंगे” और “श्रीकृष्ण जी से आज मिलने सुदामा आये।” इस प्रकार गाते-गाते आपका गला रुद्ध हो जाता था तथा आँखों से अश्रु की धारा बहने लगती थी। वर्षों की संत-मिलन की आपकी अभिलाषा अब पूज्यपाद महर्षि जी ऐसे संत के दर्शन करके पूरी हुई।
दर्शन से आपका हृदय बड़ा संतुष्ट हुआ और आप पुनः बिहारीगंज लौट आये। जिस मारवाड़ी के यहाँ आप नौकरी करते थे, उन्हीं का एक दूसरा गोला पुरैनियाँ जिलान्तर्गत सिकलीगढ़ धरहरा में भी था। कुछ दिनों के बाद आप पर वहाँ का कार्य-भार सौंपकर आपको वहीं भेज दिया गया।
आप सिकलीगढ़ धरहरा चले आये और उक्त मारवाड़ी के कारोबार की निगरानी करने लगे। यहाँ आपका काम सरसों, मकई आदि के बोरों और पाट की गाँठों को नाव पर चढ़वाना तथा उनकी ठीक-ठीक गिनती करना था। आप बड़ी मुस्तैदी और ईमानदारी से काम करते थे। भोजन बनाने का समय नहीं मिलने पर दिन में आप चावल फुलाकर खा लेते थे और रात में भोजन बनाकर खाते थे।
सिकलीगढ़ धरहरा में महर्षि जी का पैतृक गृह है। वे उस समय वहीं गाँव से बाहर अपनी कुटी बनाकर रहा करते थे। आप यदा-कदा उनकी कुटी पर आने-जाने लगे और अपनी धार्मिक जिज्ञासा का समाधान करवाने लगे। संग का रंग तो अवश्य ही लगता है। कुछ दिनों के बाद भजन-भेद (दीक्षा) लेने की आपकी इच्छा हुई।
एक दिन महर्षिजी की कृपा हुई। आपको उन्होंने आदेश दिया—“आज आपको दीक्षा दूँगा। स्नान करके कुछ प्रसाद तथा फूलों की एक माला बनाकर ले आइये।” सन् 1928 ई0 के चैत्र मास में उन्होंने आपको संतमत की चारो साधना-पद्धतियाँ—मानस जप, मानस-ध्यान, दृष्टियोग और सुरत-शब्द-योग—एक साथ बता दीं। दीक्षोपरान्त आप नियमित रूप से सत्संग में आने लगे और भजन-ध्यान करने लगे।
आपने सिकलीगढ़-धरहरा के गढ़ पर तीन बीघे जमीन बिसनपुर (धमदाहा) के जमीन्दार बाबू श्री मौलचन्दजी (बाबू श्रीवीरनारायण सिंहजी) से बन्दोवस्त ली। यह जमीन कँटीली झाड़ियों से भरी हुई जंगल के रूप में थी।
कुछ दिनों के बाद आपकी प्रबल इच्छा हुई कि मैं भी श्रीसद्गुरु महाराज के साथ रहकर साधु-जीवन बिताऊँ। इसी कारण आपने नौकरी छोड़ दी। जब आपके नौकरी छोड़ देने और साधु-जीवन बिताने के विचार के समाचार आपके पिताजी को मालूम हुए, तो वे बड़े अधीर होकर आपसे मिलने सिकलीगढ़-धरहरा आये।
आप पिताजी को आये देख छिप गये। पूज्यपाद श्री सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज से उनकी भेंट हुई और बातचीत भी। बातचीत के सिलसिले में उन्होंने पूज्य गुरुदेव से कहा—“अहैं हमारा लड़का के साधु बनाय देलौं। कौन मंतर-तंतर दाय देलिये, जे ऊ साधु बँन गेला।” (आपने ही मेरे लड़के को साधु बना दिया। कौन-सा मंत्र-तंत्र दे दिया, जिससे वह साधु बन गया।) पूज्यपाद श्री सद्गुरु महाराज ने कहा, मैंने साधु नहीं बनाया है। वे अपने बने हैं।
आपके पिताजी के जाने के बाद गुरुदेव आपको बहुत डाँटते रहते थे और कहा करते थे कि मैंने किसी को साधु नहीं बनाया है।
आपके पिताजी ने आपके और गुरुदेव के पास कई पत्र भेजे।
कुछ दिनों के बाद आप सिकलीगढ़-धरहरा से सुल्तानगंज की ओर चल दिये। आपके पास मार्ग-व्यय-हेतु कुछ रुपये थे।
आप तिलकपुर गाँव आये। यह गाँव भागलपुर और सुल्तानगंज के बीच में पड़ता है। इस गाँव की एक ठाकुरवाड़ी में आप रहने लगे। ठाकुरवाड़ी के पुजारी जाति के क्षत्रिय थे। सजातीय होने के कारण वे आपको बहुत मानते थे। यह ठाकुरवाड़ी उसी गाँव के एक जमीन्दार के द्वारा बनवायी गयी थी तथा 200 बीघे जमीन दान-स्वरूप दी गयी थी। वहाँ प्रतिदिन सदावर्त बँटता था। उस ठाकुरवाड़ी के पुजारी आपसे वहीं रह जाने के लिये कहा करते थे। आपने भी सोचा कि यहीं रहकर ठाकुर जी की पूजा करूँ और एकान्त में ध्यान-साधना भी। आप वहीं रहने लगे। अच्छे स्वभाव के होने के कारण गाँव के लोग आपका बड़ा आदर-सत्कार किया करते थे। वहाँ और कई ठाकुरवाड़ियाँ थीं। वहाँ आप एक वर्ष तक रहे।
उस समय महात्मा गाँधी के सत्याग्रह आन्दोलन के क्रम में “नमक बन्द, नील बन्द एवं विदेशी कपड़े बन्द करो” का आन्दोलन चल रहा था। उसी गाँव के काँग्रेसी नेता श्री सियाराम सिंह के आह्नान पर आप भी जत्थे के साथ सुल्तानगंज (भागलपुर) बाजार गये, जहाँ व्यापारियों पर नमक, नील तथा विदेशी कपड़े बेचने की रोक लगायी जा रही थी। वह रामनवमी तिथि थी। जत्थे के साथ आपको भी पुलिस ने पकड़ लिया और भागलपुर जेल भेज दिया। आप दो महीने तक जेल में रहे।
जेल से निकलने के बाद आप बैद्यनाथ धाम चले आये। आपके पास पीतल की एक डेगची थी और कुछ रुपये भी थे। कुछ जलावन का इन्तजाम करके चावल, दाल और सब्जी एक साथ डालकर खिचड़ी बना लेते थे और भोजन करते थे। भीख माँगकर खाना आप घृणित कार्य समझते थे। उस समय तीन पैसे में ही एक शाम का भोजन हो जाता था।
दो महीने के बाद आप घर चले आये। आपने घर में तथा गाँव में किसी आदमी से अपने दीक्षित होने की बात नहीं कही। कारण, उस समय जातिगत भेदभाव इतना प्रबल था कि अगर आपके बारे में जान जाते कि आपने कायस्थ जाति के गुरु से दीक्षा ली है, तो सबलोग आपसे घृणा करने लग जाते।
कुछ दिनों के बाद इस सामाजिक भेदभाव का विरोध करने की आपमें हिम्मत आयी और आप गाँव के कुछ विचारशील लोगों को संतमत-सत्संग और गुरु महाराज के बारे में बताने लगे। वे लोग आपकी बातों से प्रभावित हुए और गुरु महाराज के दर्शन करने को सोचने लगे।
आपने लोगों को बताया कि संतालपरगने के रमला गाँव में 15, 16, एवं 17 जनवरी 1933 ई0 को वार्षिक अधिवेशन होने जा रहा है। वहाँ हमें गुरु महाराज के दर्शन होंगे।
आप अपने संबंध के दादा बाबू श्री बलदेव सिंह जी तथा गाँव के कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ कई दिन पूर्व ही रमला के लिये चल पड़े। रास्ते में परिचित स्थान पर रात्रि-विश्राम करते थे।
इस प्रकार आपलोग सत्संग-स्थल रमला पहुँचें। वहाँ सद्गुरु महाराज के दर्शन किये और साथ में गये हुए व्यक्तियों का उनको परिचय दिया। पूज्यपाद श्री सद्गुरु महाराज ने आपसे पूछने की कृपा की कि आजकल आप कहाँ रहते हैं? आपने कहा कि हुजूर! आजकल तो मैं घर पर ही रहता हूँ। मेरी प्रबल इच्छा थी कि मैं आपके साथ रहूँ; लेकिन आपने अपने साथ नहीं रहने दिया।
श्रीसद्गुरु महाराज के आदेश से आपलोगों के आवास की समुचित व्यवस्था की गयी। वहाँ तीन दिनों तक सत्संग हुआ। श्री गुरुदेव के प्रवचन से आपके गाँव से आये सज्जन बड़े प्रभावित हुए; उनलोगों ने गुरु महाराज की प्रशंसा की और बोले कि ये तो अपूर्व ज्ञान की बातों का कथन करते हैं। इनका कुछ दिन और संग करना चाहिये।
वहाँ से अन्य कई स्थानों पर सत्संग का समय नियत था। अतः गुरुदेव ने वहाँ से प्रस्थान किया, आपलोग भी साथ चले। कई दिनों तक साथ-साथ रहने पर एक दिन पूज्य गुरुदेव ने आपलोगों से कहने की कृपा की कि हमारे साथ आपलोग कहाँ-कहाँ जाइएगा! आपलोग अब घर चले जाइये। आदेश होने पर आपके गाँव के कुछ लोग तो घर चले गये; परन्तु आपने तथा बाबू श्री बलदेव सिंह जी ने कुछ दिनों और साथ रहने की प्रार्थना की।
वहाँ से गुरुदेव पुरैनियाँ जिले के सरसौनी बिजुलिया गाँव आये। यह गाँव जलालगढ़ से पश्चिम है। आपलोग भी उनके साथ आये। आप दोनों की इच्छा होती थी कि हमलोग भी साधु बन जायँ। वहाँ रात में आप गुरुदेव के चरण चाँपने गये। आपने जोर-जोर से चाँपना शुरू किया। पूज्य गुरुदेव ने कहा कि आप जिस तरह चाँपते हैं कि लगता है, मेरी चमड़ी ही फट जायेगी। आप छोड़ दीजिये। फिर अपने सेवक श्री छुतहरू दासजी की ओर इशारा करते हुए बोले कि यह चाँपेगा। यह धीरे-धीरे चाँपना जानता है। तब आप भी धीरे-धीरे ही दबाने लगे। आपने विनीत स्वर में निवेदन किया कि मुझे भी अपनी शरण में रखा जाय। पूज्य गुरुदेव ने डाँटते हुए आपसे कहा, “मैंने किसी को साधु नहीं बनाया है। यदि साधु बनाना चाहता, तो कितने को बनाये रहता। आप पुनः घर लौट जाइये। आपके पिताजी मुझे दोष देते हैं। उन्होंने इस संबंध में मुझे कई पत्र दिये हैं।” आप मौन होकर अपने वासस्थान पर चले आये।
वहीं आपको पता चला कि गुरुदेव का मुरादाबाद जाने का प्रोग्राम है। वहाँ धर्म-सम्मेलन है, पूज्य श्रीनन्दन बाबा (सद्गुरु बाबा देवी साहब के सेवक) का पत्र आया है। आपलोग सिकलीगढ़ धरहरा चले आये। यहाँ तो आपके पूर्वपरिचित लोग थे ही, कुछ दिनों ठहर गये। यहीं आपका और बाबू श्री बलदेव सिंह जी का पूज्य गुरुदेव के साथ मुरादाबाद जाने का विचार हुआ।
सन् 1933 ई0 में पूज्यपाद श्री सद्गुरु महाराज की एकान्त में सुरत-शब्द-योग करने की तीव्र इच्छा हुई और विचार किया गया कि मुरादाबाद धर्म-सम्मेलन में जाने का प्रोग्राम है ही, उधर ही कहीं एकान्त स्थान का चयन किया जायगा।
मुरादाबाद जाने के लिए पूज्यपाद श्रीसद्गुरु महाराज के बरौनी रेलवे स्टेशन पहुँचने की तारीख निश्चित हो चुकी थी। उस समय बनमनखी-सहर्षा-मानसी रेल-पथ नहीं था। अतः आपने और बाबू श्री बलदेव सिंह जी ने पैदल ही सिकलीगढ़ धरहरा से मानसी की ओर यात्र कर दी। रास्ते में कोशी नदी को नाव से पार किया और कहीं-कहीं रात्रि-विश्राम करते हुए मानसी रेलवे स्टेशन पहुँचे। मानसी से रेल द्वारा खगड़िया होते हुए बरौनी रेलवे स्टेशन पहुँचे। वहाँ के स्थानीय सत्संगियों को आपने पूज्य गुरुदेव के मुरादाबाद जाने की सूचना दी। रेलगाड़ी के पहुँचने के नियत समय के पूर्व ही सभी श्रद्धालु भक्त कुछ प्रसाद तथा माला वगैरह लेकर स्टेशन पहुँचे। आपलोगों ने भी मुरादाबाद के लिये टिकट कटा लिये।
निर्धारित समय पर गाड़ी आयी। सबों ने पूज्य गुरुदेव के दर्शन किए तथा मालाएँ और प्रसाद अर्पित किये। आपको देखकर गुरुदेव ने चकित होकर पूछा कि आपलोग कहाँ जाइएगा? आपने निवेदन किया कि हमलोग भी हुजूर के साथ मुरादाबाद जाएँगे। पूज्य गुरुदेव की स्वीकृति मिल गयी।
आपलोग पूज्य गुरुदेव के साथ मुरादाबाद पहुँचे। वहाँ धर्म-सम्मेलन में सभी धर्मों के लोग आमंत्रित किये गये थे और उन्हें अपने-अपने धर्म की विशेषताएँ बताने को कहा गया था। इस सम्मेलन के सभापति थे पूज्य श्रीनन्दन बाबा। सबों ने अपने-अपने धर्म की विशेषताएँ बतायीं। वहाँ आर्यसमाजी और देवसमाजी दोनों बड़े जोरदार और कड़े शब्दों में एक दूसरे का विरोध कर रहे थे। वे एक दूसरे की बात बिल्कुल नहीं सुनना चाहते थे। आर्यसमाजी कहते थे कि ‘ईश्वर नहीं है’, यह हम कान से सुनना नहीं चाहते हैं। देवसमाजी कहते थे कि ‘ईश्वर है’, हम भी यह सुनना नहीं चाहते। पूज्य श्री नन्दन बाबा ने दोनों से नम्र निवेदन किया कि जब एक का व्याख्यान होने लगे, तो दूसरे मंच से नीचे उतरकर बाहर चले जायँ। यह प्रस्ताव दोनों पक्षों ने मंजूर किया। पूज्य बाबा नन्दन साहब ने यह भी कहा कि मेरे गुरु भाई (पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) का जब प्रवचन होगा, तो दोनों को सुनना होगा। यह बात भी दोनों ने मान ली।
अन्त में पूज्य गुरुदेव से प्रवचन देने के लिए निवेदन किया गया। उस सम्मेलन में गुरुदेव का गंभीर ज्ञान-मंडित भाषण हुआ, जिसका सारांश इस प्रकार है—
“जो कहते हैं कि ईश्वर है, वे ईश्वर को प्रत्यक्ष रूप में दिखा नहीं सकते और जो कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, उनके ऐसा कहने से ईश्वर का अस्तित्व मिट नहीं जायगा।
ईश्वर है और नहीं है, इन दोनों बातों को थोड़ी देर के लिए अलग रखें और विचार करें कि आप क्या चाहते हैं—सुख अथवा दुःख? दुःख कोई नहीं चाहते; सब सुख ही चाहते हैं।
हम महादुःख में पड़े हुए हैं। बार-बार जन्म लेना और मरना—यह आवागमन का चक्र लगा ही रहता है। इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय, कोई युक्ति चाहिये।
दूसरी बात, हम कौन हैं, इसपर विचार करना चाहिये। क्या हम शरीर हैं? नहीं, हम शरीर नहीं हैं। हम कहते हैं कि ये हमारे हाथ हैं, आँखें हैं, नाक है, कान हैं आदि, तो ये हमारे हैं, स्वयं हम नहीं हैं। हम शरीर और इन्द्रियों से भिन्न तत्त्व हैं। अपने को जानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है।
सबसे बड़ी बात यह है कि हम सुख-शान्ति चाहते हैं। यह सुख-शांति कहीं बाहर नहीं, अपने अन्दर है और उसे पाने की सद्युक्ति है।
इस प्रकार श्रीसद्गुरु महाराज का घंटों व्याख्यान हुआ, जिसे सुनकर सबलोग बड़े प्रभावित हुए।
उस धर्म-सम्मेलन में एक अँग्रेज आये थे। उनकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। कहा जाता था कि वे समझकर किताब पढ़ते हुए एक ही साथ अलग-अलग व्याख्यान देते हुए सात व्यक्तियों की बात समझ जाते थे, पीछे वे पढ़ी हुई किताब की बात और सात व्यक्तियों के भाषण की बात सुना देते थे। उस समय ब्रिटेन सरकार ने उनके मस्तिष्क को एक लाख रुपये में खरीद लिया था, ताकि मरणोपरान्त उनके मस्तिष्क की विशेषता का अध्ययन किया जा सके। उनको भी श्री सद्गुरु महाराज का प्रवचन अँग्रेजी भाषा में समझाया गया। वे भी खुश हुए।
वहीं एक आर्यसमाजी से श्री सद्गुरु महाराज की वार्त्ता हुई। श्री सद्गुरु महाराज ने उनसे पूछा, “महाराज! शब्द-साधना के बारे में आपका क्या मत है?” उन्होंने कहा, “कान बन्द करने से तो रग-रेशे की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। उन्हें सुनने से क्या लाभ?” श्री सद्गुरु महाराज ने कहा—“इस तरह शब्द नहीं सुना जाता है।” उन्होंने पूछा—“तब कैसे सुना जाता है जी?” श्री सद्गुरु महाराज ने कहा कि एकविन्दुता पर स्थिर होने पर सूक्ष्म शब्दों का ग्रहण होता है। वहाँ रग-रेशे की आवाजें नहीं होतीं। वे कुछ देर तक चुप रहने के बाद बोले, “हो सकता है।”
धर्म-सम्मेलन के बाद आपके साथ गये बाबू श्री बलदेव सिंह जी गुरु महाराज से दीक्षा लेकर घर लौट आये और आप गुरुदेव के साथ रहे।
मुरादाबाद में सद्गुरु महाराज ने स्थानीय सत्संगियों से पूछा कि कोई ऐसा एकान्त स्थान बताइये, जो शब्द-साधना करने के लिए उपयुक्त हो। उनलोगों ने गढ़मुक्तेश्वर और नैमिषारण्य को बढ़िया स्थान बताया। गुरु महाराज ने गढ़मुक्तेश्वर में कुछ दिनों तक शब्द-साधना की; लेकिन ठंढ अधिक पड़ने के कारण वहाँ अनुकूलता नजर नहीं आयी। वहाँ से वे मुरादाबाद होते हुए छपरा आये।
वहाँ के श्रद्धालु भक्तों ने गुरुदेव को रक्सौल में एकान्त स्थान बताया। कुछ दिनों तक उन्होंने वहाँ वास किया। आप उनका भोजन तैयार करते थे।
वहाँ भी अनुकूलता न मिलने पर मायागंज (भागलपुर नगर) चले आये। एक दिन टहलने के क्रम में यहाँ की गुफा देखी और निरीक्षण किया। एकान्त स्थान पाकर उन्होंने यहीं शब्द-साधना करने का विचार किया।
आदेश मिलने पर आपने तथा कुछ सत्संगियों ने मिलकर गुफा की सफाई की। गुरु महाराज नित्य नियमित रूप से उसमें साधना करने लगे, उसी गुफा के ओसरे पर निवास भी करते थे। प्रातः 9 बजे गुफा में घुसते थे और 12 बजे साधना करके निकलते थे। तबतक आप भोजन तैयार करके रखते थे। आपके अलावा श्री छतरू दास भी पूज्यपाद गुरुदेव की सेवा में थे।
भोजनोपरान्त आराम करने और शौचादि के बाद 4 बजे शाम को पुनः गुफा में जाते थे और 7-8 बजे बाहर आ जाते थे। आप भोजन बनाने के अतिरिक्त उनकी अन्य सेवाएँ भी बड़ी मुस्तैदी और श्रद्धा के साथ किया करते थे। शब्द-साधना करने के क्रम में उन्होंने आपको भी आदेश दिया था कि आप भी शब्द-साधना कीजिये और कौन-कौन शब्द सुनाई पड़ता है, इसको लिखिये। आप भी उनकी सेवा से बचे समय में साधना किया करते थे।
कुछ महीनों के बाद गुरु महाराज ने आपको घर जाने का आदेश दे दिया। आपने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि हुजूर, मैं अब घर पर नहीं जाऊँगा; श्रीचरणों की सेवा करूँगा। इसपर उन्होंने आपको डाँटते हुए कहा— “मैंने आजतक किसी को साधु नहीं बनाया है। यदि साधु बनाये होता, तो हजारों को बना दिया होता। आपके माता-पिता मुझको दोष देंगे।”
आपने बहुत अनुनय-विनय किया और घर नहीं जाने का दृढ़ संकल्प उनके चरणों में निवेदित किया। उन्होंने आपका दृढ़ संकल्प देखकर आपको आदेश दिया—“ठीक है, अगर आप घर नहीं जाइएगा, तो धरहरा चले जाइये और वहाँ आपने जो जमीन खरीदी है, उसी में कुटी बनाकर रहिये; उस जमीन में केले, बाँस और आम के पेड़ लगाइये। धरहरा कुटी में नहीं रहियेगा।” उनकी आज्ञा पाकर आप सिकलीगढ़ धरहरा चले आये। आपके चले जाने के बाद श्री छतरू दास जी पूज्यपाद गुरुदेव की सेवा में रहने लगे।
धरहरा के सत्संग-प्रेमियों ने आपसे सत्संग-कुटी में ही रहने का आग्रह किया। आपने कहा कि गुरु महाराज की ऐसी आज्ञा नहीं है। उनलोगों ने कहा कि गढ़ पर अकेले कैसे रहियेगा? पूज्यपाद गुरुदेव जब जाएँगे, तब हमलोग उनसे निवेदन कर देंगे। आप धरहरा सत्संग-कुटी में रहने लगे और साधना करने लगे। सत्संग-कुटी में बाबा श्री महगूदास जी रहते थे, वे भी भोजन बनाते थे।
सत्संग-कुटी में कुछ महीने रहने के बाद आपके द्वारा शारीरिक श्रम नहीं किये जाने का समाचार पूज्य गुरुदेव को मिला, तो उन्होंने आपको एक पत्र लिखने की कृपा की, “अभी आप जवान आदमी हैं। कुछ शारीरिक श्रम किया कीजिये, नहीं तो स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा।” आदेश पाते ही आपने अपनी जमीन की कँटीली झाड़ियों को अपने से साफ करना प्रारंभ किया। कुछ दिनों में पूरी सफाई करके उसमें आम, केले, बाँस तथा जिल्ल के गाछ लगाये।
आपके साधु बनने की खबर जब उस सेठ जी को मिला, जिनके यहाँ धरहरा में आप नौकरी करते थे, तो उन्होंने आपसे कहा कि आप मेरे यहाँ ही रहिये, भोजन भी यहीं कीजिये। अब आपको कोई काम-धंधा नहीं करना है। आपने उनके यहाँ रहना स्वीकार नहीं किया, फिर भी वे आपके पास प्रति माह चावल, दाल, सब्जी आदि भोजन की सामग्री पहुँचा दिया करते थे। आप उन सामग्री को सत्संग-मंदिर में जमा कर देते थे। आप पर उस सेठ की बड़ी श्रद्धा थी। आप उनके यहाँ पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी से काम किया करते थे; एक-एक पैसे का ठीक-ठीक हिसाब रखते थे। इसलिए आप पर उनका पूरा विश्वास था।
लगभग 1935 ई0 के प्रारंभ में ही पूज्यपाद सद्गुरु महाराज का धरहरा पदार्पण हुआ। वे आपके द्वारा लगाये गये बगीचे को देखकर प्रसन्न हुए और आपकी बड़ी प्रशंसा की। आपकी कर्मठता देखकर उन्होंने आपको स्थायी रूप से सत्संग-मन्दिर में ही रहने का आदेश दिया।
आपने सोचा कि सत्संग-मन्दिर में कुछ स्थायी सम्पत्ति हो जाय तो मंदिर आत्म-निर्भर हो पाता। इसीलिए आपने गुरुदेव की आज्ञा लेकर अपनी पहलेवाली जमीन के इर्द-गिर्द जमीन खरीदना शुरू किया। इस प्रकार करीब 28 बीघे जमीन आपने गढ़ पर खरीदी। ऐसा कहा जाता है कि उस जगह बौद्धकालीन किसी राजा का गढ़ था, जिसके भग्नावशेष अब भी देखने को मिलते हैं। सत्संग-मन्दिर के आस-पास तथा अन्यत्र भी आपके द्वारा जमीन खरीदी गयी। सिकलीगढ़ धरहरा आश्रम में अभी कुल मिलाकर 45 बीघे जमीन हैं। कुल जमीन पूज्यपाद गुरुदेव के नाम से थी।
गढ़वाली जमीन कँटीली झाड़ियों से भरी थी। आपने अपने से तथा कुछ मजदूरों की सहायता से उसे साफ किया। करीब 22 बीघे जमीन में आपने अपने हाथों आम, लीची, केले, अमरुद, कटहल, जामुन, बाँस, जिल्ले आदि का बगीचा लगाया। गढ़ पर काम करते समय आपके हाथ में तथा कंधे पर खन्ती, कुल्हाड़ी और कुदाल देखी जाती थी। बगीचे के अतिरिक्त जमीन में धान, गेहूँ, मकई, दलहन, तेलहन एवं पाट वगैरह की खेती होती है।
आपके परिश्रम एवं सत्प्रयास से धरहरा-सत्संग-आश्रम पूर्ण आत्मनिर्भर हो गया है। कृषि-कार्य के लिए 8-10 जोड़े बैल रहते हैं। 10-15 गायें, 10-12 बाछियाँ और 10-12 बाछे रहते हैं। खेती के लिए बैल कभी खरीदना नहीं पड़ता है। दूध भी बाहर से खरीदकर मँगाने की नौबत नहीं आती है।
कृषिकार्य आप सदा कर्मठता और मुस्तैदी से करते थे। बगीचे की प्रत्येक वस्तु की यादगारी रखते थे। कोई चीज क्षतिग्रस्त हो जाती थी, तो उसकी छानबीन आप स्वयं करते थे तथा पूरी निगरानी रखते थे। आपके शरीर में बड़ी स्फूर्त्ति थी। वह 97वें वर्ष की अवस्था में भी देखी जा सकती थी। कोई काम करने में आलस्य नहीं करते थे। आश्रमवासियों के कार्यकलाप पर नजर रखते थे। छोटे संन्यासियों व ब्रह्मचारियों को शिक्षा देने के लिए आप वज्र के समान कठोर हो जाते थे। कोई चीज क्षतिग्रस्त हो जाती या उनमें आलस्य देखा जाता, तो उन्हे आपकी कड़ी डाँट सुननी पड़ती थी। सन्त-महात्माओं का हृदय कोमल होता है। आपकी डाँट में हित और शिक्षा की पवित्र भावना रहती थी। आपका हृदय मातृत्व भावों से ओतप्रोत था। आपकी कठोरता के अन्तस्तल में फूल के समान कोमलता थी और प्रेम का शीतल झरना भी।
सामाजिक जीवन कैसे जीना चाहिए, इससे आप पूर्णतः परिचित थे। किसी के चरित्र के बुरे पक्ष को देखना, किसी में दोष-दर्शन करना या किसी की कोमल भावना पर व्यर्थ आघात पहुँचाना आपको कतई पसन्द नहीं होता था। आपका विश्वास था कि किसी को हृदय का सच्चा प्यार देकर ही अपना बनाया जा सकता है, उसे सत्पथ पर लगाया जा सकता है, आदर और प्रशंसा करके किसी को अपने वश में किया जा सकता है। मनुष्य से गलतियाँ होती ही हैं। निन्दा और दुत्कार से तो लोग और बिगड़ते ही हैं।
सिकलीगढ़ धरहरा से करीब 4 मील पश्चिम मोहनियाँ आश्रम है। उस गाँव के स्व0 श्रीयुत् राधाकृष्ण भगतजी ने करीब 22 बीघे जमीन दानस्वरूप पूज्यपाद गुरुदेव को दी हैं। उनकी भी खेती-बाड़ी धरहरा आश्रम की ही देखरेख में होती है। वहाँ भी आप जाकर स्वयं कृषि-कार्य कराते थे। मजदूरों को काम करने में आलस्य या आनाकानी करते देखते, तो स्वयं खेत में काम करने लग जाते थे। कभी-कभी तो ऐसा देखा जाता था कि एक ओर पाँच-पाँच मजदूर काम कर रहे हैं और दूसरी ओर आप अकेले, तौभी आपकी बराबरी वे लोग नहीं कर पाते थे। आपकी कर्मठता देखकर वे लज्जित हो जाते थे।
सिकलीगढ़ धरहरा सत्संग-मन्दिर में रहने के समय ही एक बार सन् 1940 ई0 में आप श्रीसद्गुरु महाराज को अपने गाँव लगमा ले गये। गुरुदेव और आप नयानगर रेलवे स्टेशन उतरे। उन्हें शौच जाने की प्रेरणा हुई। आपने निकट ही एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के कामत पर गुरुदेव के बिछावन का गट्ठर वगैरह ले जाकर रखा और वे शौच गये।
आपसे उक्त सज्जन ने पूछा कि ये महात्मा कौन हैं? इनका चेहरा तो बड़ा दिव्य मालूम पड़ता है। आपने कहा कि ये मेरे गुरु महाराज हैं। फिर उन्होंने पूछा कि ये किस जाति के हैं? आपने कहा कि कायस्थ जाति के हैं। उस समय जातिगत भावना चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। उन्होंने आपको फटकारते हुए कहा—“छि:! छिः!! अहाँ के अयोध्या आर में कोनो क्षत्रिय-ब्राह्मण जाति के गुरु नय मिलल, जे अहाँ पुरैनियाँ जिला में जॉय के कायस्थ जाति के गुरु बनैवलौं!” (छिः! छिः!! आपको अयोध्या आदि में क्षत्रिय या ब्राह्मण जाति के कोई गुरु नहीं मिले, जो आपने पुरैनियाँ जिले में जाकर कायस्थ जाति को गुरु बनाया!)
आपने विनीत स्वर में कहा, “इनमें क्या ज्ञान है, कृपया आप भी मेरे यहाँ आकर उनके सत्संग में सुनें। मैं आपको भी सत्संग में आमंत्रित करता हूँ।”
आपने गाँव जाकर अपने यहाँ सत्संग का आयोजन किया और सभी ग्रामीण व्यक्तियों को सत्संग में आने को आमंत्रित किया। प्रथम दिन तो गाँव के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों और नयानगर गाँव के उक्त सज्जन ने भी भाग लिया। सत्संग से वे लोग बहुत प्रभावित हुए। दूसरे दिन तो करीब हजार की संख्या में लोगों ने भाग लिया। इस प्रकार चार दिनों तक सत्संग हुआ, जिसमें सैकड़ौं लोगों ने दीक्षा ली। दीक्षा देने के समय गुरुदेव ने सभी लोगों से पूछा कि आपलोगों ने किन्हीं को पहले गुरु बनाया है कि नहीं? यदि ‘हाँ’, तो उन्होंने कोई मंत्र बताया है कि नहीं?
लोगों ने कहा, “हमलोगों ने पहले भी गुरु से मंत्र लिया है।” तब पूज्य गुरुदेव ने कहने की कृपा की, “आपलोगों को पहले के गुरु ने जो मंत्र दिया है, उसे ही जपें। मैं आपलोगों को जप के बाद की कुछ क्रिया बता देता हूँ।” सबों को साधना की विशेष क्रियाएँ बता दी गयीं। गुरुदेव के प्रति सबकी विशेष श्रद्धा हो गयी और वे लोग प्रशंसा करने लगे कि ये गुरु को छोड़ने के लिए नहीं कहते हैं।
आपके संबंध के दादा बाबू श्री बलदेव सिंहजी अब साधु- वेश में आ गये थे। वे गुरु महाराज से पहले ही दीक्षित हो गये थे। गुरुदेव ने उन्हें लोगों को दीक्षित करने का अधिकार दे दिया और कहा कि मैं तो दूर रहता हूँ, आप यहाँ रहते हैं। अतः आप ही यहाँ के लोगों को दीक्षा दें और सत्संग का प्रचार करें।
एक दिन आपकी माताजी फटे-चिथड़े वेश में, मानों पगली हो गयी हों, आयीं और गुरुदेव के चरणों में रोते हुए गिरकर कहने लगीं—“इहे होय छै जे ई हमरा छोड़ के साधु बँन गेल।” (मुझे ऐसा होता है कि यह मुझको छोड़कर साधु बन गया।) गुरु महाराज ने कहा, “हम अहाँ के पुत्र के साधु नय बनैयलौं ये। देखियो न हिनका हम संन्यासी के वेश देलियैन्हि ये। ई अहैं कतअ रहता आ अहाँ के सेवा करताह।” (मैंने आपके पुत्र को साधु नहीं बनाया है। देखिये न, इनको मैंने संन्यासी का वेश दिया है? ये आपके ही पास रहेंगे और आपकी सेवा करेंगे।)
तब गुरुदेव ने आपको कुछ दिन वहीं रहने का आदेश दिया। आप एक महीने तक अपने गाँव में रहे। जब आप आने की तैयारी करते तो आपकी माता जी आपके पास आकर रोने लगतीं। एक दिन आप आधी रात को ही अपना सामान लिये बिना घर से निकल पड़े और सिकलीगढ़ धरहरा आश्रम चले आये।
कई वर्षों के बाद घर से पत्र आया कि आपकी माता जी बीमार हैं, जल्द आइये। आप घर नहीं गये। कुछ दिनों के बाद तार आया कि आपकी माता जी मरणासन्न हैं। तब आपकी इच्छा माताजी के अन्तिम दर्शन करने की हुई। पूज्य गुरुदेव सिकलीगढ़ धरहरा में नहीं थे। वे दुर्गापुर गाँव में थे। वह गाँव धरहरा से 16 मील की दूरी पर है। आपने वहाँ से पैदल ही चलकर गुरुदेव के दर्शन किये और माता जी के मरणासन्न होने की खबर सुनायी।
उन्होंने आपको 25 रुपये देकर कहा कि आप अवश्य जाइये। आप वहाँ से पैदल 15 मील की दूरी तय करके नौगछिया पहुँचे। वहाँ से रेलगाड़ी के द्वारा नयानगर रेलवे स्टेशन पहुँचे। वहाँ आपको अपने चाचा जी से भेंट हो गयी। वे आपको ले आने के लिए सिकलीगढ़ धरहरा जा रहे थे। उनके द्वारा मालूम हुआ कि आपकी माताजी की बोली बन्द हो गयी है। वे इशारे से पूछती हैं कि मुझको तीन बेटे हैं। एक (आपके बारे में) कहाँ है?
आपके पहुँचने के पूर्व ही गोदान कर दिया गया था। आपने जाकर प्रणाम किया। आपकी माताजी ने आपको इशारे से आशीर्वाद दिया। कुछ समय के बाद उनका शरीर छूट गया। वह ईस्वी सन् 1945 था।
उनकी श्राद्ध क्रिया करने के बाद आप सिकलीगढ़ धरहरा लौट आये। बाल्यकाल से ही आपकी इच्छा थी कि आजीवन अविवाहित रहूँ और हुआ भी ऐसा ही।
सन् 1949 ई0 में अखिल भारतीय साधु-समाज का सम्मेलन गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद में था। उसमें समूचे भारत के साधु आमंत्रित किये गये थे। पूज्यपाद सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी को भी आमंत्रण मिला था। उस समय गुरुदेव श्री संतमत-सत्संग-मंदिर मधुबनी (पुरैनियाँ) में निवास कर रहे थे। उन्होंने पत्र द्वारा आपको धरहरा से पुरैनियाँ बुलाया। वे अस्वस्थ होने के कारण सम्मेलन में जाने में असमर्थ थे। इसीलिये आपको और पूज्य श्री संतसेवीजी महाराज को सम्मेलन में जाने का आदेश दिया। उस समय आप दोनों सादे वेश में रहते थे। गुरुदेव ने कहा कि आज आपदोनों को वेश-बाना (अरबन-कौपीन अर्थात् संन्यासी का वेश) दूँगा। मुंडन, स्नान के बाद आप दोनों को संन्यासी का वेश दे दिया गया।
आप दोनों अहमदाबाद सम्मेलन में गये।
साधु-समाज-सम्मेलन के अध्यक्ष थे स्वामी हरिनारायणानन्द जी एम0 ए0 (द्वय)। उन्होंने आपको तथा पूज्यपाद श्री संतसेवी जी महाराज को अखिल भारतीय साधु-समाज का सदस्य बना दिया।
सम्मेलन-समाप्ति के बाद आपलोग लौटकर सिकलीगढ़- धरहरा आश्रम आये और पूज्यपाद गुरुदेव के चरणों में सम्मेलन की सारी बातों की जानकारी दी। गुरु महाराज बहुत प्रसन्न हुए और आपसे कहने की कृपा की, “आप साधन-भजन करेंगे या ये ही सब काम करते फिरेंगे। आप लिखकर त्याग-पत्र भेज दीजिये कि मुझसे सदस्यता का कार्य-भार नहीं सँभल सकेगा।” आपने वैसा ही किया।
सम्मेलन से आने के बाद आपने संन्यासी का वेश उतार दिया और सादा वेश धारण कर लिया। जब गुरुदेव ने यह देखा तो बड़े चकित होकर पूछा—“आपने यह क्या किया; वेश क्यों उतार दिया?” आपने विनीत स्वर में कहा कि मुझे सादा वेश ही अच्छा लगता है। गुरु महाराज की आज्ञा पर आपने पुनः पहन लिया।
आज्ञा-पालन में आप हमेशा तैनात रहते थे। पूरी तत्परता एवं जवाबदेही के साथ कार्य-भार सँभालते थे। सेवा-कार्य में आप कभी शिथिल नहीं देखे जाते थे। जो कार्य करने में कोई आगा-पीछा करते थे, आप उसे गुरु की आज्ञा पाकर कर डालते थे।
एक बार सन् 1951 ई0 में सिकलीगढ़-धरहरा में पुरैनियाँ जिले का वार्षिक अधिवेशन था। उस समय ध्वनिवर्द्धक यंत्र सहज रूप में उपलब्ध नहीं होता था। कुरसेला के रायबहादुर श्री रघुवंश नारायण सिंह जी के यहाँ से ध्वनिवर्द्धक यंत्र प्राप्त हो सकते थे। गुरुदेव चिन्तित थे कि परसों अधिवेशन प्रारंभ होनेवाला है और अभी तक ध्वनिवर्द्धक यंत्रों (लाउड स्पीकर्स) का प्रबंध नहीं हो सका है। कुरसेला किसे भेजा जाय।
आपने गुरुदेव से निवेदन किया कि मैं चला जाऊँगा और ले आऊँगा। उस समय कुरसेला जाने का पैदल ही रास्ता था। पूज्य गुरुदेव ने कहा— “हाँ, आप क्षत्रिय हैं, आप जा सकते हैं।” आप प्रातःकाल रास्ते में खाने के लिए कुछ जलपान लेकर चल दिये और शाम होते-होते करीब 38 मील की दूरी तय करके कुरसेला पहुँच गये। वहाँ रात्रि-विश्राम करके प्रातः लाउड स्पीकर्स लेकर धरहरा पहुँच गये।
सन् 1957-59 ई0 में सिकलीगढ़-धरहरा सत्संग-आश्रम का भवन निर्माण-कार्य चल रहा था। आप स्वयं राजमिस्त्री को ईंट पहुँचाते थे तथा अन्य कार्यों में भी सहयोग करते थे और आश्रमवासियों से भी कराते थे। आपकी कर्मठता, सचाई, कर्त्तव्यनिष्ठा, निःस्पृहता, बुद्धिमत्ता और प्रबन्ध की सुदक्षता के कारण आपको परम पूज्य गुरुदेव ने सन् 1950 ई0 में ही श्री संतमत-सत्संग-आश्रम सिकलीगढ़ धरहरा का व्यवस्थापक बना सारा कार्यभार सदा के लिए आप पर सौंप दिया था।
आप आश्रमवासियों के साथ ही बैठकर भोजन करते थे। खाने पीने की चीज परस्पर समान रूप से बँटवाकर खाते थे। अगर कभी दूध-दही या अन्य कोई भोजन-सामग्री किन्हीं सत्संगी के यहाँ से आती या कोई श्रद्धालु भक्त ले आते, तो उसे भी अपने सामने सभी आश्रमवासियों तथा अतिथियों में समान रूप से बँटवाते थे। अगर दूध कम रहता था तो भंडारी को आदेश देते कि भात में दूध मिला दो। जर्जर अवस्था में भी आप अच्छी चीज बाँटकर खाने का आदेश दिया करते थे। आपकी दृष्टि में ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं था।
आपकी स्मरण-शक्ति इतनी तीव्र थी कि कोई सन्तवाणी या संस्कृत का श्लोक एक-दो बार पढ़ते या सुनते याद हो जाता था। सिकलीगढ़-धरहरा आश्रम में परम श्रद्धेय बाबा श्रीबजरंगी दासजी संतवाणी तथा संस्कृत श्लोक रटा करते थे। उनसे पहले ही आपको सुनकर याद हो जाता था। 97वें वर्ष की अवस्था में भी आपकी याददाश्त अच्छी थी। आपको श्रीमद्भगवद्गीता के बहुत श्लोक कंठस्थ थे; भाषा-पद्यानुवाद तो अठारहो अध्यायों के श्लोकों के याद थे। श्रीरघुनाथ दास कृत विश्राम-सागर और श्रीरामचरितमानस के बहुत-से पद्य, अनेक संतवाणियाँ एवं वेद-उपनिषदों के बहुत-से मंत्र आपकी जिह्ना पर रहते थे। ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’ के भी बहुत पद्य आपको याद थे। आप महीनों भिन्न-भिन्न विषयों पर बोलते रह सकते थे। संतमत की अच्छी जानकारी थी आपको और उसके अनुरूप अपने जीवन को ढाला भी था।
आप लेखन-कार्य कभी नहीं करते थे। आप अपने मनोभावों को लिपिबद्ध करने के लिए अन्य लोगों से कहा करते थे। यदा-कदा कुप्पाघाट आश्रम आने पर आप श्री नित्यानन्द दास जी को ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’ की टीका लिखवाया करते थे। भाषण करने के पूर्व उसकी तैयारी करते आप नहीं देखे जाते थे। बोलने के समय जो बातें सहज रूप से स्फुरित होती थीं, उन्हें स्वाभाविक स्वर में व्यक्त करते जाते थे। आपकी भाषा बड़ी सीधी-सादी होती थी। लोग आपकी बातें समझ जायँ, प्रवचन के समय आपका यही लक्ष्य रहता था। हिन्दी भाषा की आपको अच्छी जानकारी थी; परन्तु भाषा-पांडित्य-प्रदर्शन की ओर से उदासीन रहते थे। आपकी वाणी में बुद्धि और हृदय-दोनों तत्त्वों की प्रधानता रहती थी। वे श्रोताओं के मस्तिष्क और हृदय दोनों को प्रभावित करते थे। फलस्वरूप आदमी कुछ सोचने के लिए और कुछ करने के लिए सक्रिय हो उठता था। आप संतमत की बातें बड़े विश्वासपूर्वक बोलते थे। आपका भाषण संतवाणी के अनुकूल और बुद्धि की कसौटी पर भी खरा उतरनेवाला होता था। बड़े-बड़े संतमत-सत्संग-अधिवेशन में लाखों की भीड़ देखकर आपके भाषण की ओजस्विता और बढ़ जाती थी, धाराप्रवाह वाणी निकलती थी। संतवाणी का अर्थ आप बड़े ही संतोषजनक ढंग से करते थे। पूज्यपाद गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के साथ और अन्य लोगों के साथ भी भारत के विभिन्न ऐतिहासिक और औद्योगिक स्थानों का आपने भ्रमण किया था।
गुरुदेव ने दीक्षा देने का अधिकार देने के लिए चुने हुए लगभग 32 लोगों को आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर बुलाया था। ऐसे लोगों की नामावली में आपका नाम सबसे ऊपर था। लोगों को दीक्षित करने का अधिकार मिलने के बाद भी आपने बहुत दिनों तक लोगों को दीक्षा नहीं दी। आप यही कहा करते थे—
गुरु आगे जो करे गुरुआई। ताको नरक लिखा है भाई।।
(संत कबीर साहब)
एक बार गुरुदेव ने आपसे पूछा—“आप लोगों को दीक्षित नहीं करते हैं?” आपने संत कबीर साहब की वही वाणी दुहरायी—
“गुरु आगे जो करे गुरुआई। ताको नरक लिखा है भाई।।”
और विनीत स्वर में निवेदन किया कि मैं इसी कारण से लोगों को दीक्षित नहीं करता हूँ। तब गुरुदेव ने कहने की कृपा की, “गुरु की आज्ञा नहीं मानने पर कौन-सा नरक देखना पड़ता है, जानते हैं?” आप मौन हो गये और तब से दीक्षा देने लगे। दस हजार से भी अधिक लोग आपसे मानस-जप, मानस-ध्यान और दृष्टियोग की साधना-पद्धति सीखकर साधना-निरत हुए।
दुबला-पतला गौर बदन, छोटा कद, भव्य दीप्त ललाट, लम्बे-लम्बे केश, लम्बी-लम्बी मूँछ-दाढ़ी, गैरिक रंग का कुरता, गंजी, धोती पहने, आँखों में चश्मा लगाये तथा ह्नीलचेयर पर टहलते—आपका चित्ताकर्षक रूप गुरुदेव का प्रतिरूप मालूम पड़ता था। वस्तुतः आपके व्यक्तित्व में गुरुदेव पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का व्यक्तित्व झलक मारता था।
आपके व्यक्तित्व में माधुर्य और मृदुता का अद्भुत योग था। जो कोई आपसे मिलता, वह आपसे बातचीत करते ही आपमें अपनत्व की झाँकी पाता, वह अपने को गौरवान्वित मानता। आपका व्यक्तित्व किसी पुस्तक के खुले पृष्ठ की तरह था, जिसे सब कोई पढ़ सकें, सब कोई देख सकें, उसमें कोई कृत्रिमता नहीं थी। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’—यही आपके आचरण से लक्षित होता था।
पूज्यपाद सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने कई बार कहा था, “जो मैं हूँ, वही श्रीधर है; मुझमें और श्रीधर में कोई अन्तर नहीं है। लोगों को चाहिये कि इनका मेरे जैसा ही आदर करें।”
एकबार सिकलीगढ़-धरहरा में सन् 1961 ई0 में मास-ध्यान- साधना का आयोजन था। आश्रम-व्यवस्थापक के नाते आपने उसका विज्ञापन लिखकर ‘शान्ति-सन्देश’ मासिक पत्रिका में छपाने हेतु भेजा। उसमें यह भी निर्देश था कि ध्यान-शिविर में भाग लेनेवाले यदि ठीक-ठीक नियम का पालन नहीं करेंगे, तो उन्हें बीच में ही निकाल दिया जायेगा। उस समय ‘शान्ति-सन्देश’ के संपादक माननीय श्री उदित नारायण चौधरी जी (श्री अभेदानन्द बाबा) थे। गुरुदेव भागलपुर के परबत्ती मुहल्ले में स्थित श्रीसंतमत-सत्संग-मंदिर में विराजमान थे। श्रद्धेय श्री संपादकजी ने आपके द्वारा भेजा गया विज्ञापन पूज्य श्री संतसेवी बाबा को दिखाया। पूज्य बाबा ने कहा कि ऐसा कड़ा शब्द नहीं लिखना चाहिए। पूज्य गुरुदेव भोजन कर रहे थे। भोजनोपरान्त उन्होंने पूछने की कृपा की, “आपलोग क्या बातचीत कर रहे थे?” श्रद्धेय संपादकजी ने सारी बातें बतायीं। सुनकर गुरु महाराज ने कहा, “उन्होंने जो कुछ लिखकर भेजा है, उसे हू-ब-हू छाप दीजिये। श्रीधर दास के समान अभी मेरा कोई शिष्य नहीं है।”
एक बार कोई सज्जन गुरुदेव से सत्संग का समय लेने कुप्पाघाट आश्रम आये थे। गुरुदेव ने उन्हें समय दे दिया। कुछ देर के बाद उन्होंने उस सज्जन को बुलाकर कहा कि मुझे समय नहीं है; मैं नहीं जाऊँगा। वे सज्जन वहाँ से सिकलीगढ़ धरहरा आश्रम आये और आपसे अनुनय-विनय करके सत्संग में जाने की स्वीकृति ले ली। आपके पदार्पण से सत्संग बड़े धूमधाम से हुआ। कुछ दिनों के बाद उक्त सज्जन गुरुदेव के दर्शन के लिये कुप्पाघाट आश्रम आये। गुरुदेव ने उनसे पूछने की कृपा की, “सत्संग हुआ था?” उन्होंने कहा कि हाँ, हुजूर! मैंने पूज्य श्री श्रीधर बाबा को सत्संग में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। उनके जाने से बड़े धूमधाम से सत्संग हुआ। पूज्य गुरुदेव ने कहा—“अच्छा किया, जो श्रीधर को ले गये। श्रीधर चला गया, तो समझो मैं ही चला गया।”
एक बार नवगछिया में मास-ध्यान-साधना शिविर चल रहा था। उसके अन्तिम दिन पूज्य गुरुदेव का पदार्पण हुआ था। अपराह्नकालीन सत्संग में आपका प्रवचन हो रहा था। आप ईश्वर-स्वरूप पर बोल रहे थे। गुरुदेव बड़े गौर से प्रसन्न मुद्रा में आपको निहार रहे थे। आपके प्रवचन के बाद उन्होंने कहने की कृपा की, “गुरु गुड़, चेला चीनी।”
दीन-दुःखियों के प्रति सद्भावना, सहानुभूति और दया दृष्टि रखना, अहंकार-शून्य होकर आदर देते हुए छोटे-बड़े सबों के साथ अभेद भाव से वार्त्तालाप करना, बिना उकताये धैर्यपूर्वक सुव्यवस्थित ढंग से अपना काम करते जाना, हठवाद और वाद-विवाद से दूर रहकर दूसरों के विचारों का भी आदर करना, सहिष्णुता, क्षमाशीलता, गंभीरता, व्यवहारकुशलता, कर्मठता, अपने सहज जीवन से सदा संतुष्ट रहना, न अधिक बोलना और न कम बोलना, सोच-समझकर कुछ बोलना अथवा कोई काम करना—ये आपके व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएँ थीं।
आप जबतक स्वस्थ रहे और बुढ़ापा अवस्था आने के पूर्व तक किसी से कुछ सेवा नहीं करायी। यहाँ तक कि एक लोटा पानी भी नहीं मँगवाया। आप अक्सर कहा करते थे कि मैं बूढ़ा नहीं होऊँगा; क्योंकि मैं युवावस्था में खूब शारीरिक श्रम किया करता था। लेकिन “देखत ही आई बिरधाई।” नहीं चाहने पर भी जवानी चली जाती है और बिना बुलाये बुढ़ापा चला आता है।
सन् 1980 ई0 के मार्च-अप्रैल माह में श्री संतमत-सत्संग-आश्रम सहरसा में आपकी अध्यक्षता में ही मास-ध्यान-साधना-शिविर का आयोजन किया गया था। उस समय आपकी उम्र 87 वर्ष की थी। फिर भी आपके साथ कोई सेवक नहीं था। मैंने भी उस मास-ध्यान-साधना -शिविर में भाग लिया था। मेरे मन में हुआ कि ऐेसे महान् कर्मयोगी की सेवा करनी चाहिए। कम-से-कम मास-ध्यान-साधना-शिविर की पूरी अवधि तक भी यदि सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, तो अपने को बड़ा भाग्यशाली समझूँगा। मैं इसी ख्याल से पूज्यपाद बाबा की सेवा बड़ी श्रद्धा और निष्ठा से करने लगा। मेरे मन में होता था कि आपकी आज्ञा हो जाए, तो मैं स्थायी रूप से आपकी सेवा करता रहूँ। मास-ध्यान-साधना-शिविर की अवधि पूरी हो गई। वहाँ के सभी स्थानीय लोगों ने बड़ी उदारतापूर्वक तन-मन-धन से मास-ध्यान- साधना-शिविर की सफलता हेतु मदद की। परमाराध्यदेव श्रीसद्गुरु महाराज की असीम दया से ध्यान-यज्ञ सम्पन्न हुआ। मैंने प्रातःकाल श्री चरणों में श्रद्धायुक्त होकर प्रणाम किया और प्रार्थना की कि मेरा ध्यान-भजन नहीं बनता है। अतः आशीर्वाद देने की दया की जाय। आपने आशीर्वाद देते हुए कहने की कृपा की कि ‘जाओ, तुम्हारा सब कुछ बन जायगा।’ मैंने पूज्य चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और कमरे से बाहर आ गया।
कुछ देर के बाद पूज्य श्री संत शिशू बाबा, जो महर्षि मेँहीँ अवतरण-भूमि मझुआ (खोखसी श्याम) आश्रम के व्यवस्थापक हैं और उदार साधु हैं, आपसे मिलने आपके निवास-स्थान पर गये। प्रणाम कर उन्होंने निवेदन किया कि सच्चिदानन्दजी को अपनी सेवा में रख लें। मेरे मन में भी था कि पूज्यपाद बाबा मुझे श्री चरणों की सेवा में रख लेते, तो बहुत बड़ी अनुकम्पा होती। आपने कहने की कृपा की कि ‘अब यही मेरी सेवा में रहेगा।’ मैं गद्गद हो गया और आपके तथा पूज्य श्री संत शिशु बाबा के चरणों में मन-ही-मन प्रणाम किया।
मैं आपकी सेवा करने लगा; लेकिन कहा गया है, ‘सबसे सेवक धर्म कठोरा।’ सेवा-कार्य में कभी-कभी त्रुटि हो जाने से कड़ी डाँट सुननी पड़ती थी। साथ ही प्यार भी मिलता था। आप मुझे गढ़ना चाहते थे। आपका हृदय नारियल की तरह था। ऊपर से तो बहुत कड़ा; लेकिन भीतर से खूब मुलायम। मास-ध्यान-साधना की समाप्ति के बाद संचालक माननीय श्री रामव्रत प्रसादजी कुप्पाघाट आश्रम आए और परमाराध्यदेव श्रीसद्गुरु महाराज को मास-ध्यान-साधना की सफलता के समाचार सुनाये। परमाराध्यदेव ने बड़ी प्रसन्न मुद्रा में कहने की कृपा की कि ‘आपने बड़ा अच्छा किया, जो श्रीधर दास जी को मास-ध्यान- साधना में बुलाया।’
आपका हर्निया नीचे उतर जाता था, जिससे कभी-कभी काफी पीड़ा होती थी। आपके हर्निया का पहली बार ऑपरेशन सन् 1973 ई0 में भागलपुर नगर के डॉ0 श्रीरामवदन प्र0 सिंह जी के द्वारा किया गया; लेकिन किसी असंयम के कारण सफल नहीं हो सका।
हर्निया के ऑपरेशन के बाद कुछ दिनों तक महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट में निवास करने के बाद आप धरहरा आश्रम चले आये। ऑपरेशन किये गये स्थान पर घाव हो गया और उसमें पीव भर गया, जो हमेशा बहता था और दुर्गन्ध करता रहता था। पीव बहने के कारण कपड़ा गन्दा हो जाता था। उस समय आपकी सेवा धरहरा आश्रम के ही बाबा श्रीबजरंगी दास जी, बाबा श्रीकेदार दासजी तथा श्रीसुधीर दासजी किया करते थे। श्रीबजरंगी बाबा तो सेवा की मूर्ति ही थे। छोटी-सी-छोटी सेवा यहाँ तक कि निकृष्ट सेवा भी करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। उन्हें मानापमान की कोई परवाह नहीं रहती थी। साधुता के पूर्ण गुण उनमें थे। पूज्यपाद बाबा का घाव छूट नहीं रहा था, जब यह समाचार परम पूज्य श्रीगुरुदेव को मिला, तब तुरत आपको कुप्पाघाट आश्रम बुला लिया और समुचित इलाज हेतु बहुत व्यग्र हो गये। इस संदर्भ में आपको पटना ले जाने की तैयारी की जाने लगी। लेकिन परमाराध्यदेव श्रीगुरुदेव ने शान्ति-सन्देश के सम्पादक माननीय श्री अधिकलाल दास जी को भागलपुर नगर में सुयोग्य चिकित्सक का पता लगाने हेतु आदेश दिया। पता लगाने पर पता लगा कि एक सुयोग्य चिकित्सक हैं। जब उनसे दिखलाया गया तो उन्होंने घाव का पीव जाँचकर बहुत अच्छी दवाई दी, जिसके खाने से रात में ही पीव का बहना रुक गया। इस प्रकार परम पूज्य श्रीगुरुदेव का असीम स्नेह आप पर रहता था।
आपका हर्निया पुनः नीचे उतर आया और कभी-कभी असहनीय पीड़ा होने लगी। तत्पश्चात् सन् 1982 ई0 में पटना के वरिष्ठ शल्य-चिकित्सक माननीय डॉ0 शैलेन्द्र प्र0 सिन्हा ने आपके बाईं ओर के हर्निया का ऑपरेशन अपने ही निवास-स्थान पर किया। पुनः दायीं ओर के हर्निया का ऑपरेशन 1986 ई0 में उन्होंने अपने निवास-स्थान पर ही किया, जो पूर्ण सफल रहा। माननीय डॉ0 साहब बड़ी श्रद्धा से आपकी निगरानी करते थे। इन दोनों बार के ऑपरेशन के पूर्व तथा पश्चात् आपने पटना के वरिष्ठ चिकित्सक तथा अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा के प्रधान मंत्री माननीय डॉ0 श्रीनन्दलाल मोदी जी के निवास-स्थान पर ही महीनों निवास किया। माननीय डॉ0 साहब आपके तथा हमलोगों के रहने और भोजन की समुचित व्यवस्था किया करते थे। श्रद्धा की तो वे मूर्ति ही हैं। उनकी सेवा भी सराहनीय रही। वे प्रतिदिन पूज्यपाद बाबा की देखरेख स्वयं बड़ी श्रद्धा से किया करते थे।
हर्निया के ऑपरेशन के पूर्व से ही आपके छाती रोग की चिकित्सा भागलपुर नगर के माननीय डॉ0 श्रीरामवदन प्र0 सिंह जी, माननीय डॉ0 राजहंस जी तथा पुरैनियाँ नगर के छाती रोग विशेषज्ञ माननीय डॉ0 श्रीइन्देश्वरी प्र0 सिंह जी के द्वारा कई वर्षों से होता रहा। पुरैनियाँ संतमत-सत्संग आश्रम में अस्वस्थावस्था में रहने के समय आश्रम व्यवस्थापक बाबा श्रीछत्रधारीदासजी, श्रीनित्यानन्द मालाकार जी, श्रीरामचन्द्र भगतजी, श्री सतीश प्र0 गुप्तजी, श्री वीरेन्द्र प्र0 केशरी जी इत्यादि सत्संग-प्रेमीगण बड़ी श्रद्धा से आपकी सेवा किया करते थे।
कुछ दिनों के बाद आपकी छाती में, पीठ में, तलवे में जलन होने लगी और जलन क्रमशः बढ़ती गयी। हमलोग तुरत आपको महर्षि मेँहीँ आश्रम लाये और भागलपुर नगर के चिकित्सकों को दिखलाया। कई महीनों तक चिकित्सा होने के बाद भी जलन में कमी नहीं हुई। तत्पश्चात् वहाँ से पटना ले जाया गया। पटना में भी कई सुयोग्य चिकित्सकों से चिकित्सा कराने के बाद भी जलन में कोई कमी नहीं हुई। उस समय आपकी सेवा में मेरे साथ श्री शिव शरणदासजी भी थे। वे बड़ी श्रद्धा से आपकी सेवा किया करते थे। श्री अखिलेश प्र0 मंडल जी, कनीय अभियन्ता तथा श्री सिद्धार्थ जी की सेवा सराहनीय रही। वे बड़ी श्रद्धा से सेवा करते थे। पुनः दिन के नौ बजे अपने कार्यालय चले जाते थे। श्री दिलीप कुमार सिंहजी अपनी गाय का दूध नितप्रति श्री अखिलेशजी द्वारा भेजा करते थे, जो पूज्यपाद बाबा की सेवा में काम आता था।
पूज्यपाद बाबा की उचित चिकित्सा हो, साथ ही ये पूर्ण स्वस्थ हो जायँ, इसके लिए माननीय डॉ0 श्री नन्दलाल मोदी जी एवं डॉ0 श्री शैलेन्द्र प्र0 सिन्हा जी बड़े चिंतित रहते थे और पूर्ण स्वस्थता हेतुु भरसक प्रयत्न करते थे; लेकिन जलन शांत नहीं हुई।
कुछ दिनों के बाद हमलोग पूज्यपाद बाबा के साथ पटना से भागलपुर चले आये। यहाँ कुप्पाघाट आश्रम में कई महीने रहने के बाद प्राकृतिक चिकित्सा कराने का विचार किया गया। श्रद्धेय श्री अधिकलाल दास जी, सम्पादक, शांति-सन्देश ने प्राकृतिक चिकित्सालय रानीपतरा (पुरैनियाँ) के सुयोग्य डॉ0 श्री रवीन्द्र प्र0 चौधरीजी को श्री शंभुजी (एक प्रेस कर्मचारी) के द्वारा पत्र भेजकर बुलवाया। उन्होंने विचार दिया कि कुछ महीनों तक प्राकृतिक चिकित्सा अगर करायी जाए, तो जलन शांत हो सकती है। आप चलने-फिरने से लाचार हो गये थे। आपके लिए ह्नीलचेयर कलकत्ता नगर से मँगाया गया। ह्नीलचेयर खरीदने में 1100 (ग्यारह) सौ रुपये की राशि व्यय हुई, जो श्रद्धेय श्री रामधन साहजी (कनीय अभियंता) ने दी। ये पति-पत्नी आपके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे और आपकी सेवा करने के लिए तैयार रहते थे। उसी ह्नीलचेयर पर आपको सुबह-शाम खुली हवा में टहलाया जाता था।
कुछ दिनों के बाद आपको कुप्पाघाट आश्रम से प्राकृतिक चिकित्सालय रानीपतरा (पुरैनियाँ) चिकित्सा हेतु लाया गया। छः महीने तक चिकित्सा की गई। लेकिन कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। कमजोरी भी बढ़ती गई। आपको जिस ह्नीलचेयर पर टहलाया जाता था, उसकी बनावट अच्छी नहीं थी। इसलिए एक दूसरा अच्छे ढंग का ह्नीलचेयर पटना से मँगाया गया, जिसकी व्यय-राशि पटना के श्री दिलीप कुमार सिंह जी, श्री अखिलेश प्र0 मंडल जी तथा श्री सिद्धार्थ जी इत्यादि श्रद्धालु भक्तों ने दी। प्राकृतिक चिकित्सालय रानीपतरा के डॉ0 श्री रवीन्द्र प्र0 चौधरी जी तथा डॉ0 श्री रामनिवास चौधरी जी बड़ी श्रद्धा और प्रेम से चिकित्सा करते थे। प्राकृतिक चिकित्सालय में रहते समय आपकी सेवा में मेरे अलावा श्री अनमोलानन्द जी, श्री वृजलाल दास जी, श्री विन्देश्वरी दास जी और श्री देवनारायण दास जी थे, जो बड़ी श्रद्धा और प्रेम से सेवा किया करते थे। श्री अनमोलानन्द जी, पूज्यपाद श्री शाही स्वामी जी महाराज, व्यवस्थापक, महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के आदेश पर आपकी सेवा हेतु आये थे। प्राकृतिक चिकित्सालय सत्संगालय ही बना हुआ था। दूर-दूर से तथा निकट के श्रद्धालु भक्त आपके दर्शनार्थ आते ही रहते थे। इस जर्जरावस्था तथा अस्वस्थावस्था में भी आप उन श्रद्धालु भक्तों को कुछ-न-कुछ उपदेश दिया ही करते थे।
आपके अस्वस्थ हो जाने से श्री संतमत-सत्संग आश्रम, सिकलीगढ़ धरहरा की व्यवस्था का कार्यभार पूज्य श्री मोहन बाबा, श्री मकेश्वर बाबा, श्री चमकलाल बाबा, श्री बलदेव बाबा, श्री वकील दास जी, श्री सरयुग दास जी, श्री मनराज दास जी तथा श्री उपेन्द्र दास जी इत्यादि आश्रमवासी बड़ी श्रद्धा, प्रेम और कर्मठता से सँभालते थे।
प्राकृतिक चिकित्सालय के बाद आपको श्री संतमत-सत्संग आश्रम मधुवनी (पुरैनियाँ) लाया गया। आपकी पूर्ण स्वस्थता हेतु पत्रों द्वारा पूज्य श्रीसंतसेवी जी महाराज, पूज्यपाद श्री शाहीस्वामी जी महाराज तथा सभी आश्रमवासियों की शुभकामनाएँ आती थीं।
एक बार महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के व्यवस्थापक पूज्यपाद श्रीशाहीस्वामी जी महाराज आपके दर्शनार्थ आये। आपने उनके सामने परम पूज्य गुरुदेवजी के दर्शन हेतु ले जाने के लिए बहुत व्यग्रता दिखायी। कौन जानता था कि परम पूज्य गुरुदेवजी के महाप्रयाण का समय आ गया है; लेकिन आपको इसका आभास मिल गया था, तभी तो उनके दर्शन के लिए इतने बेचैन थे। पूज्यपाद श्री शाहीस्वामीजी महाराज का आश्वासन मिलने पर कि आप कुछ दिनों के बाद जायेंगे, आप मौन हो गए। मैंने भी निवेदन किया कि हुजूर! अभी बहुत गर्मी पड़ती है, बाद में जाया जायेगा। इसके पश्चात् भी कई दिनों तक कुप्पाघाट आश्रम चलने हेतु कहते रहे।
दिनांक 8 जून, 1986 ई0, रविवार को रात्रि करीब 10 बजे परमाराध्यदेव सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज अपने इहलौकिक लीलामय पावन शरीर का परित्याग कर ब्रह्मलीन हो गये। इसकी सूचना रेडियो द्वारा प्रसारित की गयी। दिनांक 9 जून, 1986 ई0 के रात्रि करीब 8 बजे यह समाचार श्री संतमत-सत्संग-आश्रम, मधुवनी में एक सत्संग-प्रेमी द्वारा प्राप्त हुआ। आप भोजन करने बैठे ही थे। यह दुःखद समाचार सुनकर आपने भोजन करना छोड़ दिया। यह समाचार पा हमलोग भी स्तब्ध हो गये और आँखों से अश्रुपात होने लगा।
दिनांक 10 जून, 1986 ई0 के प्रातः हमलोग पूज्यपाद बाबा के साथ कुप्पाघाट आश्रम के लिए रवाना हुए। परम पूज्य ब्रह्मलीन श्री सद्गुरुजी महाराज का पावन पार्थिव शरीर उनके निवास स्थान पर भक्तों के दर्शनार्थ रखा गया था। हमलोगों ने भी आपके साथ ब्रह्मलीन श्री सद्गुरु महाराज के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन किये।
श्री सद्गुरु महाराज के ब्रह्मलीन हो जाने के बाद से आप बहुत दुःखी तथा मौन रहा करते थे और यदा-कदा बोला करते थे कि “हे गुरुदेव! आप तो चले गये। मैं कब जाऊँगा!” श्रीगुरुदेव के ब्रह्मलीन होने के बाद आप कुप्पाघाट आश्रम में ही निवास करने लगे। यहाँ भी भागलपुर के कई चिकित्सकों से आपकी चिकित्सा करायी गयी; लेकिन शरीर की जलन शांत नहीं हुई। आप यदा-कदा यह भी बोला करते थे कि “मैं अब छः महीने ही रहूँगा।” हमलोगों की चिंता और बढ़ गयी तथा बहुत दुःखी हुए। हमलोगों ने आपसे प्रार्थना की कि अभी और कुछ वर्ष रहा जाय! आपने कहने की कृपा की कि “अब बहुत कष्ट होता है।” कभी-कभी तो आप समाधिस्थ हो जाते थे और उस समय ऐसा देखा जाता था कि शरीर में जलन बिल्कुल नहीं है। एक दिन मैंने आपसे प्रार्थना करते हुए पूछा कि हुजूर! आपकी कोई कामना भी है, तो उत्तर में आपने कहने की कृपा की कि मुझे कोई भी कामना नहीं है।
एक दिन आपने मौज में आकर मुझसे कहने की कृपा की कि “अब तुम मुझसे संन्यास वस्त्र ग्रहण कर लो।” मैंने कहा, “हुजूर! इतनी जल्दी क्या है?” आप इस बात को यदा-कदा दुहराया करते थे। शायद आपने सोचा होगा कि मेरे महाप्रयाण का समय निकट है। एक दिन और आपने मुझसे कहने की कृपा की कि “अब तू हमरा सऽ गेरुआ वस्त्र लाय लय।” (अब तुम मुझसे गैरिक वस्त्र ले लो।) मैंने प्रार्थना की कि हुजूर! मुझे ऊपर से क्या रँगते हैं, अंदर से रँग दें। आपने कहने की कृपा की कि सब हो जायगा। मैंने श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा कि हुजूर की ऐसी प्रबल इच्छा है तो ले लूँगा।
दिनांक 12-10-1986 ई0 आश्विन शुक्ल दशमी (विजया दशमी) को आपने मुझे तथा श्री विन्देश्वरी जी को संन्यास वस्त्र दिया।
महाप्रयाण के करीब 4 रोज पूर्व एक रात्रि करीब 1 बजे मुझे उठाते हुए कहने की कृपा की कि सच्चिदानन्द! धरहरा आश्रम में एक बैल सख्त बीमार है। मैंने कहा कि मुझे तो इसका पता नहीं है। धरहरा आश्रम महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट से बहुत दूर होने के कारण मुझे इसकी जानकारी नहीं थी। एक दिन के पश्चात् धरहरा आश्रम से साधु आये, तो पता लगा कि वास्तव में एक बैल गंभीर रूप से बीमार था। उसी रोज से आपको बुखार आ गया। ऐसा लगता है कि उस बैल का बुखार आपने स्वयं अपने ऊपर ले लिया और बैल को बुखार से मुक्त कर दिया। धीरे-धीरे आपका बुखार तेज होने लगा। भागलपुर नगर के सुयोग्य चिकित्सक बुलाये गये। जाँच करने के बाद आपकी हालत गंभीर बतायी गयी। दवाइयाँ दी गयीं; लेकिन जलन में और अधिक ही वृद्धि हो गयी।
आप अत्यधिक अंतर्मुख ही रहने लगे। भोजन में रुचि नहीं रहती थी। विशेष निवेदन करने पर मात्र दो-चार चम्मच ही लेते थे। दिनांक 24-1-1987 ई0 को रात्रि करीब 12 बजे मैं और श्री वृजलाल दासजी आपकी सेवा में थे। आपकी आज्ञा हुई कि पीठ सहलाओ। मैं आपकी पीठ सहलाने लगा। आपको अधिक कष्ट देखकर मैंने श्रीचरणों में प्रार्थना करते हुए कहा कि हुजूर को इतना कष्ट है तो कृपाकर वह कष्ट हम सेवकों में बाँट दें। आपने कहने की कृपा की कि फ्कर्मफल छीये हमर भोगतै के! (कर्मफल है मेरा, भोगेगा कौन!)
आपके कुप्पाघाट आश्रम में निवास करने के समय भी मेरे अलावा श्री अनमोलानन्दजी, श्री वृजलाल दासजी, श्री विन्देश्वरीजी तथा श्री देवनारायणजी आपकी सेवा में संलग्न थे, जो बड़ी निष्ठापूर्वक सेवारत थे। हमलोगों की सेवा मुख्य रूप से शौचादि क्रिया कराना, मुँह धुलाना, तेल मालिश करना, स्नान कराना, भोजन कराना, टहलाने के लिए ह्नीलचेयर पर बिठाकर खुली हवा में ले जाना, लेटे रहने पर चरण दबाना, पीठ सहलाना और आपके सो जाने पर चरण दबाना और बारी-बारी से जगा रहना था।
आप निश्चित रूप से अपराह्नकाल में विश्राम-सागर, श्रीमद्भगवद्गीता का पद्यानुवाद, श्रीरामचरितमानस, संतवाणी तथा संतमत-साहित्य का पाठ करवाते थे और आप बिछावन पर ही लेटे सुना करते थे। कभी-कभी सुनते-सुनते अन्तर्मुख हो जाया करते थे। यदा-कदा रात्रिकाल के 12 बजे, 2 बजे तथा 3-4 बजे ब्रह्ममुहूर्त्त में भी ग्रंथ-पाठ तथा संतवाणी गाने के लिए कहा करते थे।
दिनांक 25-1-1987 ई0 के प्रातःकाल ही आपकी आवाज बंद हो गयी। इसकी सूचना पूज्यपाद श्री संतसेवीजी महाराज, पूज्यपाद श्री शाही स्वामीजी महाराज तथा सभी आश्रमवासियों को दे दी गई। सबों ने आकर आपको प्रणाम किया और कहा कि अब इनके महाप्रयाण का अन्तिम समय है। आपकी आवाज के बंद होने की सूचना श्री संतमत-सत्संग-आश्रम सिकलीगढ़ धरहरा भी भेज दी गयी।
आपका कर्मक्षेत्र यही आश्रम था, जहाँ आपने करीब 65 वर्ष रहकर आश्रम की अकथनीय सेवा की थी और सत्संग का व्यापक प्रचार किया था। आप श्री गुरुदेव के अटल आज्ञापालक थे। परमपूज्य श्री गुरुदेव का भी कर्म-क्षेत्र इसी आश्रम को होने का सौभाग्य प्राप्त है, जहाँ से संतमत के ज्ञान का प्रकाश भारत के कोने-कोने में फैला और जहाँ श्री सद्गुरु महाराजजी ने तपःपूत साधना की और अपने जीवन के आरम्भ-काल में करीब 70 वर्ष तक रहकर सत्संग का प्रचार किया। यह आश्रम संतमत-सत्संग का मूल स्थान है। आखिर आपके महाप्रयाण का समय आ ही गया। आपने अपने महाप्रयाण की जो भविष्यवाणी की थी कि मैं छः महीने ही रहूँगा’, वह अवधि भी करीब-करीब पूरी हो ही गयी। सूर्यदेव भी उत्तरायण हो गये। परमपूज्य गुरुदेव ने उत्तरायण के शेष भाग में महाप्रयाण किया था और आपने भी उत्तरायण के आरंभिक भाग में। ऐसा लगता है कि श्री गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद सूर्यदेव दक्षिणायन हो गये, इसलिए आपने भीष्म पितामहजी की तरह उत्तरायण की प्रतीक्षा में शरीर रखा। यों तो योगियों पर उत्तरायण या दक्षिणायन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, फिर भी यह शुभ मुहूर्त्त समझा जाता है।
माघ कृष्णपक्ष द्वादशी सं0 2043 तदनुसार दिनांक 26-1-1987 ई0 सोमवार के ब्रह्ममुहूर्त में 4 बजकर 40 मिनट पर आप अपने इहलौकिक लीलामय पावन शरीर का परित्याग कर ब्रह्मलीन हो गये। यह समाचार आकाशवाणी द्वारा प्रसारित तथा समाचार पत्रों द्वारा प्रकाशित किया गया। आपके मुखमंडल पर अति रौनकता थी। परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद उनके मुखमंडल पर भी इसी तरह की रौनकता थी। पूज्यपाद श्री संतसेवीजी महाराज आये, प्रणाम कर 20 मिनट तक आपके मुखमण्डल की रौनकता को गौर से देखते रहे। बाद में उन्होंने बताया कि परमाराध्य गुरुदेव पूज्यपाद बाबा को ‘कर्मयोगी’ कहा करते थे। आपके पार्थिव शरीर को फूलमालाओं से सजाकर दो रोज तक श्रद्धालु भक्तों के अन्तिम दर्शनार्थ रखा गया।
दिनांक 27-1-1987 ई0 को दिन के करीब 12 बजे आपके पार्थिव शरीर को फूल-मालाओं से सजाकर प्रथम श्री गुरुदेव के निवास-स्थल पर, तब सत्संग-हॉल, तत्पश्चात् श्री गुरुदेव के समाधिस्थल पर ले जाया गया, जहाँ गुरु-विनती का सामूहिक गान हुआ। इसके बाद चिता-स्थल पर पहुँचे। चिता गंगा के किनारे बेल तथा चन्दन की लकड़ियों से रची गयी थी। आपने महाप्रयाण के पूर्व ही कहा था कि “मेरे पार्थिव शरीर को गंगा के किनारे जला देना।” इसलिए चिता गंगा किनारे रची गयी। आपके महाप्रयाण के बाद सर्वसम्मति से मेरे द्वारा ही चिता प्रज्वलित करने का निर्णय किया गया। सर्वप्रथम वैदिक ऋचाओं (मंत्रों) द्वारा हवन किया गया। तत्पश्चात् मैंने चिताग्नि प्रज्वलित की। चिताग्नि शांत होने तक श्रीमद्भगवद्गीता तथा संतवाणियों का पाठ होता रहा।
दाह-संस्कार के समय पूज्यपाद श्री संतसेवीजी महाराज, पूज्यपाद श्री शाही स्वामीजी महाराज, पूज्यपाद पं0 श्री विष्णुकांत झाजी महाराज, पूज्य श्री रामलगन बाबा, पूज्य श्री हरिनन्दन बाबा, पूज्य श्री भगीरथ बाबा, पूज्य श्री चतुरानन बाबा (व्यवस्थापक, महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट), पूज्य श्री अच्युतानन्द बाबा (सम्पादक, शांति-सन्देश), श्री मोती बाबा, पूज्य श्री मोहन बाबा, पूज्य श्री मकेश्वर बाबा, अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा के अध्यक्ष माननीय श्री हुलासचन्द्र रूँगटाजी, सं0 मंत्री श्री कपिलेश्वर झाजी, प्रकाशन मन्त्री श्री लक्ष्मी नारायण साहजी, डॉ0 रामजी सिंहजी, डॉ0 रामेश्वर प्रसाद सिंहजी, श्री छोटेलाल मण्डलजी, श्री देवी प्र0 अग्रवालजी, श्री धीरो बाबा, श्री छेदी प्र0 भगतजी, श्री प्रमोद दासजी, श्री नित्यानंद दासजी, श्री गोपाल दास जी, श्री कारु दासजी, श्री विन्देश्वरी दासजी, श्री केदारजी, श्री सुधीर जी, श्री अजयजी, श्री सतीश प्रसाद गुप्तजी, श्री चेतनजी, श्री देवधारी जी, श्री वीरेन्द्रजी, श्री कौशलजी तथा कुप्पाघाट आश्रम के सभी वासी, श्री नित्यानन्द मालाकारजी, डॉ0 वीरेन्द्र केशरीजी, डॉ0 अमल दास जी, श्री संतमत-सत्संग आश्रम सिकलीगढ़ धरहरा के साधु-संन्यासी धरहारा आश्रम के ट्रस्टी सदस्य माननीय श्री गुरु प्रसादजी, माननीय श्री बच्चा प्रसाद सिंहजी, माननीय श्री सुरेन्द्र प्रसाद जायसवालजी, माननीय श्री जितेन्द्र प्र0 जायसवालजी, माननीय श्री मदनारायण साहजी, माननीय श्री महेश्वर नारायण मल्लिकजी तथा धरहरा गाँव के श्री रघुनाथ भगत जी, श्री गंगा प्र0 भगतजी, श्री सीताराम भगतजी, श्री भुवनेश्वर साह जी तथा हजारों श्रद्धालु भक्त उपस्थित थे। आपके पार्थिव शरीर के अस्थि-भस्म को गंगा की धारा में प्रवाहित किया गया और एक अस्थि-कलश धरहरा आश्रम ले जाया गया, जो आपके आवास पर स्थापित किया जायगा। 29 जनवरी 1987 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट में भंडारा हुआ तथा 22 फरवरी 1987 ई0 को श्री संतमत-सत्संग आश्रम सिकलीगढ़ धरहरा में श्रद्धांजलि समारोह तथा विशाल भण्डारे का आयोजन किया गया, जिसमें हजारों सत्संग-प्रेमियों ने भाग लिया और पूज्यपाद स्वामी श्री श्रीधर दासजी महाराज के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की तथा करीब पचास हजार दीन-हीन लोगों एवं सत्संग-प्रेमियों को भोजन कराया गया। श्रद्धांजलि समारोह में पूज्यपाद श्री संतसेवीजी महाराज के अस्वस्थ हो जाने से पदार्पण नहीं हो सका। लेकिन पूज्यपाद श्री शाही स्वामीजी महाराज, पूज्यपाद पं0 श्री विष्णुकान्त झाजी महाराज, पूज्य लच्छन बाबा, पूज्य श्री मोती बाबा (व्यवस्थापक श्री संतमत-सत्संग-आश्रम मचहा), पूज्य श्री संत शिशु बाबा, पूज्य श्री रामलगन बाबा, पूज्य श्री हरिनन्दन बाबा, पूज्य श्री भगीरथ बाबा, पूज्य श्री अच्युतानन्द बाबा (सम्पादक-शांति-सन्देश), पूज्य श्री चतुरानन बाबा (व्यवस्थापक-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट), अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा के अध्यक्ष माननीय श्री हुलासचन्द्र रूँगटाजी, पुरैनियाँ जिला संतमत-सत्संग समिति के अध्यक्ष माननीय श्री शुकदेव प्रसाद यादवजी (बाबा शुकदेवानंद जी), श्री अनचित बाबा, श्री असर्फी बाबा, श्री मोती बाबा (कुप्पाघाट आश्रम) तथा डॉ0 सत्यदेव साहजी इत्यादि अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने भाग लिया।
आपके महाप्रयाण के बाद आज धरहरा आश्रम वीरान-सा लगता है। वहाँ के पेड़-पौधों तथा पशुओं में भी उदासी छा गयी है। श्रद्धालु भक्तों में भी मायूसी छा गयी है। हर जगह आपका अभाव खटक रहा है। जहाँ आपके रहने से चमन मालूम होता था, वहाँ आज सेहरा-सा प्रतीत होता है। किसी ने ठीक ही कहा है—
“कल चमन था आज एक सेहरा हुआ ।
देखते ही देखते ये क्या हुआ ।।”

—सच्चिदानन्द
श्री सन्तमत-सत्संग आश्रम, सिकलीगढ़ धरहरा


उपस्थित सज्ज्नवृन्द, माताओ एवं बहनो!
मैं श्री संतमत-सत्संग-आश्रम, सिकलीगढ़-धरहरा (पूर्णियाँ) का एक तुच्छ सेवक हूँ। गुरुदेव ने जो कुछ उपदेश दिया है, उसी पर हमलोग विचार करें।
अभी सन्त कबीर साहब की वाणी हमलोगों ने सुनी—
कोई चतुर न पावे पार नगरिया बावरी ।
यह संसार ऐसा है कि सांसारिक विषयों में चतुर आदमी इसका पार नहीं पा सकता। यहाँ आपदाएँ, बुढ़ापा और मौत सबके पास आती है।
देह धरे का दंड है, सब काहू को होय ।
ज्ञानी भोगै ज्ञान से, अज्ञानी भोगै रोय ।।
(संत कबीर साहब)
सन्त पलटू साहब कहते हैं—“अपनी-अपनी करनी अपने-अपने साथ।” किसी के दुःख को कोई बाँट नहीं सकता। लोग माया-जाल में पड़कर मरते हैं।
राम कृष्ण परशुराम ने मरना किया कबूल ।
जो लखपति थे, वे खाकपति हो गये। जो राजा-महाराजा थे, वे क्या हो गये? संसार की हालत देख रहे हैं। संत कबीर साहब ने कहा है—
मन जानै सब बात, जानि बूझि औगुन करै ।
ताते कहा कुशलात, लै दीपक कुएँ पड़ै ।।
अपने को लोग विद्वान् कहते हैं; लेकिन उनके कर्मों को देखने से लगता है कि वे क्या कर रहे हैं। ऐसे विद्वानों की विद्या अविद्या है—“हे विद्या तू महाविद्या।”
पहले अपने को जानो, तब परमात्मा को जानोगे। आप शरीर नहीं हैं। शरीर मरता है, आप कभी नहीं मरते। शरीर को नष्ट होते देखते हैं; परन्तु शरीर छोड़कर जाते हुए जीवात्मा को नहीं देखते हैं। मरने के समय मनुष्य की चेतन-वृत्ति सिमट जाती है और तब शरीर को छोड़ देती है।
अंधकार-मंडल में रहते हुए जब शरीर छूटता है, तो जीव कर्म-मंडल में ही रहता है। जिसने प्रकाश का छोर पकड़ लिया है, वह कभी नीचे नहीं गिरेगा। अंधकार में रहनेवाला बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है। यह शरीर नगर है। इस शरीर में नहीं आवें, तो संसार में भी नहीं आवें। संसार में जो आये, सभी पागल हो गये; क्योंकि यहाँ आने पर सब माया में रत हो जाते हैं और अनमोल शरीर को विषय-भोग में खो देते हैं।
भ्रम की किवाड़ी को खोलकर जो देखता है, वही परमात्मा का दर्शन कर पाता है। अपनी आत्मा को जानो—अपने को चीन्हो, तो पता चलेगा—
वह तुम्हीं तुम वही ‘मेँहीँ’ प्रश्न पुनि रहते नहीं ।
गो0 तुलसीदासजी ने भी कहा है—
सो जानै जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।
मन ही सब काम करता है। मन को समेटकर एक विन्दु पर कोई लाता है, तो उसके सब मनोविकार दूर हो जाते हैं। अंधकार का गुण है—अज्ञानता। प्रकाश में जो जाएगा, उसके ऊपर यदि पहाड़ भी गिर पड़े अर्थात् भारी मुसीबत भी आ जाय, तौभी वह सदाचार नहीं छोड़ेगा।
परमात्मा माया-मंडल से परे है; वह परम प्रकाशक है। संत लोग प्रकाश का छोर पकड़ने कहते हैं। अपने अन्दर प्रकाश है, शब्द है। यह प्रकाश और शब्द दिव्य है। अन्दर की ज्योति और शब्द को जो पकड़ता है, उसको अद्भुत सुख मिलता है और उसकी इन्द्रियाँ अशान्त नहीं होतीं।
ज्योति और शब्द का नमूना भी लख लेंगे, तो महान् हो जाएँगे।


बन्दौं संत समान चित, हित अनहित नहिं कोय ।
अंजुलिगत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोय ।।
संत सरलचित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु ।
बाल विनय सुनि करि कृपा, रामचरन रति देहु ।।
प्यारे धर्मानुरागी सत्संगप्रेमियो, माताओ एवं बहनो!
यद्यपि मैं बूढ़ा हूँ, तथापि ज्ञान में कैसा हूँ, यह आपलोग जान लें। हमारे गुरुभाई लोग मुझे यहाँ मंच पर बिठा देते हैं और मेरी प्रशंसा करके महान् बनाते हैं, जैसा कि मैं नहीं हूँ।
अभी आपलोगों ने मेरे मुँह से गो0 तुलसीदासजी की सन्तवन्दना सुनी। संतजन प्रभु को पाकर संसार के सभी प्राणियों को समान समझने लगते हैं, जिस प्रकार अंजलि के अन्दर रखे गये फूल दायें-बायें—दोनों हाथों को समान सुगंध देते हैं। संत सरलचित्त होते हैं। ऐसे सन्त से गो0 तुलसीदासजी प्रार्थना करते हैं कि मुझे श्रीराम के चरणों में भक्ति दें। जब गोसाईं जी जैसे महात्मा भी सन्त के सामने बालक बन जाते हैं, तो ऐसे सन्तों के सामने हमलोग क्या हैं?
यह गुरुदेव की कृपा है कि हमलोग एक सूत्र में बँध गये हैं। कितनी-कितनी दूर से यहाँ आकर एकत्र हुए हैं और सत्संग कर रहे हैं। यह सब गुरुदेव की महान कृपा है। हमलोग सन्त-स्तुति गाते हैं—
सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी ।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी ।।
दुःख भंजन भव-फंदन गंजन,
ज्ञान-ध्यान निधि जग-उपकारी ।
विन्दु-ध्यान विधि नाद ध्यान विधि,
सरल-सरल जग में परचारी ।।
धनि ऋषि सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी ।
धन्य हैं साहब संत कबीर जी,
धनि नानक गुरु महिमा भारी ।।
गोस्वामी श्री तुलसिदास जी,
तुलसी साहब अति उपकारी ।
दादू सुन्दर सूर श्वपच रवि,
जगजीवन पलटू भयहारी ।।
सतगुरु देवी अरु जे भये हैं,
होंगे सब चरणन शिरधारी ।
भजत है ‘मेँहीँ’ धन्य धन्य कहि,
गही सन्तपद आशा सारी ।।
इस तरह हमलोग नितप्रति सन्तों की महिमा गाते हैं। अभी रामचरितमानस के पाठ में क्या आया—
बन्दौं प्रथम महीसुर चरना ।
मोह जनित संसय सब हरना ।।
लोग देवताओं के बारे में जानते हैं कि वे बहुत आराधना करने पर दर्शन देते हैं। देवता प्रसन्न होंगे, तो देवलोक ले जाएँगे। पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में आना ही पड़ेगा। गोसाईं जी कहते हैं कि पृथ्वी पर भी देवता हैं। वे महीसुर कौन हैं? जो मोह-जनित संशय को हर लेते हैं।
वेद ग्रन्थ को भी कहते हैं और ज्ञान को भी। जो वेद को जानते हैं, वे ज्ञानी हैं। ज्ञानी पुरुष ही पृथ्वी पर के देवता हैं। वे प्रत्यक्ष फल देते हैं। वे अज्ञानता-जनित सब संशयों का हरण कर लेते हैं। अज्ञानता में पड़कर हमलोग बहुत दुःखी हो रहे हैं। अज्ञानता के दूर हो जाने पर कोई दुःखी नहीं रहेगा। यह काम पृथ्वी पर के देवता करेंगे। वे होते हैं गुरु। गुरु ही पृथ्वी पर के प्रत्यक्ष देवता हैं। उनसे ही वह ज्ञान मिलता है, जिससे समस्त अज्ञानता मिट जाती है। रामचरितमानस में है—
सुजन समाज सकल सुख खानी ।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।।
जिन्होंने मन को अपने वश में कर लिया है, वे ही सुजन हैं। जिन्होंने मन को काबू नहीं किया है, वे सुजन नहीं होंगे—दुर्जन होंगे। जो मन को काबू किये हुए सुजन-समाज हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम करना चाहिये। उनसे नम्रतापूर्वक बर्त्ताव करना चाहिये। फिर है—
बट बिस्वास अचल निज धर्मा।
सुकर्म करनेवाले समाज को ही वटवृक्ष कहा है। जो पाँच पापों से बचते हैं, गुरु की सेवा करते हैं, ऐसे लोग फ्सुबहिं सुलभ सब दिन सब देसा” हैं। सदाचारी-शुच्याचारी के ही अधीन रहकर उनकी सेवा करनी चाहिये।
साधु का गुण क्या है, उनका आचरण कैसा होता है, उनका कर्त्तव्य कर्म क्या है, गोस्वामीजी ने रामायण में लिखा है—
साधु चरित सुभ सरिस कपासू ।
निरस बिसद गुनमय फल जासू ।।
जैसे कपास सारे कष्टों को सहकर दूसरे की लज्जा का निवारण करता है और शोभा बढ़ाता है, उसी तरह साधुगण कष्टों को सहन करते हुए दूसरों के अवगुणों को दूर करते हैं। इसलिए वे वन्दना करने योग्य हैं। साधु-संतों का यश सदा अजर-अमर रहता है। सन्तों के विषय में गोस्वामीजी ने लिखा है—
मुद मंगलमय सन्त समाजू ।
जो जग जंगम तीरथ राजू ।।
सन्त शान्तिमय आनन्द देनेवाले होते हैं। सांसारिक सुख शान्तिमय नहीं होते, दुःखमय होते हैं। संत संसार में चलते-फिरते तीर्थराज हैं। वे जो भक्ति बताते हैं, वह गंगा की धारा की तरह भक्तों को पवित्र करनेवाली होती है। ईश्वर-भक्ति से पापों का नाश हो जाता है। मन पापों की ओर से हटने लगता है। गुरु महाराज की वाणी में है—
सुखमन के झीना नाल से अमृत की धारा बहि रही ।
ईश्वर-भक्ति करके सुषुम्ना में चेतन-धारों को समेटेंगे, तो सारे पाप कट जायँगे। सन्तों के यहाँ सरस्वती की धारा क्या है? ब्रह्म-ज्ञान ही सरस्वती की धारा है। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है—
राम ब्रह्म परमारथ रूपा ।
अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
यहाँ ब्रह्म का स्वरूप जैसा कहा गया है, वैसा कोई दूसरा हो नहीं सकता। विधि-निषेध का जो उपदेश है, वही यमुना की धारा है।
विधि निषेधमय कलिमल हरनी ।
करम कथा रविनन्दिनि बरनी ।।
कर्म का संयम ही विधि कर्म है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार—ये पंच पाप ही निषिद्ध कर्म हैं। विधि-निषेध का यह उपदेश ही असल में यमुना की धारा है। जिनको समत्व प्राप्त हो गया है, उनको सारे आनन्दों की प्राप्ति हो जाती है।
आत्मा का धर्म है—ऊर्ध्वगमन और इन्द्रियों का धर्म है अधोगमन। जीव को परमात्मा में मिलना है। यदि ऐसा नहीं होता है, तो भक्ति नहीं हुई। यदि आपको पूर्ण विश्वास है, तो आप अपने धर्म पर अचल हैं। यही परमार्थ है।
समाज में जो उत्तम पुरुष हैं, उनकी सेवा आदरपूर्वक करने से सारे क्लेश दूर हो जाते हैं। सन्तों का समाज अलौकिक तीर्थ है इनके यहाँ सद्यः फल मिलता है। इनका सत्संग कैसे करें—
सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।।
संस्कार ही जीवन है। संस्कार ही अगले जीवन को बनाता है। मानव-तन पाकर अच्छे गुणों को धारण करें। जो ईश्वर के भक्त होना चाहते हैं, उनको गुणग्राही होना चाहिये। मोह-जनित जितने भ्रम हैं, सबको सत्संग-भजन करके काट डालें।
ज्ञान को मजबूत करने के लिए बारम्बार सत्संग करना चाहिये अत्यन्त प्रेम से सत्संग में लगकर मन की मैल को धोइये। अन्तःकरण को निर्मल करने के लिए सत्संग-भजन करना चाहिये। भजन करने से मनोविकारों से ऊपर उठ जाते हैं। सत्संग करने से कौए के समान कटु बोलनेवाले कोयल के समान मधुर बोलने लगते हैं। सत्संग करने से बगुले के समान विषयी आदमी हंस के समान गुणग्राही हो जाते हैं।
भगवान् बुद्ध ने कहा है—“अकेला रहना अच्छा है; लेकिन दुष्टों का संग नहीं करना चाहिए।” उत्तम-उत्तम विचारों को लेना चाहिए। ईश्वर की कृपा से मनुष्य-शरीर मिला है। चौरासी लाख योनियों से निकलकर मनुष्य-शरीर में आये हैं। सत्संग-रूपी वृक्ष को सदा सींचना चाहिये अर्थात् बराबर सत्संग करते रहना चाहिये। रामचरितमानस में है—‘सठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।’
सत्संग पाकर यदि हम नहीं सुधरे, तो बहुत बड़ा अभाग्य है। ज्ञान ही पारस है, मन लोहा है। योगी भी बहुत बार जन्म लेते हैं; लेकिन ध्यानाभ्यास करते-करते पापों से मुक्त हो जाते हैं, तब किसी पापकर्म में नहीं फँसते हैं, जैसा कि वर्णन है—
बिधिबस सुजन कुसंगति परहीं ।
फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।।
इन सब बातों पर हम सबों को ध्यान देना चाहिये।


धन्य धन्य सतगुरु सुखद, महिमा कही न जाय ।
जो कुछ कहुँ तुम्हरी कृपा, मोतें कछु न बसाय ।।
प्रिय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, धर्मानुरागिनी माताओ एवं बहनो!
आपलोग समझते होंगे कि यह साधु बूढ़ा है, इसका ज्ञान बहुत ऊँचा होगा; परन्तु बात यह है कि मैं शरीर से बूढ़ा अवश्य हूँ, पर ज्ञान में निरा बालक ही हूँ।
यह सन्तमत का सत्संग है। आपलोगों ने श्री सद्गुरुदेव महाराज की वाणी पढ़ी है और सुनी भी है। मुझमें शक्ति नहीं कि आपको कुछ सुनाऊँ। इसलिए मैं आपलोगों से प्रार्थना करूँगा कि गुरु महाराज के वचनों को पढ़ें, सुनें और समझें तथा सत्संग और ध्यान नित करते रहें। सब सन्तों के ज्ञान का निचोड़ गुरु महाराज ने हमलोगों को समझा दिया है। उसपर पूर्ण विश्वास करके चलना चाहिये। गो0 तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है—
भवानीशंकरौ बन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
लोग भगवान् शिव और पार्वती की पूजा करते हैं। घर-घर में लोगों के पास रामायण है, पढ़ते भी हैं; लेकिन गो0 तुलसीदासजी श्रद्धा को पार्वती और विश्वास को शंकर कहते हैं। श्रद्धा और विश्वास के बिना भक्ति नहीं होती है। जितने महापुरुष हुए, भवानी-शंकर-रूप, श्रद्धा-विश्वास के बिना नहीं हुए।
हमलोगों को चाहिये कि सद्गुरु में श्रद्धा करके उनके उपदेशों पर नाना प्रकार के कष्टों को भी सहते हुए अवश्य चलें। अगर श्रद्धा नहीं है, तो रात-दिन गाते रहने पर भी कुछ मिलने को नहीं है। हमलोग गुरुदेव का वचन “सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी” पढ़ते हैं। इसके अन्त में है—“गही सन्त पद आशा सारी।”
हमलोगों को क्या करना चाहिये, एक सन्त हुए हैं धरनी दास जी महाराज, वे कहते हैं—
एकाएक मिले गुरु पूरा, मूल मंत्र जो पावै ।
सकल संत की बानी बूझै, मन परतीत बढ़ावै ।।
पूरे गुरु मिल जायँ, तो मूल मंत्र मिल जायगा। पूरे गुरु के सत्संग से हम सभी संतों की वाणी बूझ सकेंगे।
परमात्मा की कृपा से हमलोगों को गुरु अवश्य मिल गये हैं, उनसे परमात्म-प्राप्ति की युक्ति भी मिल गयी है। अब मन लगाकर साधना करने की जरूरत है। किसी भी सन्त की वाणी पढ़िये, उसमें अलौकिक ज्ञान है। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं—
बड़े भाग पाइय सत्संगा । बिनहिं प्रयास होहिं भवभंगा ।।
संतों के सत्संग से बिना परिश्रम बेड़ा पार हो जायगा। सत्संग का क्या महत्त्व है, वह अभी आपलोगों ने सुना।
बिना ध्यान के कोई काम नहीं होगा, न कोई ज्ञान होगा। अभी आप जो कुछ सुन रहे हैं, इसमें भी ज्ञान हो रहा है। यों तो योगशास्त्र में है—“योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।” अर्थात् चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। सुमिरण से इष्ट-रूप याद आता रहता है। किसी तरह स्मरण होते रहना चाहिये। इष्टदेव का ख्याल मन में बना रहे, इसी को मानस-ध्यान कहते हैं। मानस-ध्यान कीजिये। मानस-ध्यान में गुरु-रूप को सदा याद रखना है। कबीर साहब ने कहा—
जौं गुरु बसैं बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर ।
एक पलक बिसरै नहीं, जौं गुण होय शरीर ।।
सब काम करते हुए भी ध्यान गुरु पर रहे। इससे महासिद्धि मिलती है। जिस प्रकार का गुरु-रूप आप बाहर में देखते हैं, वैसा ही अपने मन में बसा लें, तो हृदय शुद्ध हो जायगा। इसके बाद है सूक्ष्म ध्यान अर्थात् विन्दु-ध्यान। गुरु के बताये स्थान पर मन को लगाये रखें।
छिन छिन मन को तहाँ लगावै ।
एक पलक छूटन नहिं पावै ।।
हर समय ख्याल लक्ष्य पर रहे। गुरु महाराज ने जो संकेत बताया है, यदि वह ठीक-ठीक आपको याद है, तो आपका ध्यान होगा।
जिसकी बुद्धि निर्मल नहीं है, वह कभी भी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। दृष्टि-साधन से संसार बिल्कुल छूट जाता है। सूई के अगले भाग-जैसे स्थान पर यदि दृष्टि ठहर जाय, तो कोई विषय वासना नहीं रहेगी। भजन-भेदी लोग इसको जानते हैं। गुरुदेव ने संतों के विचारों का निचोड़ इस पद्य में रखा है—
सुखमन के झीना नाल से, अमृत की धारा बहि रही ।
मीन सूरत धार धर भाठा से सीरा चढ़ि रही ।।
गुरु मंत्र जप गुरु-ध्यान कर गुरु सेव कर अति प्रीति कर ।
गुरु की आज्ञा मान प्यारे, कर सदा गुरु की कही ।।
उस नाल का झीना दुवारा, गुरु तुझे देंगे बता ।
दोउ नैन नासा मध्य सन्मुख, सूई अग्र दर ले लही ।।
तम फटे जोती भरे आकाश का तू शैर कर ।
शब्द अनहत सार में मिल लह ले सत पद को सही ।।
दुख दर्द भव के सब मिटैं, सतगुरु चरण नित सेइये ।
गुरु भक्ति बिन कछु न बने, ‘मेहीँ’ सकल सन्तन कही ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
सुखमन में जो प्रवेश करेगा, वह अवश्य ही पवित्र हो जायगा। इसलिए इसकी साधना श्रद्धापूर्वक करनी चाहिये। कभी भी भ्रम और भुलावे में नहीं पड़ना चाहिये। सन्तमत की साधना जो करते हैं, वे ही आगे बढ़ते हैं। यदि मानस-जप, मानस-ध्यान पर अपना ख्याल बराबर रखेंगे, तो विषयों को याद करने का मौका नहीं मिलेगा। जो भक्त बनना चाहते हैं, उनको मन से सदा लड़ते रहना होगा। हर तरफ से मन को समेटकर अपने लक्ष्य पर रखिये। पापों से बचना सुमिरण-भजन से होगा। हमलोगों का यह शरीर समुद्र की तरह गहरा है। कबीर साहब ने बड़ा ही अच्छा कहा है—
डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय आकास ।
आँख बन्द करने पर जो अंधकार मिलता है, उसमें प्रवेश करने पर अन्तराकाश में गमन होता है। इसमें लोक-लज्जा छोड़कर जो प्रवेश करते हैं, वे परमात्मा को पाते हैं।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।
अंधकार पार करके प्रकाश पाएँगे। एक बार भी जो अपने अन्दर विन्दु को देख लेगा, वह कभी विचलित नहीं होगा। लेकिन यह होगा किसको? जो परिवार में रहते हुए भी उसमें आसक्त नहीं है। इस तरह मन को संसार से हटाकर जो साधन करेगा, उसको अवश्य ही परमात्मा की प्राप्ति होगी। सार बात है—ध्यान करना। आचार्य विनोबा जी का कहना है—संस्कार ही जीवन है। संस्कार बनाना चाहिये। जिस तरह हो, यदि भजन में मन डूब जाय, तो अवश्य उद्धार हो जाय।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
हमारे धर्मानुरागी सत्संगी महाशयगण तथा धर्मानुरागिनी माताओ एवं बहनो!
मैं उम्र में अवश्य बूढ़ा हूँ; लेकिन ज्ञान में निरा बालक हूँ। गुरुदेव की महान् दया है कि उन्होंने मुझ-जैसे साधारण आदमी को अपनी शरण में लगा लिया है।
मुरादाबाद परम पुण्य का स्थान है। यहाँ परम गुरु बाबा देवी साहब रहकर प्रचार करते थे। इस पुण्य भूमि से सन्तमत का ड्डोत बहते-बहते बिहार तक चला गया है। मैं यहाँ के सभी लोगों को गुरु मानता हूँ। मैं तो सीखने की श्रद्धा से यहाँ आया हूँ। परम गुरु बाबा देवी साहब ने जो ज्ञान दिया है, वह अभी भी बहुत कम लोग जान पाये हैं। यहाँ के लोग धन्य हैं, जिन्होंने बाबा देवी साहब का ज्ञान सुन पाया।
अभी आपलोग स्तुति-प्रार्थना और सिद्धान्त का पाठ सुन चुके हैं। इसका अर्थ यदि ठीक-ठीक समझ लेंगे, तो कुछ भी बाकी नहीं रह जायगा। जितने ऋषि-मुनि तथा संत-महात्मा हुए हैं, सबों के विचारों का सार गुरु महाराज ने इन पद्यों में रख दिया है। इसपर यदि हमलोग विचार करें और सोचें तथा अमल करें, तो इससे अपार लाभ होगा, कुछ भी बाकी नहीं रह जायगा।
आज लोगों ने अपने-अपने गुरु के नाम पर मत वा पंथ चलाये हैं। मैंने एक कबीरपंथी साधु से पूछा कि सन्त कबीर साहब किस पंथ के थे? उन्होंने कहा कि कबीर साहब सन्तों को मानते थे।
पटना में धर्म-सम्मेलन हो रहा था। वहाँ मैं भी था। सभी अपने-अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ बतला रहे थे। एक सज्जन ने पूछा—“क्या ऐसे भी कोई हैं, जो सब सन्तों को मानते हैं?” एक साधारण सत्संगी ने गुरु महाराज द्वारा रचित पद्य “सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी” की पंक्तियों को गाकर सुनाया। सुनते ही लोग श्रीसद्गुरुदेवजी महाराज के पास दर्शनार्थ दौड़ पड़े। इसका प्रत्यक्ष नमूना अभी भी आपने देखा कि सबसे पहले वेद का पाठ हुआ, फिर उपनिषद् और सन्तवाणी का भी पाठ हुआ।
संतमत सब सन्तों के मूल ज्ञान को लेकर चला है। आपलोगों से प्रार्थना करूँगा कि गुरु महाराज ने जो ज्ञान दिया है, उसे खूब विचारें, समझें और उसके मुताबिक चलने की कोशिश करें।
ईश्वर को लोग बहुत-से नामों और रूपों में मानते हैं। आजकल विज्ञान का युग है। बहुत नाम-रूप कब हुए? पहले रूप बनता है, तब नाम रखा जाता है। अनेक नाम गुण और कर्म पर रखे जाते हैं। पहले जो बिना नाम और रूप का था, वही है परमात्मा। हमारे यहाँ जितनी ठाकुरवाड़ियाँ हैं, सबमें भगवान् के विग्रह की पूजा करते हैं। ठाकुरवाड़ी में लोग गाते हैं—
भये प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी ।
हर्षित महतारी मुनिमन हारी अद्भुत रूप विचारी ।।
लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुजचारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी ।।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि विधि करौं अनन्ता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनन्ता ।।
करुणा सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकन्ता ।।
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति वेद कहै ।
सो मम उर बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ।।
उपजा जब ज्ञाना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत विधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ।।
इसपर विचार कीजिये—वह अद्भुत रूप क्या है, जिसे देखकर कौशल्या को हर्ष हुआ? रूप कैसा है—“माया गुन ग्यानातीत अमाना-----।” इस स्वरूप का ज्ञान जब कौशल्या को हो गया, तो भगवान् मुस्कुराने लगे। प्रभु को प्रसन्नता इसलिए हुई कि कौशल्या माता को स्वरूप का ज्ञान हो गया है।
लोग रोज ठाकुरवाड़ी में यह स्तुति गाते हैं; लेकिन प्रभु का स्वरूप क्या है, इसका कुछ भी पता नहीं। वे असल में कौन थे? गो0 तुलसीदासजी लिखते हैं—
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार ।
इसी को गुरु महाराज ने ईश-स्तुति में लिखा है—
है हिरण्यगर्भहु खर्व जासों, जो हैं सान्तन्ह पार में ।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में ।।
एक अनादि-अनन्त तत्त्व को मानना ही पड़ेगा। उसी अनादि अनन्त तत्त्व को संतमत में परमात्मा कहते हैं। उन्हीं को प्राप्त करना है। इसी के लिए भक्ति है।
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा ।
राम तें अधिक राम कर दासा ।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा ।
चन्दन तरु हरि संत समीरा ।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई ।
सो बिनु संत न काहू पाई ।।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
उपस्थित सत्संगप्रेमी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
मैं सर्वप्रथम पूज्यपाद गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से आपलोग जहाँ-तहाँ से पहुँचकर सत्संग से लाभान्वित हो रहे हैं। अभी आपलोगों ने सन्तों की वाणियों का श्रवण किया। उन्हें सुनकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि अब कुछ सुनने और समझने के लिए बाकी नहीं रहा।
गुरु महाराज ने इस पुरैनियाँ जिले के कोने-कोने में संतमत के विचारों का सर्वसाधारण में प्रचार किया है। मैंने भी यहीं गुरुदेव से कुछ सीखा है। मैं तो इस भूमि को धन्यवाद देता हूँ, जहाँ ऐसे महान् गुरु का आविर्भाव हुआ। मैं आपलोगों से प्रार्थना करूँगा कि गुरु महाराज के अनमोल ज्ञान को अपने जीवन में उतारें। यदि आप इनके धर्मोपदेश को मानकर चलेंगे, तो आपका जीवन महान् हो जायगा।
अभी हम सबों ने मिलकर ईश-स्तुति गायी है। इसमें ईश्वर का स्वरूप स्पष्ट कर दिया गया है।
सर्वेश है अखिलेश हैं विश्वेस है सब पार में ।
उत्पन्न होनेवाले पदार्थ में जो व्यापक होकर वर्त्तमान है, वही ईश्वर है। ईश्वर सबसे सूक्ष्म है, इसलिए वह सर्वव्यापक है। उसकी सीमा नहीं है। वह असीम है—अपार है। गो0 तुलसीदासजी महाराज के वचन में भी है—
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
ईश्वर अविनाशी है, उसका कभी नाश नहीं होता। सन्तों ने जो ज्ञान दिया है, वह लोप-सा होता जा रहा था। गुरु महाराज की कृपा से वह ज्ञान अब अनपढ़ लोगों में भी उदित हो रहा है। आज संसार के लोग विज्ञान की ओर बढ़े चले जा रहे हैं; लेकिन बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी इस अध्यात्म-ज्ञान से वंचित हैं। इसलिए इस सत्संग के द्वारा अध्यात्म-ज्ञान का प्रचार हो रहा है। इसी के लिए आज यहाँ यह आयोजन है।
परमात्मा अनादि और अनन्त है। वह सारे गुणों से सम्पन्न है और निर्गुण भी है। वह शरीर नहीं, शरीर में रहनेवाला अर्थात् शरीरी है। परमात्मा इन्द्रिय-गोचर नहीं, इन्द्रियातीत है, अव्यक्त है। वह सारे प्रकृति-मंडल में ओत-प्रोत है। सन्तमत में उसको परम पुरातन, परम सनातन कहते हैं।
गुरु महाराज के वचनों को जब पढ़ता हूँ, तो बहुत आश्चर्य होता है कि उन्होंने परमात्मा के गूढ़तम ज्ञान का किस तरह अत्यन्त सरलता से वर्णन किया है। मैं इस विषय में बहुत कम जानता हूँ। बस, मैंने इतना कहा।



गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम ।
कीट न जानै भृंग को, कर ले आपु समान ।।
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार ।।
(संत कबीर साहब)
प्यारे धर्मानुरागी सत्संगप्रेमी सज्जनो, माताओ एवं बहनो!
हमारा हृदय इतना क्षुद्र और मलीन है कि गुरु की महिमा वा धर्म को नहीं जान सकते। अभी गो0 तुलसीदास जी महाराज के वचन का पाठ हुआ। सन्त चरणदास जी महाराज के भी वचन आपलोगों ने सुने। गोस्वामी जी की चौपाई से क्या ज्ञात हुआ? गुरु की चरणरज में क्या खूबी है, इसका वर्णन उनके वचनों में हुआ। जो उस रज को अपने हृदय में लगाते हैं, वे संसार से तर जाते हैं। वह रज गुरु के स्थूल शरीर की नहीं, उनका ज्योति रूप है।
हमलोगों का यह जो पांचभौतिक शरीर है, इसमें ज्ञान का, ज्योति का भंडार है, जो गुरु की कृपा से ही प्रत्यक्ष होता है। गुरु महाराज के भी पद्य में है—
नैनों के तिल में ज्योति, उनकी नजर में आता नहीं।
उसी ज्योति के कारण हम बाहर के दृश्यों का अवलोकन कर पाते हैं। इस ज्योति को पाने के लिए गुरु से युक्ति लेकर ध्यान करना चाहिये। दोनों दृष्टियों को अन्तर में एकत्र करने का यत्न जानना चाहिये। जिस तरह गुरु का स्थूल रूप है, वैसे ही उनके ज्योति और शब्द रूप भी हैं। जिन्होंने ज्योति और शब्द को प्राप्त कर लिया है, वे ही ज्ञानदाता हैं। सन्त चरणदास जी ने ज्ञान देनेवाले गुरु की महिमा इस तरह गायी है—
गुरु बिन और न जान मान मेरो कहो ।
चरनदास उपदेश विचारत ही रहो ।।
वेदरूप गुरु होहिं कि कथा सुनावहीं ।
पंडित को धरि रूप कि अर्थ बतावहीं ।।
कल्पवृक्ष गुरुदेव मनोरथ सब सरैं ।
कामधेनु गुरुदेव छुधा तृष्णा हरैं ।।
गुरु ही शेष महेश तोहि चेतन करैं ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु होय खाली भरैं ।।
गंगा सम गुरु होय पाप सब धोवहीं ।
सूरज सम गुरु होय तिमिर हरि लेवहीं ।।
गुरु ही को धरि ध्यान नाम गुरु को जपो ।
आपा दीजै भेंट पुजन गुरु ही थपो ।।
समरथ श्री शुकदेव कहा महिमा करौं ।
अस्तुति कही न जाय सीस चरनन धरौं ।।
गुरु के उपदेश को ग्रहण कर उसपर चलें, यही हमलोगों का परम कर्त्तव्य होना चाहिये। गुरु का सांसारिक व्यवहार भी नपा-तुला हुआ करता है। पहले व्यवहार शुद्ध होना चाहिये, तब परमार्थ में गति होगी। आपलोगों से हमारी प्रार्थना है कि सभी भाई-बहनें अपने-अपने व्यवहार को सदा सँभाले रहें और सांसारिक काम भी शान्तिपूर्वक करें। बराबर सत्संग करते रहें। सत्संग से पाँच चीजें मिलती हैं, गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है—
मति कीरति गति भूति भलाई । जो जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ । लोकहु वेद न आन उपाऊ ।।
(रामचरितमानस)
आपलोग धन्य हैं कि गुरु महाराज के दर्शन करने के लिए कितनी-कितनी दूर से यहाँ आये हुए हैं।


बन्दौं गुरुपद-कंज, कृपासिंधु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
प्रातःस्मरणीय अनन्त श्री-विभूषित परम पूज्य श्री सद्गुरुदेव जी महाराज के समक्ष हमलोगों ने उनकी कृपा से जो कुछ सुना है, पढ़ा है, उससे कुछ विशेष बात हो, हमारी समझ में नहीं आता। गुरु महाराज की असीम दया है कि इस घोर कलिकाल में, जबकि भौतिक विज्ञान से लोग ओतप्रोत हो रहे हैं, गुरुदेव वेद, उपनिषद् और सन्तवाणियों के जरिये जो ज्ञान हमलोगों को दे रहे हैं, वह सनातन धर्म का मूल है। उसका सार उन्होंने सिद्धान्तों के पाठ द्वारा हमलोगों को सुनाकर ग्रहण करा दिया है।
आज हमलोगों का अहोभाग्य है! यदि मनुष्य इस ज्ञान को ग्रहण कर ले, तो उसका लोक-परलोक सुखमय हो जायगा। गुरुदेव की छत्रच्छाया में रहकर जो कुछ पाया हूँ, उसका वर्णन नहीं कर सकता।
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार ।।
(सन्त कबीर साहब)
सभी भाइयों को मैं धन्यवाद देता हूँ। सभी भाई-बहनें शान्तिपूर्वक यहाँ के उपदेशों को सुनते रहें।
अभी आपलोगों ने गो0 तुलसीदासजी का सोरठा सुना। हमलोग केवल सुनते ही थे कि गुरु साक्षात् हरि-रूप होते हैं; लेकिन आज प्रत्यक्ष देखते हैं। गुरुदेव की दया से ईश्वर-स्वरूप को जाना है। ईश्वर कौन हैं?
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में ।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
इसमें गुरुदेव ने ईश्वर-स्वरूप को जैसा स्थिर किया है, वही तो गो0 तुलसीदासजी की वाणी में है—
विप्र धेनु सुर सन्त हित, लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार ।।
जिस राम को परमात्मा कहते हैं, उसका स्वरूप है—“माया गुन गो पार।” परमात्मा सर्वव्यापकता के नाते अनेक नाम-रूपों से विख्यात है। रामचरितमानस में है—
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी । ब्रह्म निरीह विरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रवि सन्मुख तम कबहुँकि जाहीं ।।
शुद्ध स्वरूप परमात्मा में मोह नहीं। परमात्मा की प्राप्ति में सारे मोह का अन्त हो जाता है।
जितने सन्त हुए हैं, सबों ने ईश्वर-स्वरूप का वर्णन किया है। गुरु नानक साहब की वाणी में है—
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाव न भरमा ।।
वेद, उपनिषद् में परमात्मा को अनेक नाम-रूपों में एक ही आत्म-तत्त्व माना गया है।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
धर्मानुरागी सज्जनवृन्द एवं धर्मानुरागिनी देवियो!
प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्रीविभूषित श्री सद्गुरु महाराज की असीम कृपा से हमलोगों ने सन्तों की अमृत-वाणियों को सुना है और सुनते रहते हैं। गुरु महाराज की अनुभव वाणी है—
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान ।
जौं चाहो उद्धार को, बनो सन्त सन्तान ।।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ भेद यह, सन्तमता कर गाइ ।
सबको दियो सुनाइ के, अब तू रहे चुपाइ ।।
हमलोगों के परम कल्याण का जो पवित्र मार्ग है, जिससे हम अधम जीवों का उद्धार होगा, गुरु महाराज ने अपनी सरल भाषा में सबको सन्तमत-सिद्धान्त में लिख दिया है। इससे बढ़कर और कोई ज्ञान नहीं है, जिसको प्राप्त करके परम कल्याण—शान्ति को प्राप्त करें। गुरु महाराज के साहित्य को पढ़ें और उसमें जो सार है—नाद-उपासना, उसको ठीक से समझें और ठीक से उसका अभ्यास करें, तो हम उस परम सुख की खानि परमात्मा को पाकर परम आनन्द का लाभ कर सकते हैं। गुरु महाराज बराबर कहते हैं—सब सन्तों का एक ही विचार है, सब सन्तों का एक ही रास्ता है। अपने अन्दर के अंधकार के बीच में उस रास्ते को पकड़ो। सन्त कबीर साहब ने कहा है—
कर्त्ता की गति अगम है, चल सतगुरु के उनमान ।
धीरे-धीरे पाँव दे, पहुँचोगे परमान ।।
उस रास्ते का भेद हमलोगों को गुरु महाराज की कृपा से मिल गया है। उस रास्ते पर चलने के लिए हमलोग बराबर कोशिश करें। अभी आपलोगों ने गुरु महाराज का वीररस का भजन सुना—
आओ वीरो मर्द बनो अब, जेल तुम्हें तजना होगा ।
एक सन्त पलटू साहब हो गये हैं, उनके वचन में है—
त्रिकुटी घाट को उतरु संभार के, सुष्मना खैंचि के बाँध खूँटा ।
बीच पहार में साँकरी गैल है, गली में कुण्ड जल पड़े टूटा ।।
भँवर को देखि के नाव सुमेरु तू, चली है नाव तब कुंड छूटा ।
दास पलटू कहै नाव संभारना, ड्डोत में सोत ब्रह्माण्ड फूटा ।।
चेतन-धार जब बिखर जाती है, तो विषयों में फँस जाती है। चेतन-धार को समेटकर अंधकार के बीचोबीच जो सँकरा रास्ता है, उसपर चलकर हम परम प्रभु परमात्मा के पास जा सकते हैं।
प्रकाश का और शब्द का यही मार्ग सभी सन्तों ने बताया है। गुरु महाराज की दया से इसको जान सके हैं। इसका हमलोग बराबर अभ्यास करें।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
धर्मानुरागी सज्जनवृन्द एवं धर्मानुरागिनी देवियो! हमलोगों का अहोभाग्य है कि गुरु महाराज की महान् कृपा से सत्संग में आ-आकर संतों की वाणियों को सुनते हैं और समझते हैं। यह सत्संग क्या है? ऋषियों तथा सन्तों का विद्यालय है। इसमें आकर हमलोग अध्यात्म-विद्या सीखते हैं। यदि हमलोग सत्संग के वचनों को हृदयंगम करें, तो हमारा कल्याण हो जायगा।
आप कितने पंडितों को बराबर कुछ-न-कुछ रटते देखते हैं। वे क्यों रटते हैं? इसलिए कि उनका विश्वास दृढ़ हो जायगा, तो आगे काम देगा। जितने स्कूल-विद्यालय हैं, सबमें विद्या की पढ़ाई होती है। इससे संसार का काम चल सकता है। हमारे धरहरा में एक संताल है, वह कुरूप है; लेकिन वह एम0 ए0 पास कर गया है। इससे मुझको विश्वास हो गया कि सभी मनुष्यों में विद्या का संस्कार है।
स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है, “मनुष्य का मस्तिष्क अनन्त ज्ञान का भंडार तथा अछोर पुस्तकालय है।” आज जो ज्ञान निकला है, वह कहाँ से निकला है? वह सब मस्तिष्क की उपज है। आँख से ऊपर आज्ञाचक्र है, जो विद्या का भंडार है। हमलोगों का मस्तिष्क मामूली चीज नहीं है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है—
इस गुफा महि अखुट भंडारा ।
संसार की किसी वस्तु को खर्च कीजिये तो वह घट जाती है; लेकिन मस्तिष्क से उपजे हुए ज्ञान को जितना खर्च करते जाइये, उतना ही वह बढ़ता जायगा। मनुष्य के मस्तिष्क के अन्दर सारा ज्ञान भरा हुआ है।
परमात्मा पूर्ण हैं। हमारे अन्दर भी वे हैं। परमात्मा में शक्ति की कमी नहीं है; लेकिन उनके स्वरूप की जानकारी बिना गुरु की कृपा के होना कठिन है। अनेक जन्मों के संस्कार, दीर्घ उद्योग एवं ईश्वर की दया से लोग महान् पुरुष हो सकते हैं। इस मस्तिष्क में जो ढूँढ़ता है, वह सारी चीजों को पाता है। ज्ञान में भी आनन्द है। जिस चीज को आप नहीं जानते हैं, जब उसको जानने की कोशिश करेंगे और जान जाएँगे तो आपको बहुत आनन्द आएगा। ज्ञान ही आदमी को महान् बनाता है। यह ज्ञान कैसे होता है? ध्यान से ज्ञान होता है। इस सत्संग में आकर लोग ज्ञान और ध्यान का मर्म जानते हैं। सन्त कबीर साहब की वाणी में आया है—
मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर, सत्संग बिना जिय तरसे ।
चोर कहाँ रहता है? अंधकार में। हमलोगों के अन्दर जो अंधकार है, वह चोरों का नगर है। गुरु-कृपा से साधना करके इस नगर से निकल सकते हैं। सत्संग करके सच्चे गुरु का चुनाव करना चाहिये। गुरु जो युक्ति बता देंगे, उसे यदि श्रद्धापूर्वक करेंगे, तो एक-न-एक दिन परमात्मा से मिलन हो जायगा। गुरु की पहचान सत्संग से होगी।
मूरख जन कोइ सार न जाने, सत्संग में अमृत बरसे ।।
शब्द-सा हीरा पटक हाथ से, मुट्ठी भरी कंकर से ।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सुरत करो वहि घर से ।।
अमृत क्या है? अन्तर का शब्द ही अमृत है। जो इस शब्द को पकड़ेगा, वह अमर हो जाएगा।
पीयूष पाताल न पाइये, पीयूष न चन्द्र मँझार ।
पीयूष मिले सत्संग में, इन कह अमृत सार ।।
यह सत्संग का अमृत सार है। सन्तों का सार वचन ही अमृत है। मूर्ख उसे कहते हैं, जो कहता है कि मैं बड़ा सुन्दर हूँ, बड़ा ज्ञानी हूँ। जो ऐसे अहंकारी हैं, वे ऐसे सार नहीं पा सकते। मैले कपड़े पर रंग चढ़ना कठिन है। जबतक वह साफ न हो जाय, उसपर रंग न चढ़ेगा। मूर्ख लोग अन्तर के शब्दों को छोड़कर रात-दिन बुरे शब्दों को ही सुनते हैं। ऐसे लोगों का संग नहीं करना चाहिये।
भगवान् बुद्ध ने कहा है—“यदि अनुकूल साथी न मिले, तो अकेले रहना अच्छा है; परन्तु मूर्ख का संग करना ठीक नहीं।।” साँप तो एक बार काटता है; लेकिन मूर्ख हमेशा काटता ही रहता है। इसीलिये विभीषण ने राम से कहा था—
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि देइ विधाता ।।
इसलिये हमलोगों को सत्संग करना चाहिये। भगवान राम भी नवधा भक्ति के वर्णन में कहा है—
प्रथम भक्ति सन्तन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
सत्संग में जो कथाएँ होती हैं, उन्हें सुनने से भगवद्भक्ति में रति होती है। बार-बार किसी का गुण सुनने से वह अपने में आ जाता है। उसी तरह दूसरे का अवगुण देखने से वह भी अपने अन्दर आ जाता है।
खल गह औगुन साधु गुन गाहा । उभय अपार उदधि अवगाहा ।।
सत्संग के ऐसा लाभ, तो संसार में कहीं नहीं है। कितना भी आप पढ़ लें, बहुत विद्या आपको हो जाय, सुसंग नहीं है तो कुछ नहीं है।
आज गुरु महाराज के संग में जाने के लिए लोग क्यों चाहते हैं। इसलिए कि उनमें आत्मबल है। वे कुछ बोलते हैं, तो लोग सुनकर सुमार्ग पर आते हैं। इसलिए सत्संग में अवश्य जाना चाहिये। गुरु महाराज का भी एक पद्य आपलोगों ने सुना—
भजु मन सतगुरु दयाल, काटैं जम जाला ।
विशेष-से-विशेष लोग सीता-राम और राधेश्याम को ही भगवती और भगवान मानते हैं। उनमें छह ऐश्वर्य थे, इसीलिए वे भगवती और भगवान् कहलाये। ‘भगवान् राम’ कहने पर समूचे रामायण का ख्याल हो आता है। और गुरु का नाम लीजिये, तो गुरु ने जो सिखलाया है, उसकी याद होती है। कबीर साहब ने कहा—
प्रथम गुरु है माता पिता । रज विरज का सोई दाता ।।
दूसर गुरु है मन की धाई । गृह बास की बंध छोड़ाई ।।
तीसर गुरु जिन धरिया नामा । लै लै नाम पुकारै गामा ।।
चौथे गुरु जो दीक्षा दीन्हा । जगत व्यवहार सबै तब चीन्हा ।।
पंचम गुरु जिन्ह वैष्णव कीन्हा । रामनाम का सुमिरन दीन्हा ।।
छठे गुरु जिन भरम गढ़ तोड़ा । दुविधा मेटि एक से जोड़ा ।।
सातवँ गुरु जिन शब्द लखाया । जहाँ का तत्त सो तहाँ पहुँचाया ।।
सात गुरु संसार में, सेवक सब संसार ।
सतगुरु सोई जानिये, जो भवजल उतारै पार ।।
इसलिए गुरु महाराज कहते हैं—
भजु मन सतगुरु दयाल, काटैं जम जाला ।
यमजाल क्या है? हमलोग जिस अंधकार में हैं, वही यमजाल है। गुरु की कृपा से ध्यान करते-करते यमजाल कट जाता है। लोग कहते हैं कि मुझसे ध्यान नहीं होता है। मैं कहता हूँ कि पहाड़ में एक ही स्थान पर सूई ठोंक दीजिये तो कुछ-न-कुछ छेद होगा ही। बराबर ठोकर मारने से एक-न-एक दिन सूई उसमें प्रविष्ट हो जायगी। मन बड़ा चंचल है; लेकिन वैराग्य और अभ्यास से उसपर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए बराबर ध्यानाभ्यास करते रहना चाहिये। गुरु ने जिस युक्ति से अपने अन्दर में चलने के लिए बता दिया है, उसी युक्ति का अभ्यास करते जाओ, धीरे-धीरे अंधकार मंडल को पार कर जाओगे। जो ऐसा करेगा, वह स्थूल-संसार को पार कर जायगा।
भजन करने का नियम गुरु से जानकर जो करेंगे, उनसे ही यह होगा। संसार में बिना भजन के एक दिन भी खाना हराम का खाना है। परम पूज्य बाबा देवी साहब ने कहा था—“बिना भजन किये एक दिन भी मत रहो।” वे जब शरीर छोड़ने लगे, तो उनसे प्रार्थना की गई कि आप तो जा रहे हैं, हमलोग क्या करेंगे, तो उन्होंने कहने की कृपा की, “मैं अभी अभ्यास कर रहा हूँ, तुमलोग भी अभ्यास करो।”
सब कोई मन का दमन करते हैं। मन में बड़ा वेग उठता है। उसी तरह यदि सत्संग में सारे ख्यालों को हटाकर उपदेश सुनेंगे, तो हमलोगों का बड़ा कल्याण होगा।
इसलिए हमलोगों को सन्तों की शरण में जाना चाहिये और साधन की युक्ति जानकर साधना करनी चाहिये। साथ ही, जो पंच पापों से बचेंगे, उनपर माया की दाल नहीं गलेगी। आज संसार में लोगों को अज्ञानरूपी अंधकार खा रहा है। सन्त कबीर साहब ने कहा है—
या कारे न सब जग खाया, सतगुरु देखि डरी ।
जिस दिन से गुरु मिल जाते हैं, उस दिन से माया डरने लगती है। हमलोगों को सद्गुरु मिल जाते हैं, उन्होंने जो साधना बतायी है, उसे यदि मन लगाकर करते रहेंगे, तो एक-न-एक दिन परमात्मा का साक्षात्कार अवश्य होगा।
इस मास-ध्यान-साधना में जिन लोगों ने भाग लिया है, उनका बड़ा ही भाग्य है। साथ ही सहरसा के स्थानीय सत्संगियों ने तन-मन- धन से इस पुण्य कार्य को सफल बनाया है, उन सबों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद तथा आशीर्वाद देता हूँ!


बन्दौं गुरु पद कंज, कृपासिंधु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परम आदरणीय सज्जनवृन्द तथा परम आदरणीया माताओ एवं बहनो!
श्री सद्गुरु महाराज की महान् दया से हमलोग इस सत्संग में आकर बराबर संतों की वाणियों को सुनते हैं अर्थात् संतों की वाणी में जो अमृतमय ज्ञान है, उसको सुनते-समझते हैं। इससे क्या फायदा है, यह प्रत्यक्ष है। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है—
सठ सुधारहिं सत्संगति पाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ।।
बिधि बस सुजन कुसंगति परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।।
बड़े-बड़े अत्याचारी, पापी दुष्टात्मा जो संसार में सुधरे हैं, केवल सत्संग के ही प्रभाव से। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—
होवे दुराचारी न क्यों, भजते मुझे जो भाव से ।
है बड़ा ही साधु जो भजता मुझे है चाव से ।।
बनता महात्मा शीघ्र वह पाता सुशान्ति प्रकाश को ।
अर्जुन! मेरा भक्त पाता है कभी न नाश को ।।
मेरे भरोसे पार्थ पाते हैं, परम गति पतित भी ।
हो वैश्य अन्त्यज स्त्रियाँ शूद्र या पददलित भी ।।
क्या हरिजनों, राजर्षियों या क्षत्रियों की बात है ।
वे पुण्यकर्मा हैं उन्हें मिलता परम पद पार्थ है ।।
सत्संग के वचनों को सुनकर लोगों के मन में अभिलाषा होती है कि मैं कुछ करूँ और आत्मज्ञानी बनूँ। श्रीसद्गुरु महाराज कहते हैं कि इस आत्मज्ञान के अधिकारी बहुत नहीं हैं; लेकिन मैं उनको अधिकारी बना रहा हूँ। सत्संग में आते रहने से कभी-न-कभी ईश्वर-प्राप्ति के अधिकारी बन जाएँगे।
इसलिये सत्संग में जो आना चाहें, उन्हें अवश्य साथ लावें। परम संत बाबा देवी साहब कहते थे, “अस्पताल में बड़े-बड़े रोगी जाते है; उनको वहाँ भर्त्ती न किया जाय; उनकी सेवा-शुश्रूषा नहीं की जाय, तो वह अस्पताल कैसा?” उसी तरह सत्संग में बड़े लोग ही आवें, साधारण लोग नहीं, तो वह सत्संग कैसा? जो उनलोगों को सदुपदेश देकर ईश्वर की भक्ति में लगाते हैं, वे ही महान् साधु हैं।
संत कबीर साहब ने कहा है—
अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।
जो राह भूल गया है, उसको रास्ते पर लाना साधु का काम है। साधु लोग दुष्टों का संहार नहीं करते, बल्कि उनको सही ज्ञान देकर रास्ते पर लाते हैं। वे बड़े-बड़े पापात्मा को सुधारते रहते हैं। श्री सद्गुरु महाराज कहा करते थे—“मुझे ऊँचे लोगों का संग कम हुआ; बल्कि साधारण स्तर के लोगों से ही अधिक संग हुआ और मैंने सत्संग का प्रचार भी उन्हीं लोगों में विशेष किया है। साधारण लोग डर से भी आधे घंटे बैठकर भजन करते हैं। लेकिन बड़े-बड़े लोग बहुत कम भजन करते हैं। विद्वान् लोगों को तो कुछ संस्कार भी है; परन्तु जो गिरा हुआ है, जिसको कोई नहीं पूछता है, उसे ज्ञान दिया जाय, तो बहुत अच्छा होगा।”
श्रीसद्गुरु महाराज ने साधारण स्तर के लोगों को ज्ञान दिया। इससे उनका संस्कार बढ़ेगा और कभी-न-कभी वह संस्कार उनको पूर्ण बना देगा। भजन करने में विश्वास होना चाहिये। श्रीसद्गुरु महाराज जब ध्यान करने बैठते थे और कुछ दिखाई नहीं पड़ता था, तो बराबर बाबा साहब को पत्र लिखते थे कि कुछ नहीं दिखाई पड़ता है। बाबा साहब भी जबाव देते थे कि लाला बन्दगी, मैंने जो बता दिया है, उसे मुस्तैदी से करो, जरूर मिलेगा। यह रास्ता बड़ा पिच्छल है। परम भक्तिन सहजोबाई ने कहा है—
ऊँची नीची राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय ।
सोच-सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाय ।।
ऊँचा नीचा महल पिया का, म्हाँसूँ चढ़यो न जाय ।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय ।।
इसमें प्रगति के लिए संत सद्गुरु की कृपा बहुत जरूरी है। संत कबीर साहब ने कहा है—
दूती सतगुरु मिलें बीच में, दीन्हें भेद बताय ।
दास कबीर पिया से भेंटे, शीतल कंठ लगाय ।।
संत सद्गुरु अपने भक्तों से कहते हैं, “कुछ और बढ़ो।” जिस तरह दलाल खरीददार और बेचनेवाले के बीच दलाली करके खरीद-बिक्री करा देता है, उसी तरह गुरु करते हैं। उनका उपदेश है, “इसके लिए धैर्य रखो; घबड़ाओ नहीं। काम शुरू कर दो।” शुरू किया नहीं और कहने लगा कि काम कठिन है। अरे! ईश्वर-भक्ति का संस्कार तबतक रहेगा, जबतक ईश्वर से भेंट नहीं हो जायगी।
श्रीसद्गुरु महाराज से किसी ने कहा कि आप सबको यह ज्ञान बता रहे हैं। श्रीसद्गुरु महाराज ने कहने की कृपा की, “महाराज! अगर कोई आदमी अग्नि में जल रहा हो, तो आपका क्या कर्त्तव्य होगा—उसको जलने से बचाना या छोड़ देना।” उसी तरह साधु-महात्मा माया की अग्नि में जल रहे सांसारिक लोगों को जलने से बचा लेते हैं। यह सन्तों की महान् कृपा है।
आपलोगों को देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। आपलोगों को मैं बहुत धन्यवाद देता हूँ कि श्रीसद्गुरु महाराज के नहीं आने पर भी श्रद्धापूर्वक सत्संग में बैठे रहे। मैं श्रीसद्गुरु महाराज से प्रार्थना करता हूँ कि आपलोगों की बुद्धि इसी तरह सदा एकरस बनी रहे! सत्संग में जितने लोग आये हैं, उनको मैं कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूँ तथा सत्संग करानेवाले को भी धन्यवाद देता हूँ।


बन्दौं गुरु पद कंज, कृपासिंधु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परम आदरणीय सज्जनो, माताओ एवं बहनो! हमलोगों का अहोभाग्य है कि प्रातःस्मरणीय अनन्त श्रीविभूषित सद्गुरु महाराज के सत्संग का लाभ उठा रहे हैं। सन्तमत-सत्संग में सन्तवाणी की मुख्यता है। सन्तवाणी को पढ़-सुनकर, समझकर उसे अपने आचरण में उतारने में ही मानव-जीवन की सफलता है।
संसार का निर्माण करनेवाली एक महान् शक्ति अवश्य है। उसी को संतों ने परमात्मा कहा है। परमात्म-स्वरूप का वर्णन सन्त कबीर साहब इस ‘शब्द’ के द्वारा करते हैं—
सखिया वा घर सबसे न्यारा, जहँ पूरन पुरुष हमारा ।।टेक।।
जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहीं, पाप न पुन्य पसारा ।
नहिं दिन रैन चन्द नहिँ सूरज, बिना जोति उँजियारा ।।1।।
नहि तहँ ज्ञान ध्यान नहिँ जप तप, बेद कितेब न बानी ।
करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब जहाँ हिरानी ।।2।।
धर नहिँ अधर न बाहर भीतर, पिंड ब्रह्मण्ड कछु नाहीं ।
पाँच तत्त्व गुन तीन नहीं तहँ, साखी शब्द न ताहीं ।।3।।
मूल न फूल बेलि नहिँ बीजा, बिना बृच्छ फल सोहै ।
ओअं सोहं अर्ध उर्ध नहिं, स्वासा लेख न कोहै ।।4।।
नहिँ निर्गुण नहिँ सर्गुन भाई, नहीं सूक्ष्म स्थूलं ।
नहिँ अच्छर नहिँ अविगत भाई, ये सब जग के मूलं ।।5।।
जहाँ पुरुष तहवाँ कछु नाहीं, कहै कबीर हम जाना ।
हमरी सैन लखै जो कोई, पावै पद निरवाना ।।6।।
इसी को गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं—
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी । ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
जिसको ईश्वर—परमात्मा कहते हैं, वह कैसा है? वह प्रभु सारी प्रकृतियों वा रचनाओं में व्यापक है। इतना ही नहीं, सारी सृष्टियों को भरकर उनसे परे भी है।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
परमात्मा अविगत अर्थात् सर्वव्यापी—सबमें ओतप्रोत है। परमात्मा सबसे प्रथम का है। इसीलिये वह परम सनातन और अनन्त है। ईश्वरीय ज्ञान में हमलोग बहुत अल्प हैं। गुरुदेव की कृपा से कुछ-कुछ समझ में आया है। संसार में जितने नाम-रूप हैं, सबमें परमात्मा व्यापक है। उपनिषद् और सन्तवाणी में आया है कि ईश्वर-स्वरूप को सही रूप में जानो और प्राप्त करने का साधन करो। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है—
न तद्भासते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।
अर्थात् मेरा परम धाम ऐसा है, जहाँ सूर्य-चन्द्र आदि कुछ नहीं है और जो वहाँ—मेरे परम धाम में पहुँच जाते हैं, वे लौटकर इस संसार में नहीं आते हैं।
माया के सभी आवरणों को पार कर जब परमात्मा को प्राप्त करेंगे, तभी हमारी भलाई होगी।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
धर्मप्रेमी सज्जनो, माताओ एवं बहनो! आये हैं सो जायेंगे, राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर।।
(संत कबीर साहब)
जो आये हैं, वे सब जायेंगे यानी सबकी मौत अनिवार्य है, चाहे वे राजा हों या रंक वा फकीर; लेकिन—
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ।
सब इसी संसार में लय हो जायेंगे। लेकिन जो भक्त मर जाते हैं, तो उनके लिये रोना क्या? सन्त कबीर साहब ने कहा है—
भक्त मरे क्या रोइये, जो आपने घर जाय ।
रोइये साकट बापुरो, हाटो हाट बिकाय ।।
जो भक्त हैं, वे तो मरने पर अपने घर चले जाते हैं। वे भक्त या तो ईश्वर में मिल जाते हैं या देवलोक जाते हैं। देवलोक से पुनः श्रीमान् या योगी कुल में जन्म लेते हैं और पूर्व संस्कार द्वारा प्रेरित होकर भक्ति में दाखिल होते हैं। रोना तो उनके लिये है, जो निगुरे हैं, जो भक्ति नहीं करते हैं, साकट हैं, गुरु नहीं किये हुए हैं।
गुरु जी (श्री बजरंगी दास जी) चले गये। सब रोते हैं। पूजनीया बहिन दाय (पूज्यपाद गुरुदेव की बहन) का जब शरीर छूटने लगा तो स्वामी जी (श्री सद्गुरु महाराज) बिलख-बिलखकर रोने लगे। श्री संतसेवी जी ने निवेदन किया कि हुजूर को इस तरह नहीं रोना चाहिये, तो गुरुदेव जी ने कहा—“क्या करें, एक खून का रहने पर दर्द हो ही जाता है।” किसी की मौत होने पर हमलोगों को चेतना (सचेत होना) चाहिये। तथा—
माघ भूखा बाघ काल के, मूख पड़ो है बावरे ।
होश कर चेतो सबेरे, बचो ध्यान के दाव रे ।।
(महर्षि मेँहीँ पदावली)
इसलिये ईश्वर की भक्ति करनी चाहिये तथा मौत को हमेशा याद रखना चाहिये। नारायण स्वामी ने कहा है—
दो बातों को याद रख, जौं चाहे कल्याण ।
नारायण एक मौत को, दूजो श्री भगवान् ।।
श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा करनी चाहिये। सुख-दुःख को धैर्य के साथ भोगना चाहिये। राजा से लेकर रंक तक—सबों को दुःख-सुख होते हैं। अनेक जन्मों से शरीर में रहते हुए अनेक कर्मों के करने पर उनका भोग भोगना ही पड़ता है। प्रत्येक को अपने कर्म के मुताबिक शरीर मिला है और अब जैसा करेगा, वैसा भोगेगा। अभी हमलोगों ने विनती में पढ़ा है—
युग युगान चहु खानि में, भ्रमि दुख भूरी ।
जबसे सृष्टि है, तबसे मरना और जन्मना लगा हुआ है। अंडज, पिण्डज, स्थावर (अंकुरज) और ऊष्मज—चारो खानियों में आना-जाना पड़ता है। जीव को माता के गर्भ में रहना पड़ता है। मलकुण्ड में सिकुड़ा रहता है—माता के मल-मूत्र का जहाँ स्थान है, उसी नरक में रहना पड़ता है। माता के गर्भ से जब बच्चा जन्म लेता है, तो वह मल-मूत्र में पड़ा रहता है। इस तरह जीव को महान् कष्ट भोगना पड़ता है। माता तो जन्म ही देती है, लेकिन प्रत्येक जीव अपना-अपना कर्म-भोग स्वयं भोगता है। संत पलटू साहब ने कहा है—
अपनी अपनी करनी अपने अपने साथ ।।
अपने अपने साथ करै सो आगे आवै ।
बाप की करनी बाप पूत कै पूतै पावै ।।
जोरु के जोरुहिँ फलै खसम कै खसम कौ फलता ।
अपनी करनी सेती जीव सब पार उतरता ।।
नेकी बंदी है संग और ना संगी कोई ।
देखो बूझि विचारि संग ये जैहैं दोई ।।
पलटू करनी और की नहीं और के माथ ।
अपनी अपनी करनी अपने अपने साथ ।।
सबकी करनी अपने संग जाती है। भक्ति की पहली कमाई—ईश्वर को हमेशा याद रखना है। किसी का नाम लेने पर उसका रूप याद आता है। उस नाम-रूप में कौन रहता है? उसको सब कोई नहीं जानते हैं। रूप तो यहीं रहेगा, पर उस रूप में जो था, वह निकल गया। आज गुरु जी (श्री बजरंगी दास जी) का पार्थिव शरीर नहीं है। हमलोगों ने उनका शरीर चिता में जला दिया; लेकिन उस शरीर में कौन था, जो निकल गया। साधु-सन्त को छोड़कर जितने लोग मरते हैं, वे अंधकार में ही मरते हैं। प्रकाश में मरनेवाला देवलोक में जाता है। अंधकार में मरनेवाला भूत-प्रेत योनि में जाता है। अंधकार में भी मरनेवाले की आशा जहाँ रहती है, वहाँ चला जाता है। इसलिये कहा कि “जहाँ आशा, तहाँ बासा।” हमलोग इस संसार में कैसे आये, कैसे जाएँगे, सन्त कबीर साहब ने कहा है—
बास सुरत ले आवई, शब्द सुरत ले जाय।
योगशिखोपनिषद् में आया है—
देहावसानसमये चित्ते यद्यद्विभावयेत् ।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम् ।।
अर्थात् देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही वही होता है। यही जन्म का कारण है।
जहाँ इच्छा होती है, वहीं चला जाता है। इसीलिए मृत्युकाल में भी अच्छी भावना होनी चाहिये। आपलोग जानते हैं कि राजा भरत बड़े तपस्वी थे; लेकिन मृत्युकाल में हिरण के बच्चे का ख्याल आया, तो हिरण की योनि में चले गये। इसलिए हमेशा अपने को सँभाल में रखना चाहिये। मौत कब चली आएगी, इसका पता नहीं। सन्त कबीर साहब ने कहा है—
स्वाँस स्वाँस में नाम सुमरि ले, अवधि घटै तन की ।
इसीलिये—
सुकिरत करिले नाम सुमरि ले, को जानै कल की ।
जगत में खबर नहीं पल की ।।
ईश्वर को हमेशा याद रखने से मृत्युकाल में भी उसी की याद बनी रहेगी, तो हमारा बड़ा कल्याण होगा।
बोलिये श्री सद्गुरु महाराज की जय!


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परम आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द तथा परम आदरणीया माताओ एवं बहनो!
हमलोग अपने को मनुष्य कहते हैं; कुछ-न-कुछ बुद्धि-विचार भी रखते हैं। विशेष लोग आज विज्ञान की ओर जा रहे हैं। मनुष्य में यह ज्ञान कहाँ से आता है, यह विचारना चाहिये। हमारा यह मस्तिष्क है। इस शरीर में हम रहते हैं। आँख से नीचे देह है या पिण्ड है और आँख से ऊपर ब्रह्माण्ड है। जो मालिक होता है, उसका बासा ऊपर रहता है और जो नौकर होता है, उसका बासा नीचे रहता है। हम अपने शरीर के मालिक हैं और हमारी इन्द्रियाँ नौकरानियों के रूप में हैं। यह प्रत्यक्ष है कि हम शरीर में रहते हैं। हम शरीर नहीं है, शरीर हमारा है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में भी हम रहते हैं। हम क्या हैं, विचारना चाहिये।
चित्तं किम्—ज्ञानस्वरूपम्। जिससे शरीर और संसार का ज्ञान होता है, वही हम हैं। सोचकर देखें, तो हममें ही ज्ञान का भंडार है। जितना ज्ञान है, वह मनुष्य के मस्तिष्क से ही होता है। इस मस्तिष्क का नाम ब्रह्मलोक है। उसका विकास कैसे होता है? अभी आपने सुना—
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
गुरु कैसे होते हैं? दया के समुद्र होते हैं और नररूप में हरि-साक्षात् भगवान होते हैं। वे क्या करते हैं? अज्ञानता-रूपी अंधकार को नष्ट करते हैं। बिजली बालिये, लालटेन जलाइये; लेकिन अन्दर में प्रकाश होगा? नहीं होगा। गुरु का वचन ही सूर्यकिरण के समान है। जैसे सूर्योदय होने पर उसकी किरणें तमाम संसार में फैल जाती हैं और अंधकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार गुरु महाराज का वचन भी मोहरूपी अंधकार का नाश करता है।
हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि मनुष्य को पढ़ाया जाता है। बिना पढ़ाये कुछ नहीं जान सकता है। जितने कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि हैं, सबों को अपने स्वभाव के अनुसार ज्ञान है। उत्तर गीता में आया है—
आहार निद्रा भयमैथुनश्ञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः ।।
कीट-पतंग से लेकर पशु-पक्षी, मनुष्य तक भूख लगने पर खाते हैं और नींद आने पर सो जाते हैं। सोने के समय स्थूल शरीर और इन्द्रियों से हटकर मनोमय कोश में चले जाते हैं। भय सब जीवों को ही में पायी जाती है; लेकिन मनुष्य में ज्ञान ही विशेष है। कौन ज्ञान? पंच इन्द्रियों का ज्ञान नहीं—अध्यात्म-ज्ञान।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है— “मनुष्य का मस्तिष्क अनन्त ज्ञान का भंडार और अछोर पुस्तकालय है।” भीतर में शून्य है। वह बाहर के शून्य से बहुत बड़ा है—कई करोड़ गुणा बड़ा।
माता के उदर से निकलने पर किसी बच्चे को ज्ञान नहीं रहता है, चाहे वह महामहोपाध्याय का बच्चा हो या कोल-भील का। माता-पिता उसकी सँभाल करते हैं, उसको सिखाते-पढ़ाते हैं। ज्ञान कोई किसी को घोलकर पिला नहीं देता है। शब्द सुनता है और ज्ञान होता है। विद्यालय में अध्यापक बोलते हैं और बच्चे सुनकर ज्ञान प्राप्त करते हैं।
श्रुति वेद को कहते हैं। वेद का अर्थ है—ज्ञान। आजतक जो सीखा है, वह सुनकर ही। यदि कुछ नहीं सुनते, तो कुछ ज्ञान नहीं होता। सुनने के लिए अठारह पुराण, वेद, शास्त्र हैं। ज्ञान नहीं हो, तो मनुष्य पशु से बदतर हो जाय। जैसा गुरु होता है, वैसा ज्ञान होता है। माता-पिता जिस तरह बोलते हैं, बच्चे भी उसी प्रकार बोलते हैं। बाद में भारती, अँगरेजी, बंगला, उर्दू आदि भाषाओं का ज्ञान होता है। जिस विद्या का गुरु जिसको मिलता है, वह विद्या वह सीख लेता है। इसलिए गुरु को ईश्वर नहीं कहें, तो किसको कहें? उपनिषद् में आया है—
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशस्तथा गुरुः ।
पूजनीयो महाभक्तयान भेदो विद्यतोऽनयो ।।
जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं। जैसे ईश हैं, वैसे ही गुरु हैं। इन दोनों में भेद नहीं है—इस भावना से गुरु की पूजा करे।
राम, कृष्ण, शिव आदि तप-बल से विशेष हुए। वे विशेष पुरुष भी गुरु-सेवा करते थे; बल्कि उन महापुरुषों ने माता-पिता एवं गुरु की जितनी सेवा की, उतनी हमलोग नहीं कर सके हैं। रामचरितमानस में है—
प्रात काल उठि कै रघुनाथा । गुरु पितु मातु नवावहिं माथा ।।
श्रीसद्गुरु महाराज ने भी कहा है—
‘सहित त्रिदेव कोटि तैंतीस सुर करें सदा गुरु सेव जी ।
राम कृष्णादि सकल अवतारन, सेवें तजि अहमेव जी ।।’
‘राम आदि अवतार, देव मुनि सन्त आर ।
गुरु पद भजते, अहमति तजते, करते गुरु पद ध्यान रे ।।’
और कबीर साहब ने कहा है—
प्रथम गुरु है माता पिता । रज बीरज का सोई दाता ।।
तीन देवता प्रत्यक्ष हैं—माता, पिता और गुरु। शास्त्र कहता है—मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्य देवो भव। गुरु को श्रेष्ठ नहीं माने, तो व्यावहारिक और पारमार्थिक विद्या नहीं सीख सकते। गुरु महान् होते हैं।
महात्मा गाँधी ने कहा है—“भौतिक विद्या के लिए अधकचरे गुरु से भी काम चल सकता है; लेकिन पारमार्थिक ज्ञान के लिए अधकचरे गुरु से काम नहीं चल सकता।” इसलिए परमार्थ-ज्ञान के लिए पूरे गुरु चाहिये। साथ ही गुरु को सदाचारी होना चाहिये। यदि उनमें शिष्टाचार-सदाचार नहीं है, तो वह गुरु नहीं, गोरू है। पहले शिक्षा, तब दीक्षा। हमलोगों का संस्कार बिगड़ता जा रहा है। हमलोग ऋषि की संतान हैं। पहले बच्चे को भौतिक ज्ञान दिया जाता था; आध्यात्मिक ज्ञान के लिए उपनयन संस्कार होता था। जन्म से सब शूद्र ही होते हैं। संस्कार करने पर द्विज कहलाते हैं। शूद्र—जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो। ब्राह्मण—जिसे ब्रह्म का ज्ञान हो। गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः ।
तस्य कर्त्तारमपि मां विद्ध्यकर्त्तारमव्ययम् ।।
इसका भाषानुवाद यह है—
गुण कर्म के अनुकूल वर्ण, विभाग मैंने हैं किये ।
कर्त्ता अकर्त्ता हूँ स्वयं, सोचो विचारो तुम हिये ।।
इस तरह गुरु का बहुत महत्त्व है। शास्त्र में आया है—
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवः महेश्वरः ।
गुरु साक्षात् पारब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
रामचरितमानस पढ़ें। उत्तरकाण्ड और बालकाण्ड में गोस्वामी जी की अनुभव वाणी है, जिसमें ज्ञान भरा है। वे कहते हैं—
बन्दौं गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुवास सरस अनुरागा ।।
श्री सद्गुरु महाराज के चरणकमलों की धूल सुन्दर, सुगंधित और रस-संयुक्त है। गोसाईं जी उसको प्रणाम करते हैं। पुनः
अमिय मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारु ।।
सुकृत संभु तन विमल विभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ।।
गुरु के पद की रज शंभु के शरीर पर लगे भस्म के समान है। उससे क्या होता है, तो कहते हैं—
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किये तिलक गुन गन बस करनी ।।
इससे भक्त के मन-रूपी आईने की मैल नष्ट हो जाती है। जो इसका तिलक लगाते हैं, वे सब गुणों को वश कर लेते हैं।
श्री गुरुपद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
उनके पैर के नखों में मणियों के समूह की ज्योति है। उसका सुमिरण करने से दिव्य दृष्टि खुल जाती है। दिव्य दृष्टि खुलने पर क्या होता है?
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
हृदय की सारी अंधकार-रूप अज्ञानता दूर हो जाती है। कहते हैं कि वे बड़े भाग्यवान् हैं, जिनके हृदय में उस प्रकाश का उदय हो जाता है। वे साधु-महात्मा होते हैं। इसीलिए कहा, “बड़े भाग उर आवइ जासू” । और उसके बाद क्या होता है—
सूझहिं रामचरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।
मणि-माणिक-रूप रामचरित, चाहे जिस खानि के गुप्त वा प्रकट हों, सूझने लगते हैं। कैसे?
यथा-सुअंजन आंजि दृग, साधाक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधाान ।।
आँख में रोग रहने पर सुन्दर अंजन लगाने से वह दूर हो जाता है। उसी तरह साधक साधना करके सिद्ध हो जाते हैं। ऐसे ही सुजान साधक को दिव्य दृष्टि हो जाती है।
संत-समाज का संग ही मानव को कल्याण-पथ पर ला सकता है। इसीलिए वह समाज चलता-फिरता तीर्थराज है।
मुद मंगलमय सन्त समाजू । जो जग जंगम तीरथ राजू ।।
संतों का समाज कल्याण और आनन्द देनेवाला है; जिस सुख में चैन है, वह सुख देनेवाला है। संतों का समाज ही संसार में चलता-फिरता तीर्थराज है। सन्त राम-भक्ति का प्रचार करते हैं, वे भक्ति का रहस्य बतलाते हैं। सत्संग में भक्तिरूपी गंगा की धारा बहती है, जिसमें स्नान करने से सब पाप मिट जाते हैं। भक्ति किसकी? राम की भक्ति, जिनका स्वरूप ऐसा है—
राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अविगत अकथ अनादि अनूपा ।।
ब्रह्म के विचार का प्रचार सरस्वती की धारा है तथा कर्त्तव्य- अकर्त्तव्य कर्म-कथा का प्रचार कलिमल-नाशक यमुना की धारा है। आदरपूर्वक उसका सेवन करने से सब क्लेश नष्ट हो जाते हैं।
सेवत सादर समन कलेसा ।
गो0 तुलसीदासजी कहते हैं—
बट बिस्वास अचल निज धर्मा ।
अपने धर्म में विश्वास की अचलता सन्तसमाज-रूप प्रयाग में अक्षय वट है। कहते हैं—
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा ।
सन्तों का संग सबको सब दिन और सब देशों में सुलभ है। यह साधु-सन्तों का समाज ही अलौकिक तीर्थ है। ठाकुरवाड़ी में सब दिन पढ़ते हैं—
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
तुलसी संगत साध की, हरै कोटि अपराध ।।
जितने काल तक सत्संग में बैठे रहते हैं, आप पाप से बचे रहते हैं। इतने काल किसी दुराचारी के संग में रहते, तो कितने पाप किये रहते। कबीर साहब कहते हैं—
जा पल दर्शन साध का, साहब आवै याद ।
लेखा में सोइ घड़ी, बाकी के दिन बाद ।।
साधु-समाज रूप प्र्र्रयाग में जाकर क्या करेंगे? सन्तों के उपदेश को सुनिये और समझिये। बारम्बार समझें। बारम्बार समझते-समझते गुह्य बात भी समझ में आ जाती है। शरीर और कपड़े को साफ रखते हैं; लेकिन मन को कहाँ माँजते हैं? मन को भी माँजना चाहिये। पलटू साहब कहते हैं—
धोबिया फिर मर जायगा, चादर लीजै धोय।
अपने मन के विकारों को धोइये। मन में जन्म-जन्मान्तर से विकार भरा है। बिना माँजे विकार नहीं छूटता। अवगुण हटाइये, गुण ग्रहण कीजिये।
सत्संग से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—चारो प्राप्त हो जाएँगे। ऐसा विश्वास मत रखिये कि ब्रह्मलोक जाएँगे। उत्तम कर्म करेंगे, तो मनुष्य बनेंगे और उससे भी पवित्र कर्म करेंगे, तो देवता बनेंगे और उससे भी पवित्र कर्म करेंगे, तो परमात्मा बनेंगे।
काम क्रोध मद लोभ भय, राग द्वेष अभिमान ।
मैं तैं हिंसा शोक शर्म, जीव लक्ष्य परमान ।।
जीव विकारों के साथ है। उन विकारों को जीत लिया, तो शिव है। देवतावाला गुण हो जाय, तो आप देवता हैं।
परबस जीव स्वबस भगवन्ता । जीव अनेक एक श्रीकन्ता ।।
जीव परवश है; इसीलिए क्या-क्या बोल जाता है; क्या-क्या खाता है; मन की पवित्रता नहीं है।
अद्भिद् गात्रणि शुद्ध्यति मनः सत्येन शुद्ध्यति ।
विद्या तपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति ।।
स्वच्छ पानी से शरीर शुद्ध होता है; मन सदाचार से शुद्ध होता है; विद्या तप से और भूतात्मा (जीवात्मा) बुद्धि और ज्ञान से शुद्ध होता है।
मन को सद्व्यवहार से शुद्ध करें। सदाचारी बनें, शुच्याचारी बनें, तो मन शुद्ध होगा। माता-पिता और गुरु का आदर कीजिये। आज शिष्टाचार देश से जा रहा है। लाखों लोग पूजा-पाठ करते हैं; लेकिन अपने माता-पिता, गुरुजनों की सेवा नहीं करते। विद्या है; लेकिन विलासी हैं, तो वह ज्ञान अपवित्र है। ज्ञान तो वह है, जिससे हम क्या हैं, ईश्वर क्या है, सार क्या है, असार क्या है, इसका बोध हो।
“मुद मंगलमय संत समाजू” —यह संत-समाज आनन्द और कल्याण की जड़ है।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।।
सत्संग में प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति होती है। साधु लोग कल्पना की बात नहीं करते, यथार्थ कहते हैं।
गुरु महाराज ने रामचरितमानस की टीका करके सबको गूढ़ बात बता दी है। उनके साहित्य में सार ज्ञान भरा हुआ है। उस सार ज्ञान को अपनाकर आप देव-तुल्य बन सकते हैं। यहाँ तक कि ईश्वर बन सकते हैं। इसपर विश्वास कीजिये।


बन्दौं संत समान चित, हित अनहित नहिं कोय ।
अंजुलिगत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोय ।।
संत सरलचित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु ।
बाल विनय सुनि करि कृपा, रामचरन रति देहु ।।
श्रीसद्गुरु महाराज के पावन चरणकमलों में कोटि-कोटि प्रणाम! प्यारे धर्मानुरागी सत्संगप्रेमी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
आपलोगों के सामने मैं क्या कहूँ! कुछ कहने में अपने को असमर्थ पाता हूँ। अभी हम सभी ने मिलकर ईश-स्तुति, संत-स्तुति, गुरु-वंदना आदि की है। सन्तमत के सिद्धान्तों और परिभाषा को भी पढ़ा है। इसमें गुरु महाराज के अपने अनुभव की सार बातें हैं। इनमें से बहुत बातें आपलोग समझते भी हैं। इससे विशेष बात और क्या हो सकती है, जो अपनी बुद्धि से आप सबों को बताऊँ। फिर भी जब गुरु महाराज की आज्ञा है, तो उसे शिरोधार्य करके कुछ कह रहा हूँ।
सन्त कबीर साहब ने कहा है—
मैं तो लखा तिहुँ लोक में, तुमको कहे अलेख ।
सार शब्द जाना नहीं, धोखे परिगा भेख ।।
भेष लेकर यदि सारशब्द को नहीं जाना, तो धोखे में पड़े हैं। असल में भेष हमलोगों का शरीर ही है। इस शरीर को पाकर यदि सारशब्द को नहीं जाना, तो संसार में आना व्यर्थ ही हुआ। लोग आकाशवाणी सुनते हैं। हमलोग जो कुछ बोलते हैं, वह आकाश में फैल जाता है। रेडियो स्टेशन में जो कुछ बोला जाता है, वह सर्वत्र आकाश में फैल जाता है। उसको पकड़ने के लिए यंत्र बनाया गया है। उस यंत्र से हमलोग सुनते हैं। हमलोगों के अन्तर में भी शब्द है। उसे स्थूल कान से नहीं सुन सकते हैं। योगाभ्यास करते-करते यदि उस शब्द को पकड़ लें, तो वह खींचकर हमें निःशब्द में ले जायगा। उस निःशब्द को परम पद कहा गया है—“नि:शब्दं परमं पदम्।” इसके संबंध में अभी हमलोगों ने पाठ किया—
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में ।
वहाँ तक कैसे जाएँगे, तो कहा—
सत शब्द धरकर चल मिलन आवरण सारे पार में ।
यही तो गुरु महाराज की सार शिक्षा है। इस सत्संग के द्वारा इसी का प्रचार होता है।
जो सत् शब्द यानी सारशब्द है, वह पहले ही सुनने में नहीं आता है। सबके अन्दर में बहुत तरह के शब्द हैं। प्रथम स्थूल मण्डल के केन्द्र का शब्द सुनने में आवेगा। वह शब्द दूसरे मंडल के केन्द्रीय शब्द को पकड़ा देगा। इस तरह साधना में बढ़ते-बढ़ते सारशब्द को पकड़ सकेंगे।
शब्द में जो गुण होता है, वह सुननेवालों में आ जाता है। जो शब्द परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, उसको जो पकड़ता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। यदि आप ऐसी भक्ति करेंगे, तो परमात्मा को प्राप्त करके जीवन-मरण के चक्कर से सदा के लिए छूट जाएँगे।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महामोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परम आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो! आज हमारा अहोभाग्य है कि हम प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित सद्गुरु महाराज की पावन जन्मभूमि में उनका जन्मोत्सव मना रहे हैं। यह भूमि परम पवित्र है। मैं यहाँ की मिट्टी को कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ! साथ ही, यहाँ के नर-नारियों को भी मैं प्रणाम करता हूँ। इसी भूमि ने श्री सद्गुरु महाराज जैसे महान् पुरुष को जन्म दिया, जिनके ज्ञान की छत्रच्छाया में आज भारत क्या, विश्व के सारे नर-नारी आनन्दित हो रहे हैं। आज का दिन धन्य है! इसीलिए तो सन्त कबीर साहब को कहना पड़ा—
भूमि धन्य पितु मातु धन्य, धन धन कुल परिवार ।
धन्य सुदिन धन धन घड़ी, जब सन्त लेहिं अवतार ।।
सन्त पलटू साहब ने कहा है—
धनि जननी जिन जाया है सुत संत सखी री ।
श्री सद्गुरु महाराज ने कठिन तपस्या करके इस ज्ञान को दृढ़ किया कि सबका ईश्वर एक है तथा उस ईश्वर तक जाने का रास्ता भी एक है और वह रास्ता सबके अन्दर है। आज करीब 60 वर्षों से श्री सद्गुरु महाराज इस सत्संग के जरिये ईश्वर-भक्ति का प्रचार करते आ रहे हैं। अगर उनका अवतार नहीं होता, तो हमलोग जो ज्ञान सुन रहे हैं, सुनने-समझने को नहीं मिलता। यह तो उनकी महान् दया का फल है कि हम सभी उनके बताये मार्ग पर चल रहे हैं या चलने की कोशिश कर रहे हैं। इस सत्संग के द्वारा सत्य का निरूपण होता है। सत्य क्या है?
सत्य सोइ जो बिनसै नाहीं ।
हमलोगों को सत्य पर श्रद्धा करनी चाहिये। हम सब रामचरितमानस पढ़ते है। गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के आरम्भ में ही लिखा है—
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा स्वान्तःस्थमीश्वरम् ।।
आज लोग ‘बोल बम, बोल बम’ का नारा लगाते हुए शिवजी की आराधना करने के लिए वैद्यनाथ धाम जाते हैं; लेकिन वे शिव क्या हैं? गोस्वामी जी कहते हैं कि मैं भवानी और शंकर की वन्दना करता हूँ, जो श्रद्धा और विश्वास के रूप हैं। भवानी श्रद्धा है और शंकरजी विश्वास, जिनके बिना सिद्ध लोग अपने अन्दर में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते। इतना ही नहीं, और क्या कहते हैं—
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रूपिणम् ।
अर्थात् मैं ज्ञानमय, शंकररूप गुरु की वन्दना करता हूँ। अयोध्या में एक संत श्री रघुनाथ दास जी हो गये हैं, वे कहते हैं—
श्र)ा किं जो मुदित अनालस । क्रिया विषे दुख सहै निरालस ।।
जिस क्रिया से परमात्मा प्राप्त हो जाय, उसमें आलस्य छोड़कर प्रसन्न चित्त से लग जाना ही श्रद्धा है। इसलिए प्रथम उस ईश्वर पर हमलोगों की श्रद्धा होनी चाहिये। इसपर हमलोग विशेष स्थिर नहीं रह पाते हैं। थोड़ा-सा दुःख आता है, तो विचलित हो उठते हैं। हम नित पाठ करते हैं—
श्री सद्गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिये ।
अति अटल श्रद्धा प्रेम से, गुरु भक्ति करनी चाहिये ।।
लेकिन कितने को अटल श्रद्धा है? दुःख में ईश्वर तक को भूल जाते हैं। इसलिए सर्वप्रथम परमात्मा में, गुरु में हमारी अटल श्रद्धा और विश्वास होना चाहिये।
अभी आपने वेदमंत्र में सुना कि जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले बुद्धियोग यानी सत्संग चाहिये, तब मानस जप, मानस ध्यान तथा दृष्टियोग। उस परमात्मा को जगत-प्रसवकर्त्ता कहा गया है। जगत्-प्रसवकर्त्ता का अर्थ है—सारे संसार को उत्पन्न करनेवाला। वह परमात्मा कहाँ है? शिवनारायण स्वामी कहते हैं—
मूल है मस्तक पर सुन्न में गुपुत । पिया पहिचाने जो जाने जुगुत ।।
वह ईश्वर मस्तक के शून्य में यानी अंतराकाश में गुप्त है। उसका प्रकाश सारे संसार में फैल रहा है। वह शून्य में आसन किये हुए है।
सुन्न आसन आपु साईं बसन रंग रस भोर ।
उसे प्राप्त करने के लिए कहीं बाहर जाना नहीं है। उसे अपने अन्दर ही प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए गुरु नानक देवजी ने कहा—
काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई ।।
वह परमात्मा किस तरह अपने शरीर में समाया हुआ है, तो कहा—
पुहुप मधि जिउ बासु बसतु है ।
जिस तरह फूल में गंध है। फूल में गंध कहीं एक जगह नहीं है। फूल में गंध सब जगह फैली हुई है, उसी प्रकार ईश्वर सर्वत्र है।
तैसे ही हरि बसै निरंतरि।
इसी को शास्त्र में कहा है—
पुष्पे गंधं तिले तैलं काष्ठे अग्नि पये घृतम् ।
इक्षे गुरो तथा गेहे पश्यात्मा विवेकतः ।।
जिस प्रकार पुष्प में गंध, तिल में तैल, काष्ठ में अग्नि, दूध में घृत और ईख में गुड़ है, उसी प्रकार विवेक से इस शरीर में आत्मा देखी जाती है।
आप कहते हैं कि मैं खाता हूँ; मैं सोता हूँ; मैं जागता हूँ; मैं चलता हूँ। यहाँ तक कि आप कहते हैं कि मैं मल-मूत्र त्याग करता हूँ। सब कुछ आप ही करते हैं, तो आपका शुद्ध स्वरूप क्या है? सब काम करते हुए भी आप शरीर नहीं हैं। शरीर से भिन्न कोई पदार्थ हैं। इसी को रामचरितमानस में कहा है—
बिनु पग चलै, सुनै बिनु काना ।------
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी वक्ता बड़ जोगी ।।
चलते हैं पैर, सुनता है कान, देखती हैं आँखें; पर आप कहते हैं कि मैं चलता हूँ, मैं सुनता हूँ; मैं देखता हूँ। आप ऐसा इसलिए कहते हैं कि आपकी ही चेतन-धारा सब इन्द्रियों में है। बिना चेतन-धारा के इन्द्रियाँ कोई काम नहीं कर सकतीं। इसी को भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—
रहता भरा है शून्य होकर भी सदा आकाश ज्यों ।
रहती सदा निर्लिप्त आत्मा देह में कर वास त्यों ।।
संसार को रवि एक करता है प्रकाशित पार्थ ज्यों ।
क्षेत्रज्ञ करता है प्रकाशित क्षेत्र को सब पार्थ त्यों ।।
क्षेत्रज्ञ आत्मा को कहा गया है। आप आत्मस्वरूप हैं, चेतन- धारा आपकी है। चेतन सत् है। आत्मा परमात्मा का अंश है। उसी एक परमात्मा को प्राप्त करना है, जिसे प्राप्त कर लेने पर हम सुख-दुःख से रहित हो जाएँगे। गोस्वामीजी ने कहा है—
सुखी मीन जे नीर अगाधा । जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ।।
उस प्रभु तक जाने के लिए कौन रोकनेवाला है? सन्त कबीर साहब कहते हैं—
तेरो को है रोकनहार, मगन से आव चली ।
यह गुरुमुख वचन है। ईश्वर-गुरु शिष्य को बुलाते हैं कि तुम खुशी से मेरे पास चले आओ। वहाँ तक जाने के लिए क्या करो, तो—
लोक लाज कुल की मर्यादा, सिर से डार अली ।
लोक-लज्जा, अपने कुल—वंश की मर्यादा यानी हम ऊँचे कुल के हैं—यह अहंकार छोड़ दो, इसका स्मरण न रखो, इसे भूल जाओ। इतना ही नहीं,
पटक्यो भार मोह माया को, निर्भय राह गही ।
अज्ञानता मोह है; संसार में मन लगाना माया है, इस भार को फेंक दो, तब निर्भय होकर शान्ति का पथ धारण करो।
काम क्रोध अहंकार कल्पना, दुर्मति दूर करी ।
मान अभिमान दोउ धर पटक्यो, होइ निशंक रली ।।
अपने अन्दर के विकारों—काम, क्रोध, अहंकार, कल्पना (नाना तरह की इच्छाएँ), दुर्मति यानी खराब बुद्धि को अपने अन्दर से हटा दो। मान (प्रतिष्ठा पाने की इच्छा), अभिमान दोनों को पकड़कर पटक दो, तब निःशंक होकर आगे बढ़ो। और—
पाँच पचीस करे बस अपने, करि गुरु ज्ञान छड़ी ।
अगल बगल के मारि उड़ाये, सन्मुख डगर धरी ।।
गुरु-ज्ञान की छड़ी के द्वारा पाँच तत्त्वों और पचीस प्रकृतियों को अपने अधीन करो तथा अगल-बगल की वृत्तियों यानी संकल्प-विकल्प का दमन करके हटाओ और सन्मुख मार्ग धारण करो। इन सबको अपने अन्दर से हटाना है। अपने अन्दर धारण क्या करना है—
दया धर्म हिरदे धरि राख्यो, पर उपकार बड़ी ।
दया सरूप सकल जीवन पर, ज्ञान गुमान भरी ।।
दया, धर्म—जितने शुभ गुण हैं, उन्हें अपने हृदय में धारण करके रखो। दूसरे का उपकार करना ही बड़ी बात है, यह बड़ा काम है। सब जीवों पर दया का भाव रखो। गुमान अर्थात् अहंकार वृत्ति को ज्ञान में भरकर यानी ज्ञान से काबू करो।
छिमा सील संतोष धीर धरि, करि सिंगार खड़ी ।
भई हुलास मिली जब पिय को, जगत बिसारि चली ।।
सचाई और नरमी से काम करना शीलता है। जितना पदार्थ मिले, उसी में प्रसन्न रहना संतोष है। क्षमा, शीलता, संतोष, धैर्य आदि गुणों का शृंगार करके परमात्मा तक चलने के लिए तैयार हो जाओ और जगत् को बिसार कर प्रभु से मिलकर आनन्दित हो जाओ।
चुनरी सबद विवेक पहिरि के, घर की खबर पड़ी ।
कपट किवरिया खोल अन्तर की, सतगुरु मेहर करी ।।
शब्द तथा विवेक की चुनरी (साड़ी) पहनकर चलो यानी बाहरी तथा आन्तरिक शब्द का विचार करो, तब परमात्म-धाम—परमात्मा के घर की खबर मालूम होगी। जब अन्तर के कपट-रूपी किवाड़ को खोल दोगे, तब सद्गुरु की कृपा होगी। जब सद्गुरु की कृपा हो जाय, तब—
दीपक ज्ञान धरे कर अपने, पिय को मिलन चली ।
बिहसत वदनऽरु मगन छबीली ज्यों फूली कँवल कली ।।
ज्ञान का दीपक अपने हाथ में लेकर प्रभु से मिलने चलो। तब तुम अपनी सुन्दरता देखकर हँसने लगोगे अर्थात् आनन्द से खिल जाओगे, उस आनन्द में मग्न हो जाओगे। साथ ही अपने अन्तर के कमल खिल जाएँगे यानी आज्ञाचक्र, त्रिकुटी, भँवर-गुफा, सत्लोक—ये सब अन्तर के कमल हैं, सब खिल जाएँगे। तब पिया का रूप देखकर प्रेम में मग्न होकर खुश हो जाओगे। कबीर साहब कहते हैं कि जब जीवात्मा परमात्मा से मिल गया, तो समाकर एकमेक हो गया—
देख पिया को रूप मगन भई, आनन्द प्रेम भरी ।
कहै कबीर मिली जब पिय से, पिय हिय लागि रही ।।
इसके लिए सद्गुरु की कृपा चाहिये। संसार में सद्गुरु ही आधार हैं। श्री लक्ष्मणजी श्रीरामजी से पूछते हैं—
नाथ बात सब विधि तुम जानौ । मैं पूछौं संक्षेप बखानौ ।।
जग समुद्र मधि को आधारा । गुरु कृपालु पर पोत निहारा ।।
(विश्रामसागर, श्रीरघुनाथदासजी)
संसार-रूपी समुद्र में आधार क्या है, उससे कैसे पार जा सकते हैं, तो भगवान् राम कहते हैं कि गुरु के कृपा-रूपी जहाज के द्वारा ही पार जा सकते हैं।
लक्ष्मण जी पूछते हैं कि गुरु कौन है? भगवान् श्रीराम कहते हैं कि जो कल्याण का बोध यानी ज्ञान देते हैं। शिष्य कौन? जो ज्ञान को सुनता है और मानता है।
गुरु को जो देवै हित बोध । शिष्य कौन जो सुनै प्रबोध ।।
पुनः पूछते हैं—
बेधित को, बिषया अनुरागी । को वा, मुक्ति विषय जिन त्यागी ।।
बँधा हुआ कौन है? जो विषयों में अनुरक्त है। मुक्ति किनकी होती है? जो विषयों को त्याग देता है।
अब पूछते हैं कि नरक क्या है तथा स्वर्ग क्या है?
नरक सो कौन घोर निज देही । तृष्णा त्यागि स्वर्ग सुख ये ही ।।
यह शरीर ही घोर नरक है तथा तृष्णा का परित्याग ही स्वर्ग का सुख है।
तमो द्वार किं किंकर नारी । मोक्ष मार्ग सत्संग विचारी ।।
अंधकार-अज्ञानता-नरक का दरवाजा क्या है? जो नारी का दास है अर्थात् स्त्री में आसक्त है। सत्संग का विचार ही मोक्ष-मार्ग है। पुनः पूछते हैं कि सोया कौन है तथा जगा कौन है?
सोवत को, जग रहे जे टेकी । जागत किं, सद असद विवेकी ।।
जो संसार की टेक को पकड़े रहता है—संसारी बना रहता है, यानी सांसारिक विषयों में लिप्त रहनेवाला है, वही सोया हुआ है और जगा वही है, जो सत्-असत् का ज्ञान रखता है यानी सारासार का ज्ञान रखता है।
को वा, शत्रु निजेन्द्री मीता । सोइ सुहृद, तिन्हैं जिन जीता ।।
जो इन्द्रियों का मित्र है, वही शत्रु है। जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है, वही सुहृद् है।
रंक कौन ज्यहि तृष्णा चोखी । धनी सो को सब विधि संतोखी ।।
गरीब वही है, जो तृष्णावन्त है यानी जिसे तृष्णा हमेशा सताती रहती है। धनवान वही है, जो सब प्रकार से संतोषी है। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा—
संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम् ।
संतोष ही पुरुष की परम निधि है। अब कहते हैं—
महा अंध को जो मदनातुर । निज भल करै सोइ बड़ चातुर ।।
महा अंध कौन है? जो कामातुर है। जो अपनी भलाई सोचता है, वही चतुर है—
क्षमावन्त को त्यहि श्रुति कहई । परुष वचन सुनि जो नहिं दहई ।।
मृतक कौन ज्यहि कीरति नाहीं । जीवत जासु सुयश जग माहीं ।।
दीरघ रुज किं यह संसारा । औषध तासु अनूप विचारा ।।
वेद में क्षमावन्त उसे ही कहा गया है, जिसे दूसरे के कटु वचन सुनने पर भी क्रोध उत्पन्न न हो। मरा हुआ वही है, जो कीर्ति-हीन हो और जीवित वह है, जिसका सुयश संसार में फैला हुआ है। सबसे बड़ा रोग क्या है? यह संसार ही सबसे बड़ा रोग है। उसकी औषधि सद्विचार ही है।
को हौं आयो कहाँ तें, कित जैहौं का सार ।
को मैं जननी को पिता, याको कहिये विचार ।।
अब कहते हैं कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा, सार क्या है, मेरी माता कौन है, पिता कौन है, इसे विचार करके कहिये। वास्तव में मैं कौन हूँ, इसे ठीक से जान लिया, तभी हमारा जीवन सार्थक है। हम शरीर नहीं हैं। हम शुद्ध निर्मल चेतन हैं। हमने पिण्ड में वासा कर लिया है; इसीलिए अपना घर भूल गये हैं।
जेठ उतरी हेठ सूरत, पिण्ड में वासा करी ।
भूलि गइ घर आदि अपना, भव में सब सुधि गइ हरी ।।
सुरत चेत अचेत छोड़ो, तू शिखर की वासिनी ।
माया में मगनो नहीं, यह अहै दारुण फाँसिनी ।।
हम माया में लिपट गये हैं, इसीलिए दारुण दुःख सह रहे हैं। अतएव—
उद्धार कर निज गुरु दया, ले हेर प्रभु बिन्द मूरती ।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय!


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
प्यारे सत्संग-प्रेमी भाइयो, माताओ एवं बहनो!
अभी हमलोगों ने वेदवाणी में सुना है—“ईश्वरोपासना करो।”
हमलोग नित सायंकाल प्रार्थना करते हैं—
प्रेम भक्ति गुरु दीजिये, विनवौं कर जोरी ।
क्योंकि—
है प्रेम जगत में सार, कछु सार नाहीं ।
(श्रीविन्दु कवि)
कबीर साहब ने कहा है—
भला बना संयोग प्रेम का चोलना ।
संसार में हमलोग यत्र-तत्र से आये हैं और फिर कहाँ-कहाँ जाएँगे, ठिकाना नहीं। एक परिवार में थोड़े लोग हैं, कौन कहाँ से आये हैं और कहाँ चले जाएँगे, पता नहीं; इसलिए आपस में प्रेम से रहना चाहिये। अगर मेल से, प्रेम से नहीं रहेंगे, तो साधन-भजन क्या कर सकेंगे! श्री सद्गुरु महाराज एक कहानी कहा करते थे—
एक गरीब आदमी था। उसके चार पुत्र थे और चार पुत्र-वधुएँ। सबको आपस में बहुत प्रेम था, सब मेल से रहते थे।
एक दिन उस गरीब आदमी को अधिक धन कमाने की इच्छा प्रबल हो गयी। इसलिए वे सब घर छोड़कर कहीं दूर देश के लिए रवाना हुए।
रास्ते में शाम हो गयी। सबने एक वृक्ष के नीचे रात बिताने का विचार किया। बूढ़े ने चारो पुत्रों को जलावन की लकड़ी के लिए जंगल भेज दिया। चारो पुत्र आज्ञाकारी थे। सभी लकड़ी लाने जंगल चले गये। पुत्र-वधुओं को भी चूल्हे, बर्त्तन, पानी आदि की व्यवस्था करने का आदेश दिया। सभी अपने-अपने काम में जुट गये; किसी ने आनाकानी नहीं की। स्वयं बूढ़ा सन की सुतली कातने लगा।
उस वृक्ष पर एक प्रेत रहता था। वह सब कुछ देख रहा था। उसने सोचा कि इसके पास तो भोजन की कोई सामग्री है नहीं, क्या खाएगा और सबको काम का आदेश दे दिया है?
उस प्रेत ने नीचे उतरकर उस बूढ़े आदमी से पूछा कि तुम्हारे पास भोजन के लिए तो कुछ है नहीं, क्या खाओगे?
उस बूढ़े ने जवाब दिया, फ्भगवान् जो भेज देंगे, वही खाऊँगा।”
प्रेत ने पुनः पूछा— “सन की सुतली क्यों कात रहे हो?”
बूढ़े ने कहा—“तुम्हें बाँधने के लिये।”
प्रेत ने सोचा कि यह मुझे अवश्य बाँध सकता है। कारण, इसके परिवार में बड़ा मेल है। प्रेत ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, “भाई! मुझे मत बाँधो।” बूढ़े ने कहा, “मैं तुम्हें बाँधूँगा ही।”
प्रेत ने कहा—“मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हें एक जगह गड़ा हुआ धन बता देता हूँ। तुम उसे उखाड़ लो।”
प्रेत ने धन का पता बता दिया।
उस बूढ़े ने सभी पुत्रों को धन उखाड़ने का आदेश दिया। धन पाकर वे मालोमाल हो गये।
धन लेकर वे सब घर चले आये। कुछ ही दिनों में उनके धनवान होने की खबर लोगों में फैल गयी।
एक पड़ोसी ने आकर उससे धनवान होने का कारण पूछा। उसने उसे सारी बातें बता दीं। पड़ोसी ने भी वहाँ जाने को सोचा।
वह भी अपने पुत्रों तथा पुत्र-वधुओं को साथ लेकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा, सभी पुत्रों को जलावन लाने और वधुओं को भोजन की व्यवस्था करने का आदेश दिया, लेकिन किसी ने आज्ञा नहीं मानी। बूढ़ा स्वयं सुतली कातने लगा।
उससे भी प्रेत ने पूछा, “सुतली क्यों कात रहे हो?”
बूढ़े ने कहा, “तुझे बाँधने के लिए।”
प्रेत ने कहा, “तुम मुझे बाँध नहीं सकते हो; क्योंकि तुमलोगों में परस्पर प्रेम और मेल नहीं है।”
वह आदमी अपना-सा मुँह लिए घर लौट आया।
इस कथा से बोध होता है कि जहाँ सुमति है, प्रेम है, मेल है, वहाँ किसी चीज की कमी नहीं है— “जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।”
प्रेम के द्वारा सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ तक कि आपके अन्दर परमात्म-प्राप्ति का सच्चा प्रेम हो, तो परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए आपस में मेल से रहें तथा परस्पर अच्छी बातें करें।
अयोध्या के एक संत श्रीरघुनाथ दास जी ने कहा है—”वशीकरण किं कोमल वाणी।” वास्तव में कोमल वाणी से सब किसी को वश में किया जा सकता है।
साथ ही अच्छा संग चाहिये। सज्जनों, साधु पुरुषों का संग करने से लोग अच्छे बन सकते हैं। रामचरितमानस में आया है—
मज्जन फल देखिय तत्काला । काक होहिं पिक बकउ मराला ।।
सुनि आचरज करइ जनि कोई । सत्संगति महिमा नहिं गोई ।।
कौआ कोयल हो जाता है यानी कटुवादी मृदुभाषी हो जाता है और बगुला हंस हो जाता है अर्थात् हिंसक अहिंसक हो जाता है।
कोयल की मीठी बोली सब कोई पसन्द करते हैं; लेकिन कौए की बोली कोई पसन्द नहीं करते। एक कवि ने कहा है—
कौआ किसका धन लेता है, कोयल क्या देती है ।
केवल मीठी बोली से ही, सबको वश कर लेती है ।।
बगुले और हंस में अन्तर यह है कि बगुला अभक्ष्य पदार्थ खाता है और हंस मोती चुगता है। यों तो हंस इस पृथ्वी पर नहीं देखा जाता है, लेकिन लोग कहते हैं कि हंस देवलोक के मान सरोवर में रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी रहन-सहन, खान-पान, कर्म पवित्र होने चाहिये। हंस होने का मतलब है विचारवान हो जाना।
बगुला ऊपर से साफ रहता है, पर उसका हृदय कपट से भरा होता है। सत्संग में आकर ज्ञान-ध्यान की बातें सुननेवाले विवेकी लोग मानो हंस की तरह मोती चुगते हैं। हमेशा बुरे विचार सुनने से, बुरे लोगों की संगति करने से लोग बगुले के स्वभाववाले हो जाते हैं। सत्संग बुरे आचरण से बचाता है। इसीलिए तो सन्त कबीर ने कहा है—
बोली हमरा पलटिया, या तन याही देश ।
खारी से मीठी भई, सतगुरु के उपदेश ।।
इस थोड़े-से काल के जीवन में हमलोग आपस में लड़ाई-झगड़ा करते हैं; मेल से, प्रेम से नहीं रह पाते हैं—यह अच्छी बात नहीं है। सन्त कबीर साहब कहते हैं—
मन तू क्यों भूला रे भाई, तेरी सुधि-बुधि कहाँ हेराई ।।
जैसे पक्षी रैन बसेरा, बसे वृक्ष पर आई ।
भोर भये सब आपु आपु को, जहाँ तहाँ उड़ि जाई ।।
जिस प्रकार शाम हो जाने पर अनेक पक्षी एक वृक्ष पर आकर विश्राम करते हैं और सुबह होते ही सब जहाँ-तहाँ उड़ जाते हैं, उसी प्रकार हम सभी इस संसार में थोड़े काल के लिए आये हैं और पुनः कहाँ चले जाएँगे, इसका पता नहीं। और कहते हैं—
सपने में तोहि राज मिल्यो है, हाकिम हुकुम दोहाई ।
जाग पड़े जब लाव न लस्कर, पलक खुले सुधि पाई ।।
संसार के सभी पदार्थ स्वप्नवत् झूठे हैं। संसार में कितने वीर आये और फिर कहाँ चले गये? आज उनका नामोनिशान भी नहीं है। दुर्योधन बड़ा बलशाली था, उसका राज्य बड़ा विस्तार वाला था; लेकिन आज वह कहाँ है?
सोरह जोजन के मध्य में, चलै छत्र की छाहीं रे ।
सोई दुर्योधन मिलि गये, माटी के माहीं रे ।।
इसलिए संसार के सुख-दुःख झेलते हुए अपने जीवन को अच्छे काम में बिताना चाहिये। रामचरितमानस में कहा है—
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं । दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ।।
और गीता के 13वें अध्याय में कहा गया है—
चाहे विपति पड़े महा, या राज्य मनचाहा मिले ।
समभाव रहना शांत चाहे, दुःख मिले या सुख मिले ।।
सुख-दुःख में समान रहना चाहिये। सांसारिक वैभव रहने से लोग इठलाते हैं। थोड़े काल में वह वैभव चला जाता है, तो उनकी ऐंठ खतम हो जाती है, लोग उनके पास तक नहीं जाते। अगर आज किसी की बढ़ती है, तो फिर कल उसकी घटती भी होती है और लँगोटी तक पहननी पड़ती है।
इसलिये परिवार, समाज, घर-द्वार में रहते हुए अपने को सदा उनसे अनासक्त भाव में रखकर प्रभु परमात्मा में अपना ख्याल लगाते रहना चाहिये। संत कबीर साहब ने कहा है—
बैठे लेटे खड़े उताने कह कबीर हम वही ठिकाने ।
इतना ही नहीं,
डोलत डिगौं न बोलत बिसरौं, जब उपदेश दृढावौं ।।
सांसारिक कर्त्तव्य कर्म करते हुए भी मन को प्रभु में लगाये रखना चाहिये—तन काम में, मन राम में।
कर से कर्म करो विधि नाना । मन राखो जहँ कृपानिधाना ।।
(गो0 तुलसीदासजी)
और,
सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।
सहज रूप सुमिरन करै, निहकर्मी दादू दीन ।।
(संत दादू दयालजी महाराज)
इसका अभ्यास करते हुए संसार में रहना चाहिये।



बन्दौं गुरु पद कंज, कृपासिंधु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
बन्दौं संत समान चित, हित अनहित नहिं कोउ ।
अंजुलिगत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोउ ।।
संत सरलचित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु ।
बाल विनय सुनि करि कृपा, रामचरन रति देहु ।।
परम आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
संतमत में संतों के वचनों की मुख्यता है। जबतक हम संतों के वचनों को पढ़ते, सुनते और समझते रहते हैं, तबतक उनका प्रभाव हमारे ऊपर अवश्य रहता है। संत कबीर साहब ने कहा है—
जा पल दरसन साधु का, साहिब आवै याद ।
लेखा में सोई घड़ी, बाकी के सब बाद ।।
गीता में ऐसे महात्मा को दुर्लभ बताया गया है—
ऐसा महात्मा है महा दुर्लभ न मिलता शीघ्र ही ।
जो देखता है ब्रह्म को हर वस्तु में सर्वत्र ही ।।
इसीलिये संतमत के सत्संग में सन्तों की वाणियों का पाठ होता है। संतों की वाणी में वह सार ज्ञान है, जिसे समझकर यदि मानव थोड़ा भी आचरण करे तो उसका परम कल्याण हो जायगा। साथ ही महाभय से भी बच जायगा। भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं—
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात् ।।
अर्थात्, इस (योग) के आरंभ का नाश नहीं होता; विपरीत परिणाम भी नहीं निकलता। इस धर्म का थोड़ा-सा पालन भी महाभय से बचाता है।
इसी को श्रीसद्गुरु महाराज ने कहा है—योगारंभ-रूप संस्कार जब अभ्यासी के अन्दर बीज रूप से पड़ जाता है, तबसे वह उसके साथ तबतक वर्त्तमान रहता है, जबतक अभ्यासी को मोक्ष और परम शान्ति न मिल जाय। सबसे भारी भय क्या है? सबसे भारी भय है कि हमें पुनः मनुष्य का शरीर मिलेगा कि नहीं। हम चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते मनुष्य का शरीर पाये हैं। फिर मनुष्य का शरीर नहीं मिल पाया, दूसरी योनि में चले गये, तो दुःख भोगना पड़ेगा। इसी को उपनिषत्कार ने कहा है—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
अर्थात् यदि इस जन्म में ब्रह्म को जान लिया, तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्म में न जाना, तो बड़ी भारी हानि है।
संत-महात्मा लोग कहते हैं कि मनुष्य का शरीर बड़ा दुर्लभ है; और इस शरीर को पाकर यदि सद्ज्ञान प्राप्त नहीं किया, तो जीवन बेकार चला जायगा।
अरे दिल गाफिल गफलत मत कर, इक दिन जम तेरे आवेगा रे ।।
सौदा करन को या जग आया, पूँजी लाया मूल गँवाया ।।
प्रेम नगर का अन्त न पाया, ज्यों आया त्यों जावेगा रे ।।
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्या-क्या कीता ।।
सिर पाहन का बोझा लीता, आगे कौन छुड़ावेगा रे ।।
परली पार तेरा मीता खड़िया, उस मिलने का ध्यान न धरिया ।।
टूटी नाव ऊपर जा बैठा, गाफिल गोता खावेगा रे ।।
दास कबीर कहै समुझाई, अन्त काल तेरो कौन सहाई ।।
चला अकेला संग न कोई, किया आपना पावेगा रे ।।
—सन्त कबीर साहब
श्रीसद्गुरु महाराज ने कहा है—
माघ भूखा बाघ काल के मुख पड़ो है बावरे ।
होश कर चेतो सबेरे, बचो ध्यान के दाव रे ।।
काल मुख से निबुकि भागो, ध्यान के बल भाइ रे ।
ऐसो औसर खोइहौ तो, रोइहौ पछताइ रे ।।
सारे साधु-महात्मा यही पुकारकर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर पाकर चेतो, होश करो और परमात्म-प्राप्ति की राह पर चलने की कोशिश करो। ठीक से चलने की कोशिश करोगे, तो इसी जन्म में परमात्मा को प्राप्त कर लोगे। यदि इस जन्म में प्राप्त नहीं कर सकोगे, तो दूसरे जन्म में पवित्र श्रीमान् लोगों के घर में जन्म लेकर पुनः भक्ति में दाखिल होओगे। अर्जुन के पूछे जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने योगभ्रष्ट की गति और योग की महिमा ऐसी ही बतलायी थी।
अर्जुन ने भगवान् से पूछा—
जिसका हृदय श्रद्धालु हो, पर यत्न संयम की कमी ।
हो योगसिद्धि न प्राप्त कौन-सी गति संयमी ।।
क्या स्थिर न हो वह मोहवश होता उभय पथ भ्रष्ट है?
या छिन्न होकर घन पटल-सा कृष्ण! होता न भ्रष्ट है?
हे जनार्दन दूर यह संदेह मेरा कीजिये ।
है कौन दूजा आप बिन भ्रम आप मेरा छीजिये ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—
पार्थ नैवेहनामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणस्यकश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ।।
वह हो कहीं पर पार्थ! उसका नाश होता नहीं ।
कल्याणकारी कर्म से दुर्गति न होती कहीं ।।
जाता वहीं पर धर्म धीर मनुष्य जाते जहाँ ।
जाकर विचरता योगभ्रष्ट मनुष्य वर्षों तक वहाँ ।।
वह पुण्य फल को भोग फिर आता जगत् में जन्म ले ।
श्रीमान् पावन वंश पाता गृह निवासी जहाँ भले ।।
या जन्म पाता परम ज्ञानी योगियों के वंश में ।
जहाँ जन्म लेना है दुर्लभ सुकुल अवतंस में ।।
इतना ही नहीं,
मिलते उसे संस्कार उसने पूर्व में जो थे किये ।
उससे पुनः वह यत्न करता सिद्धि पाने के लिये ।।
वह सिद्धि पाता सहज ही निज पूर्व योगाभ्यास से ।।
यों यत्न युक्त अभ्यास करके मुक्त होकर पाप से ।
वह जन्म के पश्चात् योगी मुक्त होता ताप से ।।
संत-महात्माओं का कथन आचरण में लाने योग्य होता है। फिजूल बोलनेवाले को लोग पागल कहते हैं। संत लोग फिजूल नहीं बोलते; उनकी वाणी अकाट्य और ध्रुव होती है—“वृथा न होहिं देवरिषि बानी।”
हमलोग शरीर और संसार में आकर फँस गये हैं। पहले शरीर में, तब संसार में। इनसे कैसे छूटना होगा? शरीर और संसार में बड़ा मेल है। जब हम शरीर से छूट जाएँगे, तो संसार से भी छूट जाएँगे; लेकिन हमलोग तो गाढ़े बंधन में बँध गये हैं। संत राधास्वामी जी महाराज कहते हैं—
बँधे तुम गाढ़े बंधन आन ।।टेक।।
पहला बंधन पड़ा देह का, दूसर तिरिया जान ।
तीसर बंधन पुत्र विचारो, चौथा नाती मान ।।1।।
नाती के कहिं नाती होवै, फिर कहो कौन ठिकान ।
धन संपति और हाट हवेली, यह बंधन क्या करूँ बखान ।।2।।
चौलड़ पँचलड़ सतलड़ रसरी, बाँध लिया अब बहु विधि तान ।
कैसे छूटन होय तुम्हारा, गहरे खूँटे गड़े निदान ।।3।।
मरे बिना तुम छूटो नाहीं, जीते जी तुम सुनो न कान ।
जगत लाज और कुल मरजादा, यह बंधन सब ऊपर ठान ।।4।।
लीक पुरानी कभी न छोड़ो, जो छोड़ो तो जग की हान ।
क्या क्या कहूँ विपत मैं तुम्हरी, भटको जोनी भूत मसान ।।5।।
तुम तो जगत सत्त कर पकड़ा, क्योंकर पावो नाम निशान ।
बेड़ी तोक हथकड़ी बाँधा, काल कोठरी कष्ट समान ।।6।।
काल दुष्ट तुम्हें बहुविधि बाँध, तुम खुश होके रहो गलतान ।
ऐसे मूरख दुख सुख जाना, क्या कहुँ अजब सुजान ।।7।।
शरम करो कुछ लज्जा ठानो, नहिं जमपुर का भोगो डान ।
राधास्वामी सरन गहो अब, तो कुछ पाओ उनसे दान ।।8।।
इन बंधनों से छूटने का उपाय अपने अंदर में ही ध्यान करना संतलोग बतलाते हैं। अन्दर-ही-अन्दर चलकर एक शरीर को पार कर दूसरे शरीर में प्रविष्ट होना होगा। इस प्रकार सब शरीरों को पार कर अन्त में आपका शुद्ध स्वरूप बच जायगा। इसका नाश नहीं होता है। शरीर का ज्ञान रखनेवाला भी शरीर के अन्दर ही है, बाहर नहीं। संत श्री रघुनाथ दास जी कहते हैं—
जाग्रत में चक्षुन में वासा । लिंग देह कंठ निवासा ।।
कारण तनु हिरदे में राजे । तुरीय अवस्था गगन विराजे ।।
इसी को ब्रह्मोपनिषद् में कहा है—
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कंठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम् ।।
संतवाणी तथा उपनिषद् में आया कि हम जाग्रत में आँख में रहते हैं। अब प्रश्न होगा कि हम दायीं आँख में रहते हैं या बायीं आँख में? न दायीं में, न बायीं में रहते हैं। दोनों आँखों के मध्य में रहते हैं। जहाँ से दोनों आँखों में चेतन-धार आती है, उसे ‘तीसरा नेत्र’ कहते हैं। वह अंधकार और प्रकाश का मध्य है। उसी को कबीर साहब ने ‘बक भौरा’ कहा है। वही ‘तीसरा तिल’ कहा जाता है। तो, अंधकार और प्रकाश के मध्य जीव का वासा है।
इसलिए अपने को खोजने के लिए अपने ही अन्दर देखना होगा, लेकिन हमारी प्रवृत्ति बाहर देखने की हो गयी है। इसलिए उसे अन्तर्मुखी बनाना होगा। कठोपनिषद् में कहा गया—
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्प्राघ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्वीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत चक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।।
अर्थ—परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुखी ही बनाया है, इसलिये वे बाहर ही देखती हैं, अन्तरात्मा को नहीं। लेकिन कोई धीर पुरुप अमृतत्व की इच्छा रखते हुए आवृत्त चक्षु होकर अर्थात् ढँके हुए नेत्र— बन्द नेत्रवाला होकर दृष्टिशक्ति को अन्तर्मुख फेरकर आत्मा का दर्शन करते हैं।
जब हम आँखें बन्द करते हैं तो सबसे पहले अंधकार दीखता है। जितने लोग हैं, सब अंधकार ही देखते हैं। इसलिये हमारा वासा अंधकार में है। अंधकार की उपज है अज्ञान और प्रकाश की उपज है ज्ञान। वैसे तो संत लोग कहते हैं कि बाहर जाग्रत् में भी हम अज्ञानावस्था में ही रहते हैं। यह अज्ञान या मोह महा अंधकार-रूप है। गो0 तुलसीदास जी ने ‘महामोह तम पुंज’ कहा है।
अपने अन्दर के अंधकार के पर्दे को पार करने के लिए, अज्ञान से ज्ञान में जाने के लिए साधना करनी पड़ेगी। पूर्ण ज्ञान ध्यान से होगा। ध्यान करने से अनेकता समाप्त हो जाती है; अपने शरीर को भी नहीं देख सकते। वहाँ तो ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान—सब एक ही हो जाते हैं।
जब कोई शब्द-साधना करते हैं, तो वे कभी-न-कभी ऐसे स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ न शून्य है, न वस्ती है; न देश है; न काल। गोरखनाथ जी ने यही कहा—
वस्ती न शून्यं न वस्ती अगम अगोचर ऐसा ।
गगन शिखर महिँ बालक बोलहिँ वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।
वहाँ न वस्ती है, न शून्य है। तब क्या है? एक अगम अगोचर पदार्थ है। उसे आँख से नहीं देखा जा सकता। अपने अन्दर के अंधकार में हम कैसे देखेंगे, तो गीता में कहा गया है—
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।
अर्थात् किसी दिशा को न देखता हुआ केवल नासिका के आगे ही देखो। मैंने आज ‘जीवन-दर्शन’ पत्रिका पढ़ी, जिसके मुखपृष्ठ पर उसका उद्देश्य लिखा हुआ था, “मानव जाति के सर्वतोमुखी विकास की तथा कर्त्तव्यपरायणता एवं साधननिष्ठ जीवन की प्रेरणा देना।” मैंने पूरी पत्रिका पढ़ी, पर मनोनिरोध के साधन के बारे में कहीं कुछ लिखा नहीं पाया।
संतमत का साहित्य साफ-साफ बताता है कि मन को कैसे काबू किया जाता है, उसके साधन क्या है। श्री सद्गुरु महाराज कहते हैं—
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।
यह तो इशारा मात्र है। आँख बन्द करने पर अंधकार का दायरा सम्मुख आता है। इसका दायरा कितना बड़ा है, कहना मुश्किल है। इसके अन्दर काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकार भरे हुए हैं। गोस्वामी जी कहते हैं—
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ परे तम कूप ।।
संतों ने इस अंधकार को पार करने का रास्ता अन्दर में बताया है। किसी शास्त्र में इसका भेद प्रकट नहीं है। इसका भेद मात्र संत के पास है।
भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रन्थ से ।
है असंभव समझ लो किसी सन्त से ।।
यह ज्ञान बहुत प्राचीन काल से है। जो जानते हैं, उन्हें करना चाहिये। सबसे बड़ी बात करने की है। पानी, पानी चिल्लाने से पानी नहीं आ जायगा, जबतक कि लाया नहीं जाय। भेद जान लिया, लेकिन करते नहीं हैं, तो जानना किस काम का?
हाँ, भेद किसी जानकार से ही लेना चाहिये, नहीं तो अनर्थ हो सकता है। एक बार मैं गुरु महाराज के साथ रायबरेली गया था। वहाँ एक साधु से भेंट हुई। उनकी आँखें उलट गयी थीं। वे हमेशा ऊपर ही देखते थे। गुरु महाराज ने पूछने की कृपा की, तो बताया कि “महाराज! मुझे तो एक साधु ने ऊपर भौंओ की ओर देखने बताया था। मैंने इसका अभ्यास कई वर्षों तक किया, जिससे मेरी आँखें उलट गई। जब देखता हूँ तो ऊपर की ही ओर।” श्रीसद्गुरु महाराज ने उन्हें सीधे देखने के लिए बता दिया। तो, नहीं जानने से गलत रास्ता भी पकड़ा जाता है।
एक सज्जन आश्रम आये और गुरु महाराज से निवेदन किया कि महाराज! मेरी प्राणवायु तो हमेशा सुषुम्णा में ही रहती है, लेकिन प्रकाश कहाँ मिलता है? गुरु महाराज ने कहने की कृपा की, “आपकी प्राणवायु ही न सुषुम्णा में रहती है, दृष्टि और मन तो सुषुम्णा में नहीं रहते हैं।” वे विद्वान् तुरत श्रीचरणों में गिर पड़े और भेद पाने के लिए प्रार्थना करने लगे।
मनोनिरोध होने पर साधक की ऊर्ध्वगति हो जाती है और एक दिन वह परमात्म-पद प्राप्त कर निश्चल, शांत हो जाता है। इस संबंध में कहा गया है—
डिगता नहीं वह तत्त्व से इक बार स्थित होकर जहाँ ।
संतुष्ट हो रहकर उसी में जिस दशा में है जहाँ ।।
विचलित न होता दुःख पाकर घोर भी योगी जहाँ ।
यह ज्ञान दुख संयोग से होता वियोग सदा वहाँ ।।
वास्तव में एकमात्र परमात्मा ही ध्यान करने योग्य हैं, वे ही जानने योग्य हैं।
अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म सूर्य स्वरूप जो सर्वेश है ।
सर्वज्ञ सर्वाधार और अचिन्त्य जो प्राणेश है ।।
सबके नियंता सृष्टिकर्त्ता परम प्रभु जो ज्ञेय है ।
उनका करे जो ध्यान जो जगदीश जग का ध्येय है ।।
इसके लिये सदाचार का पालन अपेक्षित है। साथ ही, सभी सन्तों की वाणियों का आदर करें; एकांगी नहीं बनें। पंथाई भाव रखना अच्छा नहीं। संतमत में तो “सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी” गायी जाती है और “गही सन्त पद आशा सारी” स्तुति की जाती है।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
प्यारे धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब की वाणी में सुना—
बिनु गुरु ज्ञान नाम ना पैहो, बिरथा जनम गँवाई हो।
यह नाम क्या है? गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है—
नाम रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।
अर्थात् नाम और रूप दोनों ईश्वर की पदवियाँ हैं। ये दोनों वर्णन से बाहर और आदि-रहित हैं। अच्छे बुद्धिमानों ने इसकी साधना की है।
नाम के तीन भेद हैं।
श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक वर्णात्मक विधि तीन ।
त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन ।।
(गो0 तुलसीदासजी)
एक वर्णात्मक, दूसरा श्रवणात्मक और तीसरा ध्वन्यात्मक। वर्णात्मक शब्द को सुन भी सकते हैं और लिख भी सकते हैं। श्रवणात्मक शब्दों को सुन सकते हैं और उनमें जो सार्थक शब्द है, उसे लिख भी सकते हैं। ध्वन्यात्मक शब्द को सुन सकते हैं, पर लिख नहीं सकते। सबके अन्दर भी ध्वन्यात्मक शब्द अपने आप हो रहा है। उसे बाहरी कान से नहीं, सुरत के कान से सुन सकते हैं। वर्णात्मक और श्रवणात्मक ध्वनियाँ ठोकर से उत्पन्न होती हैं। अपने भीतर जो अनहद ध्वनियाँ हो रही हैं, वे आहत अर्थात् ठोकर से उत्पन्न ध्वन्यात्मक शब्द हैं। सारशब्द, आदिनाम जो सृष्टि के आदि में परमात्मा से उत्पन्न हुआ, अनाहत ध्वन्यात्मक शब्द है। वह बिना ठोकर के पैदा हुआ है।
जो शब्द अपने अन्तर में हो रहा है, उसके बारे में आया है—
घट घट में होता आपही, यह शब्द अगम अपार है ।
प्रभु नाम निर्मल राम यह, शब्द सार सकल अधार है ।।
(महर्षि मेँहीँ पदावली)
हम मनुष्य की बोली में सारशब्द का आरोपण नहीं कर सकते। ॐ, रामनाम, सत्नाम आदि आरोपित शब्द हैं। यह ध्वन्यात्मक सारशब्द का वाचक है और ईश्वर का वाचक ध्वन्यात्मक सारशब्द है। वाचक अर्थात् बतलाने वाला, बोध करानेवाला, सूचक। वाच्य अर्थात् कहने योग्य, शब्द संकेत द्वारा जिसका बोध कराया जा सके। वर्णात्मक ईश्वर-वाचक नाम ईश्वर के सिफाती नाम हैं। वर्णात्मक नाम से उनके गुण प्रकट होते हैं।
‘राम’ कहने से राम के गुण प्रकट होते हैं। राम एक महापुरुष थे। उनके नामोच्चारण से उनके गुण याद आते हैं। ‘कृष्ण’ कहने से कृष्ण भगवान् के गुण सामने आते हैं। एक व्यक्ति में अनेक गुण हों तो उन गुणों के आधार पर उनके अनेक नाम हो सकते हैं। जैसे कोई हल जोतता है, तो उसे हलवाहा कहेंगे; उसमें गीत गाने की कला है, तो उसे गवैया भी कहेंगे। इन्हीं गुणों के आधार पर श्रीकृष्ण को वंशीधर, गिरिधर, गोपाल, महायोगेश्वर आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है।
वर्णात्मक नामों से परमात्मा जाने जाते हैं; पहचाने नहीं जाते। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है—
रूप विशेष नाम बिनु जाने । करतल गत न परहिं पहिचाने ।।
अर्थात् ध्वन्यात्मक सत्नाम के जाने बिना विलक्षण रूप (आत्म-स्वरूप) हथेली में प्राप्त होने पर भी पहचान में नहीं आता।
सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर में एक मौज हुई—एकोऽहं बहुस्याम’— “मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।” इसी मौज में कम्प हुआ और कम्प का सहचर शब्द आदिशब्द हुआ। इसे ही स्फोट, उद्गीथ, ब्रह्मनाद, शब्दब्रह्म, ओ3म्, सत्शब्द, रामनाम, कृष्णनाम, शिवनाम आदि कहा गया। इसी के संबंध में पूज्य श्री सद्गुरु महाराज ने नाम-संकीर्त्तन रूप में नित्य पठनीय भजन बना दिया है—
अव्यक्त अनादि अनन्त अजय अज आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ओ3म् वही ।
अति मधुर प्रणव ध्वनिधर वही है परमातम प्रतीक वही ।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सार शब्द सतशब्द वही ।
है सत चेतन अव्यक्त वही, व्यक्तों में व्यापक नाम वही ।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्वकर्षक हरिकृष्ण नाम वही ।
है परम प्रचंडिनि शक्ति वही, है शिवशंकर हर नाम वही ।।
पुनि रामनाम है अगुण वही, है अकथ अगम पूर्ण काम वही ।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि सिंधु अदोष वही ।।
है एक ओ3म् सतनाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही ।
***************, मुनि सेवित गुरु का नाम वही ।
भजो ॐ ॐ प्रभु नाम यही, भजो ॐ ॐ ‘मेँहीँ’ नाम यही ।।
सन्त कबीर साहब ने इसी शब्द को आदिनाम कहा है। इसकी परख हो जाने से भव-बंधन छूट जाता है।
आदिनाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
इस नाम को विरले ही समझते हैं। संसार में जितने नाम हैं, उनमें से किसी से भी मुक्ति नहीं हो सकती।
कोटि नाम संसार में, तातें मुक्ति न होय ।
आदिनाम जो गुप्त जप, बूझे बिरला कोय ।।
इसी नाम के बारे में दादू दयाल जी महाराज ने कहा है कि—
नाँउ रे नाँउ रे, सकल सिरोमणि नाँउ रे,
मैं बलिहारी जाँउ रे।।
दादू दयालजी महाराज कहते हैं कि परमात्मा का नाम सबके सिर की मुकुटमणि है। इसलिए मैंने उसपर अपने आपको निछावर कर दिया है। यह नाम हमारे अन्दर द्वैत भाव को मिटाता है और अद्वैत भाव को स्थापित करता है। हम और ईश्वर तत्त्वतः एक हैं, यह अद्वैत भाव है। यह नाम संसार-सागर से पार उतारता है। इसीलिये यह नाम सभी नामों से निर्मल है।
दूतर तारै पार उतारै नरक निवारै नाँउ रे ।
तारण हारा भौजल पारा निर्मल सारा नाँउ रे ।।
इतना ही नहीं, यह नाम परमात्मीय प्रकाश को भी दिखाता है; परमात्मा के तेज में मिला देता है; अन्दर में ज्योति जगाता है। यह नाम सब सुखों को देनेवाला और अमर करनेवाला है। इसीलिए दादू दयाल जी उसमें मतवाले हो गये हैं—
नूर दिखावै तेज मिलावै, जोति जगावै नाँउ रे ।
सब सुख दाता अमृत राता, दादू माता नाँउ रे ।।
उस नाम में बहुत आकर्षण है। उस नाम को जो पकड़ लेगा, वह उस ओर खिंच जायगा, जहाँ से वह नाम आया है। उस नाम का उद्गम स्थान परम प्रभु परमात्मा है।
गुरु महाराज उसी नाम को भजने के लिए कहते हैं—
रामनाम अमर नाम भजो भाई सोई ।
सोई सतधुन सब घट-घट होई ।।
जो रामनाम अमर है, हे भाई! उसी का भजन करो। वह परमात्मा का सच्चा शब्द सबके अन्दर सतत हो रहा है। वह नाम न तो नाभिचक्र से होनेवाली परा वाणी है, न हृदय-चक्र से उत्पन्न होने वाली पश्यन्ती है, न कंठ-चक्र से होनेवाली मध्यमा वाणी है और न मुँह से उच्चरित होनेवाली बैखरी वाणी ही। वह अनाहत है यानी बिना ठोकर के उत्पन्न हुई ध्वनि है। वह शब्द अपने आप हुआ है। वह सत् पद अर्थात् परमात्म-पद तक पहुँचाता है, जहाँ पहुँचकर संसार में पुनः आना नहीं पड़ता है।
परा न पश्यन्ति न मधिमा न बैखरि न, वर्णात्मक हत धुन नहिं कोई ।
अनहद अनाहत परसावे सतपद, पहुँचि जहाँ पुनि भव नहिं होई ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
उस नाम को कैसे भजा जायगा, आगे कहा गया है—
गुरु भेद धरि धरि, दिव्य दृष्टि करि करि ।
तीन बन्द बन्द करि, भजो नाम सोई ।।
गुरु-भेद लेकर अपने अन्दर दिव्य दृष्टि प्राप्त करके तीन बन्द लगाकर अर्थात् आँख, कान और मुँह को बन्द करके उस नाम को भजा जाता है।
अब श्री सद्गुरु महाराज कहते हैं कि वह सूक्ष्म ध्वनि अन्तर की अन्तिम तह में अर्थात् शरीर के सारे जड़-आवरणों के परे सुना जाता है; लेकिन जो गुरु-आश्रित हैं, गुरु की शरण में हैं, उनकी ही सुरत उस नाम में रमती है।
मेँहीँ’ मेँहीँ धुनि अन्तर अन्त सुनि, सुरत रमे गुरु आश्रित होई ।।
हाँ, साधन के प्रारम्भ में गुरु-प्रदत्त वर्णात्मक नाम का भी जप किया जाता है।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परमादरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
आज मेरा अहोभाग्य है कि आपलोगों के सामने आकर मैं आपलोगों के दर्शन कर रहा हूँ। आपलोगों ने अभी सद्गुरु महाराजजी रचित सन्त-स्तुति और गुरु-वन्दना सुनी। गुरु परमात्म-स्वरूप होते हैं—
प्रभु गुप्त हैं गुरु प्रगट हैं, हैं एक ही दयाल।
परम भक्तिन सहजोबाई की भी वाणी आपलोगों ने सुनी। उससे विशेष कोई क्या कहेंगे, मेरी समझ में नहीं आता।
आज भारत ही नहीं, अपितु सारे विश्व के लोग अपने-अपने धर्म, अपने-अपने पंथ को ही श्रेष्ठ समझते हैं। अनेक विचारों में एकता नहीं, विभिन्नता है; लेकिन गुरु महाराज कहते हैं कि संसार में जितने सन्त हुए हैं या अभी हैं और जो आगे होंगे, उनका एक ही सिद्धान्त और एक ही लक्ष्य है। इसीलिए उन्होंने लिखा है—
“भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है।”
सन्तों की दृष्टि में कोई बड़ा-छोटा, ऊँच-नीच या शत्रु-मित्र नहीं होता, सब समान होते हैं। वे समता ज्ञानवाले होते हैं। उनके लिए “वसुधैव कुटुम्बकम्” होता है। साथ ही उनकी ऐसी भावना होती है—
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।।
सभी सुखी हो जायँ; सभी नीरोग हो जायँ; सभी कल्याण के दर्शन करे; कोई दुःख के भागी न बनें। इसीलिए तो गो0 तुलसीदासजी ने कहा है—
बन्दौ सन्त समान चित, हित अनहित नहिं कोउ ।
अंजुलिगत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोउ ।।
सन्त सरल चित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु ।
बाल विनय सुनि करि कृपा, राम चरन रति देहु ।।
सन्तों के क्रिया-कलाप दूसरों के हित के लिए होते हैं—फ्पर हित रत सब काम।” वे संसार के उपकार के लिए सतत व्यग्र रहते हैं—“विश्व उपकार हित व्यग्रचित सर्वदा।”
जब श्री सद्गुरु महाराज के जीवन की ओर दृष्टिपात करता हूँ तो यही पाता हूँ कि उन्होंने जीवन के आदि से ही सन्तों के वचनों को पढ़ा, सुना, समझा; सन्तों के ज्ञान के मुताबिक गुरु किया और साधन-भजन भी किया। उन्होंने सभी सन्तों की वाणियों का समान आदर किया और अभी भी कर रहे हैं। वे संसार से पार जाने के लिए एकमात्र सन्तों के चरणों की आशा रखने कहते हैं; उनकी वाणी में है—
सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी । गही सन्त पद आशा सारी ।।
बुढ़ापे की अवस्था में आप लोक-हितार्थ अमृतमयी वाणी से उपदेश करते रहते हैं। सन्तों के लक्षण शास्त्रों में बताये गये हैं, हम पढ़ते हैं। उन लक्षणों के आधार पर सन्त की खोज करने पर नहीं मिल पाते। गुरु महाराज को छोड़कर मुझे कोई सन्त नजर नहीं आये। आपलोग बहुत जगह घूमे होंगे। ऐसे सन्त संसार में कितने हैं! सुना जाता है कि भारत में 80 लाख साधु हैं। अगर 80 भी सच्चे साधु होते तो देश और संसार की ऐसी दयनीय दशा नहीं होती।
श्री सद्गुरु महाराज ने समाज के पद-दलित लोगों को ऊपर उठाया है। यहाँ तक कि मोरंग (नेपाल) में जाकर सत्संग का प्रचार किया है, जहाँ के लोगों को वस्त्र पहनने का भी ज्ञान नहीं था, जहाँ के लोग शौचादि करने के बाद पानी लेना भी नहीं जानते थे। जिन सर्वसाधारण लोगों का समाज में आदर नहीं था, जिनको कोई पूछनेवाला नहीं था, जिनके साथ पशु का-सा व्यवहार किया जाता था, आपने ऐसे गिरे हुओं को सद्ज्ञान दिया, आत्मज्ञान दिया।
आपने अपने जीवन में जो-जो इच्छा की, सब पूरी हुई। जिस समय अ0भा0 संतमत-सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन शुरू किया गया था, उस समय मात्र पचास आदमी जुटे थे। आज तो वार्षिक महाधिवेशन में इक्यावन हजार क्या, लाखों की भीड़ रहती है। लाखों लोग आध्यात्मिक ज्ञान-गंगा में अवगाहन करते हैं। इतने बड़े ‘सत्संग-हॉल’ का निर्माण किया गया है, सत्संग करने के लिये ही तो। यह सब श्री सद्गुरु महाराज की महान् कृपा है। गुरुदेव ने हमलोगों को जगा दिया है; हम सब युग-युगान्तर से इस संसार में भटक रहे थे; लेकिन आपने दया करके ईश्वर-भक्ति का भेद—रहस्य बताकर हमारे भाग्य को जगा दिया है—
युग युगान चहु खानि में भ्रमि भ्रमि दुख भूरी ।
पाएउँ पुनि अजहूँ नहीं, रहुँ इन्ह तें दूरी ।।
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गुरु दयाल दया करी, दिये भेद बताई ।
महा अभागी जीव के दिये भाग जगाई ।।
इसीलिये तो कबीर साहब ने कहा है—
जग में गुरु समान नहीं दाता ।
वे हमें ‘वस्तु अगोचर’ की प्राप्ति करा देते हैं। परमात्मा स्थूल आँखों से नहीं देखा जाता; लेकिन गुरु-युक्ति से साधना करके उसे भी पा लेते हैं।
वस्तु अगोचर दई सतगुरु ने, भली बताई बाता ।
शब्द पुकार पुकार कहत हैं कर ले सन्तन साथा ।
सुमिरन बन्दगी कर साहेब की काल नवावै माथा ।।
साहब की सुमिरन-बंदगी करने से काल माथा नवावेगा, इसीलिये परमात्म-भक्ति करने के लिये तुरत तैयार हो जाना चाहिये। इसे कल के लिए नहीं छोड़ो; क्योंकि इस जीवन का ठिकाना नहीं। शरीर छोड़ने पर अगर चौरासी लाख योनियों के चक्कर में पड़ जाओगे, तो यह सत्संग और ऐसे सद्गुरु कहाँ मिलेंगे। इसीलिए—
काल्ह करे सो हालहिं कर ले, फिर न मिले यह साथा ।
काम क्रोध को वश करि राखे, लोभ को लीन्हा नाथा ।।
हमलोगों पर कभी-कभी श्रीसद्गुरु महाराज क्रोध भी करते हैं। एक आदमी ने आपसे निवेदन किया कि महाराज! आप तो साधु हैं, आपको क्रोध नहीं करना चाहिये। आप क्यों क्रोध करते हैं? श्रीसद्गुरु महाराज ने कहने की कृपा की, “हाँ, मुझे भी क्रोध आता है। क्रोध की जब जरूरत पड़ती है तो उसे बुला लेता हूँ और काम हो जाने के बाद उसे पुनः भगा देता हूँ।” हमलोग काम-क्रोध आदि विकारों के वश रहते हैं; लेकिन गुरु महाराज इन विकारों को अपने वश में किये रहते हैं। नाथा हुआ बैल काबू में रहता है, अपनी इच्छा से वह जहाँ-तहाँ भाग नहीं सकता। भागने की कोशिश करेगा तो रस्सी खींच ली जायगी। जो काम-क्रोधादि विकारों के शिकार बने रहते हैं, उनके लिए कबीर साहब कहते हैं—
चौरासी में जाय पड़ोगे, भुगतो दिन अरु राता ।
अब कहते हैं—
कहै कबीर सुनो हो धर्मन, मानो वचन हमारा ।
परदा खोलि मिलो सद्गुरु से, आओ देश दयारा ।।
वे सद्गुरु कैसे होते हैं?
विरति पंथ महँ बढ़े सदाई ।
सत्संग सों करै प्रीति महाई ।।
तोहि बोधि दृढ़ ज्ञान बताई ।
सब संशय तव देइ छोड़ाई ।।
ताको मानो गुरु सप्रीति ।
सेवो ताहि सन्त की नीती ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
संतों के जो लक्षण शास्त्रों व सन्तवाणियों में मिलते हैं, वैसे आज श्रीसद्गुरु महाराज में प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। अब तो वे मस्ती में हैं—
भया जी हरि रस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
(सहजोबाई)
उन्होंने अपने सब भार डाल दिये हैं। उनके लिए अब न कोई शत्रु, न मित्र, न किसी के आये हर्ष और न किसी के गये विषाद।
आये को हर्ष नहिं, गये हू को शोक नहीं,
कैसे निर्द्वन्द्व भई, समझ की बात है ।
देह नेह नेरे नहिँ, लक्ष्मी को हेरे नहीं,
मन कहुँ फेरे नहिँ, पाहन सो गात है ।।
लोगन सों रीत नहिँ, काहु सों प्रीत नहीं,
हार नहिँ जीत नहिँ, वर्ण है न जाति है ।
ऐसो जब होवै तब, मेरो गति जानो तब,
ज्ञानी कहत ज्ञान सू, सिद्ध निर्द्वन्द्व है ।।
(सन्त सुन्दर दासजी)
श्री रघुनाथ दासजी ने भी सन्त के लक्षणों का बड़ा अच्छा वर्णन किया है—
कोइ-कोइ संत लहत है याको । लक्षण सुनौ बतावौं ताको ।।
प्रेम विवश तनु की सुधि भूली । गदगद कंठ रोम रहै फूली ।।
कहुँ उठि चलत बैठि कहुँ जाई । कहुँ नाचत करताल बजाई ।।
बोलत वचन औरे को औरा । समुझि परत मानहुँ मति बौरा ।।
जर्द बरन तनु चढ़त न मासू । नहिं लागत जेहि छुधा पिपासू ।।
बूझि परत नहिं पर्वत गाऊँ । को हम कहाँ जात केहि ठाऊँ ।।
समचित शत्रु-मित्र नर-नारी । समचित पुत्र पिता महतारी ।।
हौं तू बंध गई सब खोई । त्याग अत्याग तहाँ नहिं कोई ।।
दोष अदोष मिटी भ्रम काई । निज स्वरूप सुख रहे समाई ।।
मन चित अहंकार नहिं जावै । बुधि पहुँचत पहुँचत नशि जावै ।।
जैसे पुतली लोन की, दधि थाहत गलि जाय ।
त्यों आतम के खोजते, सुधि बुधि जात हेराय ।।
ज्यों सूरज के तेज ते, देखि परत रवि जात ।
त्यों आतम के तेज ते, आतम रूप लखात ।।
ऐसे मत जाको मिलो, सो नर जीवन मोष ।
ज्यों चाहे त्योंहि रहे, तिन्हें न दोष अदोष ।।
नमक की पुतली को समुद्र में रख दीजिये कि वह थाहकर आवेगी। क्या वह ऐसा कर सकेगी? वह स्वयं गलकर समुद्र में मिल जायगी। इसी तरह परमात्मा को पा लेने पर स्वयं परमात्मा हो जाते हैं।
गुरुदेव भी आत्म-मस्ती में पड़े हैं। उनके लिए तो दिन कहाँ और रात कहाँ, दुःख कहाँ और सुख कहाँ! यह सब तो संतों की महिमा है। ऐसे गुरु महाराज को पाकर हमलोग उनकी शरण में रहें। उनके बताये हुए मार्ग पर चलें। उन्होंने कहा है—
सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिये ।।
दवाई खूब खायें और परहेज नहीं करे, तो रोग बढ़ेगा। अध्यात्म में परहेज है—झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचकर रहना।
जबतक हृदय को शुद्ध नहीं कीजियेगा, अपने व्यवहार को शुद्ध नहीं कीजियेगा, तबतक साधन-भजन बड़ा कठिन है। साधन-भजन करते-करते मन शुद्ध होगा।
इसलिये सभी भाइयों, माताओं एवं बहनों से प्रार्थना है कि जो कुछ आपलोग जाने हैं, उसे बराबर करने की कोशिश करें और अपने मानव-जीवन को सुधारें।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय!


धन्य धन्य सतगुरु सुखद, महिमा कही न जाय ।
जो कुछ कहुँ तुम्हरी कृपा, मोतें कछु न बसाय ।।
आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
आज हमलोगों का अहोभाग्य है कि जहाँ-तहाँ से सब लोग आकर सत्संग में बैठ गये हैं। मैं आपलोगों के सामने आपलोगों की सेवा करने लायक नहीं हूँ, फिर भी श्रीसद्गुरु महाराज से जो कुछ सीखा है, उसी से आपलोगों की सेवा करूँगा।
लोग ऐसा कहते हैं कि सुनने से क्या होगा? लोगों की विचारना चाहिये कि हमलोगों ने अभी तक जो कुछ सीखा है, जाना है; वह कैसे? सोचने पर मालूम होता है कि जबसे हमलोग माता के गर्भ से निकले हैं, तबसे हमें सिखाया गया है, सुनाया गया है। अगर कोई बात हमें न सुनायी जाती, न सिखायी जाती, तो हम मनुष्य रहते हुए भी पशु से बदतर रहते। इसीलिए सुनने की प्रक्रिया प्राचीन काल के हमारे ऋषियों, मुनियों, ब्रह्मर्षियों से लेकर अर्वाचीन काल के साधु-सन्तों में अव्याहत रूप से चली आ रही है।
यहाँ तक कि गर्भस्थ शिशु को भी सुनाया जाता है। माता-पिता जो शब्द उच्चारित करते हैं, वे गर्भ के बच्चे सुनते हैं। हमारे यहाँ गर्भाधान संस्कार होता था। गर्भ धारण होने के समय से ही माताएँ संयत बरतती थीं। उनका भोजन सात्त्विक होता था। उन्हें धर्मशास्त्र की अच्छी-अच्छी बातें सुनाई जाती थीं, जिनका प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता था और उससे उसका संस्कार बनता था। इसलिए पहले के बच्चे बड़े संस्कारी होते थे।
माताएँ जो भोजन करती हैं, उसका रस बच्चे नाभी में लगी नाल के द्वारा प्राप्त करते हैं। बच्चे जब जन्म ले लेते हैं, तब माता-पिता उन्हें सिखाते हैं। माता-पिता जो भाषा बोलते हैं, बच्चे भी वही सुनकर सीख जाते हैं और बोलने लगते हैं। इसलिए इसका नाम मातृभाषा है। मातृभाषा अर्थात् माता की भाषा। माता जो भाषा बोलती हैं, वही भाषा बच्चा सीखता है।
अगर बच्चे को गालियाँ सिखायी जाएँ, अपशब्द सिखाये जायँ, तो वैसा ही संस्कार उसपर पड़ेगा, जिससे वह संस्कार-हीन हो जायगा। आधुनिक काल के बच्चों में उद्दंडता क्यों नजर आती है? इसका एकमात्र कारण है, अच्छी शिक्षा का अभाव। जैसी शिक्षा दी जायगी, वैसा ही संस्कार बनेगा।
आज भी विद्यालयों, महाविद्यालयों में अध्यापक-प्राध्यापक छात्रों को सुनाते ही हैं; छात्र सुनकर ज्ञान प्राप्त करते हैं। एक शब्द भी कोई बिना सुने-सिखाये नहीं सीख सकता। आप रानी मदालसा को जानते होंगे। उसके सात पुत्र हुए; पुत्रों को उसने स्वयं शिक्षा दी थी। वह प्रतिदिन अपने पुत्र को सिखाया करती थी—
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसार माया परिवर्जितोऽसि ।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्राम्, मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ।।
अर्थात्, वत्स! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निरंजन है, तू मायारहित है। यह संसार स्वप्नवत् है। इसलिए मोह-निद्रा का त्याग कर।
इस प्रकार पुत्र को कुछ बड़ा होते ही घर-द्वार त्यागकर संन्यासी होते देखकर राजा बड़े परेशान हुए। उसने अपनी पत्नी मदालसा से कहा कि तू क्या सिखलाती है, जिससे बच्चे घर-द्वार छोड़कर जंगल की ओर चले जाते हैं! इस प्रकार सभी बच्चे विरक्त हो जाएँगे, तो राजपाट कौन चलाएगा? मदालसा ने कहा कि अच्छा, अन्तिम पुत्र को सांसारिक विद्या ही सिखलाऊँगी। उसने सबसे छोटे पुत्र को सांसारिक विद्या सिखायी। सयाना होने पर वह राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। जब माता मरने लगी तो उसने उस राजा पुत्र को बुलाया और वही मंत्र “शुद्धोऽसि ------------त्यज मोह निद्राम्” लिखकर उसकी बाँह में बाँध दिया और कहा कि देखो बेटे! जब तुमपर विपत्ति आवे, तो यह मंत्र खोलकर पढ़ना, तब तुम्हारी विपत्ति टल जायगी।
कुछ दिनों के बाद एक पड़ोसी राजा ने उसके राज्य पर चढ़ाई कर दी, उसके राज्य को चारो तरफ से घेर लिया। इसकी सूचना मंत्री द्वारा राजा को मिली। राजा ने सोचा कि माता ने मुझे विपत्ति आने पर इस मंत्र को पढ़ने कहा था, इसलिए खोलकर पढ़ना चाहिये। उसने खोलकर पढ़ा और मंत्री से कहा कि बुलाओ पड़ोसी राजा को। जिस राज्य के वास्ते वह खून-खराबी करने को तैयार है, उसे मैं सहज ही दे देता हूँ। सचमुच उसने अपनी राजसी पोशाक उतार कर रख दी, राज्य का भार उस पड़ोसी राजा पर सौंप दिया और भगवद्-भक्ति के लिये जंगल की राह ली। तो इस प्रकार मदालसा अगर अपने पुत्रों को ज्ञान नहीं सिखाती, तो कोई भी पुत्र विरक्त नहीं होता और न आत्मज्ञानी होता।
इसलिए सुनना अवश्य चाहिये। बिना सुने कुछ भी ज्ञान नहीं होता; और सुनना उसी से चाहिये, जो उत्तम विषय का ज्ञान रखता हो, उस विषय में वह दक्ष हो। संसार में ज्ञान के समान पवित्र कुछ नहीं है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है—
इस विश्व में शुचि ज्ञान सम कुछ है नहीं यह है सही ।
यह ज्ञान कैसे होता है, तो कहते हैं—
हो योगयुक्त होता जिनसे ज्ञान स्वयं आप ही ।
जो योगयुक्त होता है, अपने मन को एकाग्र करता है, उसे ज्ञान अपने आप हो जाता है। हमारे अन्दर जो चेतन है, वह ज्ञानस्वरूप है। उसी के सहारे ज्ञान होता है। चेतन सत् है, हमारा शरीर नाशवान् है। शरीर को क्षेत्र कहा गया है और इस शरीर को जाननेवाले को क्षेत्रज्ञ अथवा आत्मा। यह सद्ज्ञान है।
इस देह को क्षेत्र कहते हैं धनंजय जान लो ।
जो जानता है इस देह को क्षेत्रज्ञ उसको मान लो ।।
क्षेत्रज्ञ क्षेत्रों में मुझे जानो यही सद्ज्ञान है ।
है ज्ञान मेरा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भी ज्ञान है ।।
वह ज्ञान बिना गुरु के नहीं होता है। इसीलिए तो गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है—
गुरु बिनु होहिं कि ज्ञान, ज्ञान कि होहिं विराग बिनु ।
गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु ।।
रात-दिन रामायण, गीता, महाभारत आदि धर्मशास्त्र पढ़े जाते हैं; यहाँ तक कि कंठस्थ भी कर लिये जाते हैं, तो क्या मात्र रट लेने से ज्ञान हो जायगा? संसार का कोई भी ज्ञान बिना गुरु के नहीं हो सकता। आज तो विज्ञान इतना बढ़ा है, वह कहाँ से आया है? अपने आप हो गया है क्या? किसी वृक्ष में विज्ञान फलता नहीं, जो गिर जाता है आप पा जाते हैं। क्या पृथ्वी के अन्दर विज्ञान है, जिसे खोदकर निकाला जाता है? अरे, विज्ञानस्वरूप तो आप स्वयं हैं। आपके मस्तिष्क के अन्दर विज्ञान भरा हुआ है। इसी से विज्ञान निकलता है। लेकिन कैसे निकलता है? बिना गुरु के यह ज्ञान नहीं निकलता है। जो जिस विषय के जानकार हैं, उनका संग करने से ज्ञान होता है। ज्ञान जानने से मनुष्य महान हो जाता है। ज्ञान नहीं हो, तो मनुष्य पशु से भी बदतर है। उत्तर गीता में है—
आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिाकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः ।।
अर्थात् आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन—ये सब विषय पशु और मनुष्य में एक समान ही हैं यानी कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञान-लाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है। सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानहीन मनुष्य पशु-तुल्य है।
आपका लड़का-बच्चा पढ़ता-लिखता नहीं है, अच्छे ढंग से बोलना-चालना नहीं जानता है, तो आप तुरत कह देते कि यह गदहा है, पशु है। मनुष्य का बच्चा होते हुए भी उसे पशु की संज्ञा क्यों देते हैं? इसलिए कि उसका व्यवहार पशु-जैसा है, उसे ज्ञान नहीं है। तो, इसलिए सर्वप्रथम मनुष्य को ज्ञान चाहिये। ज्ञान पहले हमको होता है, तब मुँह में आता है, तब कलम, कागज-किताब में। वेदों, उपनिषदों आदि का ज्ञान पहले ऋषियों के मस्तिष्क में आया, तब ग्रन्थ में।
इस प्रकार उस सर्वेश्वर का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए सत्संग चाहिये, सन्त-महात्माओं, गुरु का संग चाहिये। इसीलिए तो वेद में आया कि जगत्प्रसवकर्त्ता ईश्वर का तत्त्व ज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले बुद्धियोग अर्थात् सत्संग चाहिये।
इस प्रकार सन्तों का संग करके उनके द्वारा बतायी विधियों— मानस जाप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और नादानुसंधान की क्रिया से अन्तस्साधना करके अपना परम कल्याण करना चाहिये।


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परम आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो! संत कबीर साहब ने कहा है—
कथा कीरतन करन की, जाके निशदिन रीत ।
कहै कबीर ता दास से, निश्चय कीजै प्रीत ।।
कथा कीरतन छाड़ि के, करे जो और उपाय ।
कहै कबीर ता दास के, पास कोइ मत जाय ।।
आपलोगों का सत्संग-प्रेम देखकर मुझे बड़ी खुशी होती है। आपलोग निम्न जाति-कुल के हैं, पढ़े-लिखे भी अधिक नहीं हैं, साधारण वेश-भूषा में हैं; माताएँ भी साधारण वर्ग की हैं; पर सब सत्संग में शान्त भाव से बैठे हुए हैं। हालाँकि आपमें से बहुतों को सत्संग की बहुत बातें समझ में नहीं आयी होंगी, फिर भी आप सबको सत्संग में आकर सन्त-वचनों को सुनने का शौक है। इस हेतु आप घर-द्वार छोड़कर आये हैं। यह देखकर मैं सोचता हूँ कि यह तो श्रीसद्गुरु महाराज की महान् कृपा का फल है, जो निम्नवर्गीय लोग की आध्यात्मिकता की ओर झुक रहे हैं। अभी आपने रामचरितमानस का पाठ सुना—
श्री गुरु पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
अर्थात् गुरु महाराज के चरण-नख में मणियों की ज्योति है, जिसका स्मरण करने से हृदय में दिव्य दृष्टि खुल जाती है।
यह तो चौपाई की अर्द्धाली का सरल अर्थ है। आज रामचरितमानस की अनेक टीकाएँ हुई हैं; लेकिन इस चौपाई की अर्द्धाली की ठीक- ठीक व्याख्या किसी ने नहीं की। श्रीसद्गुरु महाराज द्वारा की गई टीका पठनीय है। इसके पढ़ने से रामचरितमानस का भेद खुल जाता है। यह तो विलक्षण और अद्वितीय टीका है। गुरु का चरण-नख गुरु का रूप है। अपने अन्दर में मनोमय रूप बनाकर उसपर मन को टिकाये रखने से गुरु-रूप का स्मरण होता है। पुनः उस रूप में गुरु-युक्ति द्वारा दृष्टि की धारों को एक केन्द्र पर केन्द्रित करने से मणियों की ज्योति प्रत्यक्ष झलकती है। इसलिए मानस-ध्यान और दृष्टियोग के साधन से चौपाई में वर्णित सुमिरण होता है। इसी सुमिरण के बारे में कबीर साहब ने कहा है; यथा—
सुमिरन सुरत लगाइ कर, मुख तें कछू न बोल ।
बाहर का पट देइ कर, अन्तर का पट खोल ।।
श्री शिवनारायण स्वामी के वचन में आया है—
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो ।
अर्थात् गुरु की मूर्ति को अपने अन्दर सूरति बीच देखना है। यह सूरति बीच निरखना क्या है? जब हम आँखें बन्द करते हैं, तो प्रत्यक्ष ही हमारे सामने अन्धकार दिखाई पड़ता है। इस अन्धकार का दायरा इतना बड़ा है कि कहा नहीं जा सकता। यही अन्धकार हमारी सूरति अर्थात् सूरत (शक्ल) है। इसी अन्धकार के बीच हमें देखना है। गुरु-युक्ति से देखना होगा, तब क्या होगा—“तब उर होत इंजोर।” अपने अन्दर प्रकाश हो जायगा।
निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो, तब उर होत इंजोर ।।
एक स्थल पर और कहते हैं—
मिलै गंगा सहित यमुना सुषमना की ओर ।
उलटि नैन निहारो भीतर क्रोटिन होत इंजोर ।।
इतना ही नहीं, और कहते हैं कि परमात्मा शून्य में विराजमान है। वह सभी प्रकार के आनन्दों में निमग्न है; लेकिन वह ‘चितवत नैन के कोर’ अर्थात् ‘नयन के कोर’ से देखा जाता है।
सुन्न आसन आपु साईं बसन रंग रस भोर ।
शिवनारायण कहि समुझावल चितवत नैन के कोर ।।
‘नैन के कोर’ क्या है। ‘नैन के कोर’ विन्दु है। दृष्टियोग क्रिया द्वारा एकविन्दुता प्राप्त करे और शब्द-साधना के द्वारा ‘निःशब्दं परमं पदम्’ (परमात्मा-पद) प्राप्त किया जा सकता है।
संत दादू दयालजी महाराज आँखें बन्द करके अन्धकार में देखने के लिए कहते हैं। इस तरह अपने निराधार अर्थात् दृष्टि-विन्दु को देखकर मन परमात्मा के उस अणोरणीयाम् रूप या छोटे-से-छोटे उस ज्योतिर्मय विन्दु-रूप परमात्म-विभूति के साथ खेलेगा और सदा आनन्दित होगा। सूक्ष्म मंडल प्रकाश-पुंज से भरा हुआ है और झिलमिल-झिलमिल होता है।
निराधार निज देखिये, नैनहु लागा बन्द ।
तहँ मन खेलै पीव सौं, दादू सदा अनन्द ।।
नैनहु आगे देखिये, आतम अन्दर सोइ ।
तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ ।।
सन्त दरिया साहब की वाणी में भी हम पाते हैं—
याफ्रत तदबीर है दिल के बीच में,
कुदरत मस्जीद बनाय दीता ।
दोय बीच जो लाल अजब लागे,
तहाँ जोति का नूर प्रगऋ कीता ।।
सन्त सुन्दरदासजी महाराज भी इसी का अनुमोदन करते हैं; यथा—
है दिल में दिलदार सही अँखिया उलटी करि ताहि चितैये ।
संत कबीर साहब कहते हैं कि आँखों के बीच में ईश्वर का दूत है अर्थात् भक्तियोग के साधक को दृष्टियोग के अभ्यास में ब्रह्मज्योति-रूप ईश्वर का दूत—नबी मिलता है, जो ईश्वर का पैगाम लाता है तथा जिसके मिल जाने पर परमात्मा मिल जाता है। आँखों के बीच में पाँखी—पक्षी—उड़नेवाली चीज अर्थात् ज्योति चमकती है और उस ज्योति के बीच में दशम द्वार है। उस द्वार में दृष्टियोग करने से संसार-सागर से पार हो जाता है—
मुरशिद नैनों बीच नबी है ।
स्याह सफेद तिलों बिच तारा, अविगत अलख रबी है ।।
आँखी मद्धे पाँखी चमकै, पाँखी मद्धे द्वारा ।
तेहि द्वारे दूरबीन लगावै, उतरे भवजल पारा ।।
सन्त कबीर साहब तथा श्रीसद्गुरु महाराज की वाणी में एक मेल है—
योग हृदय केन्द्र विन्दु में युग दृष्टियों को जोड़िकर ।
मन मानसों को मोड़ि सब आशा निराशा छोड़िकर ।।
ब्रह्मज्योति ब्रह्मध्वनि धार धरि आवरण सारे तोड़िकर ।
सूरत चला प्रभु मिलन को विषयों से मुख को मोड़िकर ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
श्रीसद्गुरु महाराज की एक दूसरी वाणी में हम पाते हैं कि सुरत को अन्तराकाश में स्थिर करके गुरु का सुमिरण करने से उजाला हो जायगा, तब अन्धकार मिट जायगा, अज्ञानता चली जायगी।
साँझ भये गुरु सुमिरो भाई, सुरत अधर ठहराई ।
गुरु हो सुरत अधर ठहराई ।।
सुखमन सुरत लगाइ के सुमिरो, मुख तें रहहु चुपाई ।
बाहर के पट बन्द करो हो, अन्तर पट खोलो भाई ।।
सूर चन्द घर एके लावो, सन्मुख दृष्टि जमाई ।
ब्रह्मज्योति को करो उजेरो, अंधकार मिटि जाई ।।
प्रभु ईसा मसीह की भी वाणी में हम पाते हैं—
“शरीर का दीपक आँख है। इसलिए यदि तेरी आँख एक हो तो तेरा सब शरीर उजियाला होगा।”
संत कबीर साहब भी अपने शरीर में दीपक जलाने तथा ब्रह्म-अग्नि प्रगट करने तथा उसपर अपने को कुर्बान करने का आदेश देते हैं—
अपने घट दियना बारु रे ।।
नाम का तेल सुरत कै बाती, ब्रह्म अगिन उद्गारु रे ।
जगमग जोत निहारु मंदिर में, तन मन धन सब वारु रे ।।
जब अपने अन्दर ब्रह्मजोति प्रकट हो जायगी, तो मोह दूर हो जायगा।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।
(गो0 तुलसीदासजी)
श्री गुरुपद-नख के सुमिरण से हृदय के दोनों निर्मल नेत्र (अन्तर में ब्रह्म-ज्योति देखनेवाली तुरीयावस्था की दृष्टि और विवेक की दृष्टि अर्थात् बुद्धि में सारासार बोध की शक्ति यानी विद्या—हृदय के ये दो निर्मल नेत्र हैं) खुल जाते हैं और संसार-रूपी रात्रि के सब दोष-दुःख मिट जाते हैं—
उघरहिं विमल विलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।।
तब— सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।
रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में कागभुशुण्डि तथा गरुड़ के संवाद में बताया गया है कि रामप्रताप-रूपी सूर्य का उदय (अन्तराकाश में) हो जाने से ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, विराग और विवेक बढ़ते हैं और अज्ञान, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, स्वभाव के दोष, मत्सर, मान, मोह और मद—ये नष्ट हो जाते हैं—
जब तें राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहु लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका ।।
जिन्हहिं सोक ते कहहुँ बखानी ।
प्रथम अविद्या निसा नसानी ।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।।
विविध कर्म गुण काल सुभाऊ ।
ये चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कबनिउ ओरा ।।
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना ।
ये पंकज बिकसे बिधि नाना ।।
सुख संतोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ये कोक अनेका ।।
यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास ।
पिछले बाढ़हिँ प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।
रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में ही काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि हे गरुड़जी! रामभक्ति-रूपी चिन्तामणि जिसके हृदय में बसती है, उसका हृदय बिना दीप, घी और बत्ती के परम प्रकाशित हो जाता है। अज्ञानता-रूपी दरिद्रता उस भक्ति-चिन्तामणि-प्राप्त भक्त के पास नहीं आती है और लोभरूपी हवा उस मणि के प्रकाश को नहीं बुझाती है। अविद्या का कठिन अन्धकार उस मणि के प्रकाश से मिट जाता है और मद आदिक फतिंगे हार जाते हैं, उसे बुझा नहीं पाते। जिसके हृदय में भक्ति बसती है, उसके पास काम, क्रोध आदि दुष्ट नहीं फटकने पाते। इतना ही नहीं, उसके प्रभाव से विष अमृत और शत्रु मित्र हो जाते हैं, उसके बिना कोई सुख नहीं पाता है। भक्तिवन्त को मानस रोग नहीं होते, जिनके वश में सभी जीव दुःखी हैं।
राम भगति चिन्तामनि सुन्दर । बसइ गरुड़ जाके उर अन्तर ।।
परम प्रकास रूप दिन राती । नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती ।।
मोह दरिद्र निकट नहीं आवा । लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ।।
प्रबल अविद्या तम मिटि जाई । हारहिं सकल सलभ समुदाई ।।
खल कामादि निकट नहिँ जाहीँ । बसइ भगति जाके उर माहीँ ।।
गरल सुध सम अरि हित होई । तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ।।
व्यापहिं मानस रोग न भारी । जिन्हके बस सब जीव दुखारी ।।
संत पलटू साहब पते की बात बतलाते हैं कि मैं उस देश की बात कहता हूँ, जहाँ आसमान के बीच में एक सुराख है अर्थात् अन्तराकाश में एक छिद्र है, जहाँ बादशाह (परमात्मा) बैठे हैं और वे सबों को बिना आँख के ही देखते हैं। उनका चेहरा लाल वर्ण का है, जिसके तेज लाखों सूर्य निछावर हैं अर्थात् करोड़ों सूर्यों का प्रकाश भी उस परमात्मीय प्रकाश के सामने गौण है। वहीं से हूहू आवाज आ रही है, जिसमें मेरा दिल मुस्ताक है—
उस देश की बात मैं कहता हूँ, आसमान के बीच सुलाख है जी ।
बादशाह उसी के बीच बैठा, सूझि परै बिनु आँख है जी ।।
सुरख तो उसका चिहरा है, आफताब तसद्दुक लाख है जी ।
पलटू वहँ हूहू आवाज आवै, उसमें मेरा दिल मुस्ताक है जी ।।
एक स्थल पर और कहते हैं—
चढ़े गगन अकास गरजे द्वार दशम निकासनं ।
बिन्द में तहँ नाद बोलै रैन दिवस सुहावनं ।।
संत तुलसी साहब कहते हैं—
अजब अनार दो बहिश्त के द्वार पै,
लखै दुरवेश कोइ फकीर प्यारा ।
ऐनि के अधर दो चश्म के बीच में,
खसम को खोज जहाँ झलक तारा ।।
उसी बीच फक्त खुद खुदा का तख्त है,
शिस्त से देख जहाँ भिस्त सारा ।
तुलसी सतमत मुरशिद के हाथ है,
मुरीद दिल रूह दोजख न्यारा ।।
इस प्रकार अपने अंदर प्रकाश है और शब्द भी। ये परमात्मा की विभूतियाँ हैं। इनकी पहचान दृष्टि-साधन और सुरत-शब्दयोग की क्रिया के बिना दुर्लभ है। इनकी सद्युक्ति संत सद्गुरु से ही प्राप्त हो सकती है।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय!


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परम आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
हमलोगों का अहोभाग्य है कि श्रीसद्गुरु महाराज की महान् दया से सत्संग में आकर सन्तों के वचनों को सुनते हैं। गो0 तुलसीदास जी ने कहा है—
जीवन्मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिँ तजि ध्यान ।
जे हरि कथा न करहिँ रति, तिन्ह के हिय पाखान ।।
अर्थात्, ब्रह्मपद से आगे तक पहुँचे हुए, जीते-जी मोक्ष प्राप्त किये हुए (महापुरुष सन्त) भी समाधि छोड़कर चरित्रों (सत्संग के वचनों) को सुनते हैं। जो हरि-कथा में प्रेम नहीं करते, उनका हृदय पत्थर है।
इसीलिए जितने ऋषि-मुनि, सन्त आज तक पृथ्वी पर हुए, सबों का यही निर्णय है कि सत्संग से बढ़कर सार चीज संसार में कुछ भी नहीं है। ‘सत्संग’ शब्द सत् और संग के योग से बना है। इसका साधारण अर्थ भी है और विशेष अर्थ भी। विशेष अर्थ का सत्संग करना बड़ी मुश्किल है। हमलोग प्रत्यक्ष देखते हैं कि शरीर और संसार क्षणभंगुर है। यह ऐसा है कि आखिर में इसका नामोनिशान भी नहीं रहता। इसलिए तो श्रीलक्ष्मणजी ने गुह निषाद से कहा था—
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं । मोह मूल परमारथ नाहीं ।।
जो देखे-सुने और मन में विचारे जाते हैं, उन सबका कारण अज्ञान ही है। ये परमार्थ अर्थात् तत्त्व वस्तु (पाने के कार्य—उपाय) नहीं हैं। हम इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण करते हैं, वह सत्य नहीं है। तब सत्य क्या है? सभी सन्त-महात्माओं, ऋषि-मुनियों, राम-कृष्ण आदि ने यही निर्णय किया है कि इस शरीर में जो सार तत्त्व है, वही ब्रह्म, ईश्वर, परमात्मा है। इसे अनेक नामों से अभिहित किया गया है। आत्मा कहें या परमात्मा, तत्त्वतः दोनों एक ही हैं। परमात्मा अनन्त है। सारे ससीम पदार्थों के पार में एक अनन्त तत्त्व मानना ही पड़ेगा। सारे सान्त पदार्थ उसी अनन्त के अन्दर हैं। हमारा शुद्ध आत्मस्वरूप अनन्त है। अनन्त के बाहर कुछ अवकाश नहीं है। इसलिए उसका कहीं से आना-जाना नहीं हो सकता। दो अनन्त नहीं हो सकते। अनन्त के बाद कुछ हो, संभव नहीं। उसी अनन्त के अन्दर सब पदार्थ बनते और बिगड़ते हैं। उसमें अपरिमित गुण हैं। उसमें अवकाश नहीं है। संपूर्ण आकाश के अवकाश का सौ करोड़ गुणा अवकाश अनन्त के सामने तुच्छ होगा। इसीलिए गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में “नभ सत कोटि अमित अवकासा” कहा है। जो इतना सूक्ष्म तत्त्व है, वह किसी पदार्थ में समाकर सीमित नहीं होगा, उसके बाहर क्या हो सकता है? कुछ नहीं। इसलिए वह सबमें है और उसका आदि-अन्त नहीं है। सबके अन्दर उसी का प्रकाश हो रहा है।
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।।
बाहर में जो प्रकाश है, उस प्रकाश का भी ज्ञान हमारे अन्दर के ही प्रकाश से होता है। अगर हमारे अन्दर प्रकाश नहीं होता, तो शहर में बहुत प्रकाश रहने पर भी उसे नहीं देख पाते। सन्त कबीर साहब ने कहा है—
आरति कीजै आतम पूजा । सत्य पुरुष की और न दूजा ।।
वह सत्यपुरुष कहाँ है? वह ज्ञान-प्रकाश क्या है? हमारे अन्दर जो ज्ञान है, वह कहाँ से आता है? सब हमारे मस्तिष्क से, ब्रह्माण्ड से आता है। वह सारा ज्ञान इसी मस्तिष्क, ब्रह्माण्ड, आज्ञाचक्र में मौजूद है। ज्ञान का दीप हमारे अन्दर प्रकाशित हो रहा है।
ज्ञान प्रकाश दीप उजियारा । घट घट देखो प्राण पियारा ।।
उसी का प्रकाश हमारी दोनों आँखों में हो रहा है। अगर हमारी आँखों में प्रकाश नहीं होता तो हम बाहर की किसी वस्तु को देख नहीं पाते। विचार से सिद्ध होता है कि हमारे अन्दर सारे ज्ञान का भंडार मौजूद है। गुरु नानक देवजी ने भी कहा है—
इस गुफा महि अखुट भंडारा ।
तिसु बिचि बसै हरि अलख अपारा ।।
आपे गुपुत परगट हैं आपे गुर सबदि आप वोवणिआ ।
वह परमात्मा अपने आप तो गुप्त है, पर उसी की धार सबके शरीरों में है। इसलिये वह प्रकट भी है। उसी धार के कारण बोध होता है कि “मैं हूँ।” इसी को शंकराचार्य जी ने स्वतःप्रमाण कहा है कि मैं स्वयं हूँ। इसमें प्रमाण क्या? ईश्वर तो परतः प्रमाण है। दूसरे उसे प्रमाण द्वारा सिद्ध करते हैं; परन्तु अपने आपको सिद्ध करना क्या? हम तो हैं ही। पहले ‘हम हैं’, इसका ज्ञान हो गया, तो ईश्वर का ज्ञान या परिचय स्वभावतः हो जायगा।
पहले हम, तब शरीर और संसार। संसार को देखकर संसार के रचयिता का बोध होता है। सन्त कबीर साहब ने कहा है—
पहले जनम पुत्र का भयऊ, पिता जनमिया पाछे ।।
सुनने में बड़ी विचित्र बात लगती है; परन्तु विचारने पर ठीक जँचती है। पहले पुत्र का जन्म होता है, तब ही कोई पिता कहा जाता है। पुत्र नहीं हो, तो कोई पिता की संज्ञा कैसे पाएगा? उसी प्रकार परमात्मा ने पहले जीव की रचना की, तब जीव ने परमात्मा को खोजा। अगर जीव नहीं होता तो, ‘परमात्मा’ की संज्ञा कौन देता?
अपने आप को खोजना है, अपने आपको पहचानना है। जबतक अपने आपको नहीं खोजेंगे, भ्रम की काई नहीं मिटेगी।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।
(गुरु नानकदेव)
सन्त दरिया साहब (बिहारी) ने भी कहा है—
जौं तुम निज आपन घर चहहू ।
आपु में आपु देखि मिलि रहहू ।।
आपना ध्यान तू आप करता नहीं,
आपना आपको आप पेखा ।।
आपही गगन में मगन है आपही,
आप ही त्रिकुटी भ्रमर पेखा ।।
आप ही शब्द निःशब्द है आपही,
आपही मोतिया सीप पेखा ।।
कहै दरिया दिल दरस आपे देखा,
परम प्रेम नहिं ज्ञान रेखा ।।
भगवान बुद्ध ने भी कहा है—
“मनुष्य अपना मालिक आप है। इसका मालिक और कौन हो सकता है? अपने का दमन कर लेने पर वह दुर्लभ मालिक को प्राप्त कर लेता है।”
हमारी या परमात्मा की स्थिति को कोई मिटा नहीं सकता।
दरगह तेरी साइयाँ मेटि न सक्के कोय ।
(सन्त कबीर साहब)
जिस तरह पुष्प में सुगंध है, तिल में तेल है, ईख में मिठास है, उसी प्रकार परमात्मा सर्वव्यापक है। इसी से वह हम में भी है। गुरु महाराज ने परमात्म-स्वरूप का वर्णन इस तरह किया है—
“जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर- सर्वाधार मानना चाहिये तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण पर, अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नामरूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मंडल एक महान् यंत्र की नाईं परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा परम अध्यात्म-स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।”
गुरु महाराज ने और भी कहा है—
शान्ति रूप सर्वेश्वर जानो । शब्दातीत कहि संत बखानो ।।
क्षर अक्षर के पार हैं येही । सगुण अगुण पर सकल सनेही ।।
अलख अगम अरु नाम अनामा । अनिर्वाच्य सब पर सुख धामा ।।
ये सब मन पर गुण इनके ही । पड़े महा दुःख संशय जेही ।।
यहि तुम्हरा निज प्रभु रे भाई । जहाँ तहाँ तव सदा सहाई ।।
उसी को कुछ लोग ‘नेचर’ कहते हैं। कहते हैं कि ‘नेचर’ से सब कुछ हो रहा है। आप चाहे ‘नेचर’ कहें या परमात्मा—दोनों एक ही बात है। कोई एक सत्ता अवश्य है, जिससे सब कुछ हो रहा है, इसे तो मानना ही पड़ेगा। उसी के बारे में कहा है—
पानी से पैदा किया, जिन गुरु रचा जहान ।
माता-पिता की शक्ति से कितना बड़ा शरीर बन जाता है, कैसी सुन्दर रचना होती है! छोटा-सा बीज है; लेकिन उससे कितना बड़ा वृक्ष हो जाता है! उस बीज में कितनी शक्ति है! वह शक्ति कहाँ से आती है?
उपनिषद् में एक कथा है। एक ऋषि-बालक ने अपने पिता से कहा कि मुझको ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें। ऋषि बड़े विस्मय में पड़ गये कि इतनी कम उम्र में इसे ब्रह्म-जिज्ञासा कैसे हो गयी! उन्होंने सोचा कि यह तो है छोटा; लेकिन है बड़ा संस्कारी, इसलिए इसे युक्ति से ब्रह्म-संबंधी ज्ञान बताना चाहिये। उन्होंने पुत्र से बरगद का एक फल लाने को कहा। बालक बरगद का एक फल ले आया। ऋषि ने कहा कि उस फल को तोड़ो और एक बीज निकालो। बालक ने वैसा ही किया। पुनः ऋषि ने उस बीज को चुटकी से मसल देने को कहा। बालक ने मसल दिया। ऋषि ने पूछा कि क्या है? बालक ने कहा—कुछ नहीं है। ऋषि ने कहा कि कुछ नहीं। कैसे? अरे, इसी छोटे-से बीज से तो विशाल वटवृक्ष उत्पन्न हो जाता है, और तुम कहते हो कि कुछ नहीं है। जिसे तुम कुछ नहीं करते हो, वही सब कुछ है और जो सब कुछ मालूम पड़ता है, वह कुछ नहीं है। परमात्मा ने अपने आप को स्वयं उत्पन्न किया है और कुछ नहीं रहते हुए भी विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की है।
तदि अपना आपु आप ही उपाया ।
ना किछु ते किछु करि दिखलाया ।।
(गुरु नानकदेव)
सिनेमा देखनेवाले प्रत्यक्ष देखते हैं कि वहाँ कुछ नहीं है; लेकिन लगता है कि सब कुछ हो रहा है। मैंने बचपन में एक बार ‘गोस्वामी तुलसी दास’ नामक सिनेमा देखा था। देखा कि वहाँ प्रत्यक्ष गंगा की धारा बह रही है। एक नाव है, नाव पर भगवान् श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी बैठे हैं, केवट नाव खे रहा है। ऐसा लगता था कि सब कुछ सचमुच ही हो रहा है, पर वहाँ न नदी थी, न नाव, न राम-सीता, लक्ष्मण और न नाविक। उसी प्रकार यह संसार सत्य भासित हो रहा है, लेकिन ‘मृग वारि सम सबहि प्रपंचन’ है। यह संसार भ्रम के समान किसे दीखता है? जिन्हें दिव्य दृष्टि खुल गई है, उन्हें ही यह संसार स्वप्नवत् दरसता है। हमलोगों को तो सत्य-सा लगता है। वाल्मीकि मुनि श्रीराम से कहते हैं—
जग पेखन तुम देखनिहारे ।
संसार दृश्य—तमाशा है और आप उसे देखनेवाले हैं।
उस परमात्मा को या अपने को देखने के लिए युक्ति चाहिये, योग्यता चाहिये। विचार से अपने को ब्रह्म मानने से ब्रह्म की शक्ति नहीं आ सकती। कोई कहे कि मैं डॉक्टर हूँ, पर उसमें योग्यता नहीं हो, तो वह यथार्थ डॉक्टर कैसे समझा जाएगा? ख्याली पुलाव पकाने से काम नहीं चलता। सन्त कबीर साहब ने बड़ा अच्छा कहा है—
बिनु देखे बिनु दरस-परस, बिनु नाम कहे जो कोई ।
धन धन कहे धनी जो होते, निर्धन रहत न कोई ।।
श्रीरघुनाथ दासजी ने कहा है—
ज्ञान भानु हरि भक्त चक्षु कर्म मुकुर ले हाथ ।
देख पड़े निज रूप तब कहत दास रघुनाथ ।।
बोलिये श्री सद्गुरु महाराज की जय!  


धन्य धन्य सतगुरु सुखद, महिमा कही न जाय ।
जो कुछ कहुँ तुम्हरी कृपा, मोतें कछु न बसाय ।।
प्रातःस्मरणीय अनन्त श्रीविभूषित परम पूज्य श्री सद्गुरु महाराज के युगल चरणकमलों में कोटि-कोटि प्रणाम!
आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं बहनो!
हमलोग श्रीसद्गुरु महाराज की महान् कृपा तथा सन्त-महात्माओं की असीम दया से यत्र-तत्र से इस अखिल भारतीय विशेषाधिवेशन में एकत्र हुए हैं। यहाँ आने में आपलोगों ने परेशानी उठायी है और पैसे खर्च किये हैं, सो किसलिये? इसलिये कि आनन्दस्वरूप परमाराध्यदेव श्रीसद्गुरु महाराज के दर्शन एवं उनकी अमृतमयी वाणियों का श्रवण करके अपने भाग्य को सराहेंगे; लेकिन यह हमारा अभाग्य है, हमारा हृदय इतना मलीन है कि अभी तक श्रीसद्गुरु महाराज के दर्शन नहीं हुए। सबकी आँखें लालायित हैं, उनके पथ की ओर लगी हैं कि कब आएँगे, कब दर्शन होंगे!
श्रीसद्गुरु महाराज की आज्ञा है कि हम सभी मिलकर सत्संग करें। अभी हमलोगों ने श्रीसद्गुरु महाराज रचित सन्त-वन्दना का पाठ किया है—
सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी ।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी ।।
ग्ग्ग्
भजत है ‘मेँहीँ’ धन्य धन्य कहि,
गही सन्त पद आशा सारी ।।
संसार में श्रीसद्गुरु महाराज प्रत्यक्ष परमात्मा हैं और सन्तों में शिरोमणि हैं। वैसे सन्त कबीर साहब ने कहा है—
संत संत सबही बड़े, अपनी अपनी ठौर ।
लेकिन—
शब्द विवेकी पारखी, सो माथे का मौर ।
ऐसे सन्त का स्वभाव बतलाते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने कहा है—
संत हंस गुन गहहि पय, परिहरि बारि बिकार ।
संत हंस की तरह होते हैं। हंस जल-दूध के मिश्रण में से दूध को ले लेता है और जल को छोड़ देता है। उसी तरह श्री सद्गुरु महाराज ने इस घोर कलिकाल में सारे वेदों, उपनिषदों और सन्त-वाणियों को कई बार पढ़कर, समझकर उनमें से सार निकालकर अपने साहित्य में छपवा दिया है और उसका ज्ञान हमलोगों को देते रहे हैं। उससे कोई विशेष बात हो, समझ में नहीं आती है।
आज अपने देश में अनेक धर्मों, अनेक सम्प्रदायों, अनेक पंथ-पंथाई भावों के बहाव में बहकर लोग अपने को श्रेष्ठ समझ रहे हैं। वे कहते हैं कि हमारा पंथ ऊँचा है, हमारा ज्ञान ऊँचा है, हमारे गुरु श्रेष्ठ हैं, हमारे गुरु की वाणी अच्छी है आदि-आदि। इस प्रकार अपने-अपने धर्म, पंथ, ज्ञान, गुरु को ही महान् समझते हैं। उचित यह है कि सन्तों की वाणियों में परमात्म-प्राप्ति का जो सीधा-सरल रास्ता है, उसपर चलने का प्रयत्न करें।
हमारा धर्म शुद्ध सनातन वैदिक धर्म है। हम सभी वैदिक धर्मावलम्बी हैं। अपने देश पर सैकड़ों वर्षों तक विदेशियों का शासन रहा। उन्होंने उस अवधि में वैदिक धर्म को मिटाने के लिए भरसक प्रयत्न किया; लेकिन सफल नहीं हो सके। गुरु नानक, सन्त कबीर, गोरखनाथ आदि सन्तों के अवतरण हुए, जिन्होंने वैदिक धर्म की रक्षा की, अपने ज्ञान की गंगा से उसे सींचते रहे, जिससे हमारा वैदिक धर्म आज भी जीता-जागता-सा दीखता है और हमारा पथ प्रदर्शित कर रहा है। परमाराध्य श्रीसद्गुरु महाराज ने एक दिन हमलोगों से कहने की कृपा की थी—
“आपलोग यदि हमारे ‘सत्संग-योग’ को नहीं पढ़ियेगा, नहीं समझिएगा, उसके मुताबिक नहीं चलियेगा, तो कुछ काल के लिए वैदिक सनातन धर्म लुप्त हो जायगा; लेकिन कभी-न-कभी फिर इस ज्ञान का उदय अवश्य होगा। किसी-न-किसी महापुरुष का अवतार होगा और तब सन्तों के मत का अर्थात् वैदिक धर्म का प्रचार होगा, लोग इस धर्म को अपनाएँगे।”
अभी आपलोगों ने ऋग्वेद का मंत्र सुना। उसमें आया है—एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।” अर्थात् वह एक ही है; लेकिन सद्विप्र उसे अनेक नामों से पुकारते हैं। यहूदी उसे जेहोवा, ईसाई गॉड या स्वर्गस्थ पिता, मुसलमान अल्लाह, बौद्ध बुद्ध, पारसी अहुरमज्द और वैदिक धर्मी ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं। वेदान्त की विलक्षणता यह है कि उसका प्रतिपाद्य ईश्वर सगुण भी है और निर्गुण भी और सगुण-निर्गुण के परे भी है। इसे सभी सम्प्रदायों के वा धर्मों के माननेवाले लोग भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं; लेकिन वेदान्त का ईश्वर मूलतः एक ही है, भले ही उसे अनेक नामों से पुकारें। श्री सद्गुरु महाराज की भी घोषणा है कि “सारे विश्व-ब्रह्माण्ड का एक ही मालिक है, दो नहीं; और उस मालिक तक पहुँचने का रास्ता भी एक ही है।”
वस्तुतः वह परमात्मा एक-ही-एक है, दूसरा कुछ नहीं है। उसी एक से अनेक नाम-रूप बने हैं तथा उन अनेक नाम-रूपों में भी वही एक है। उसी की सत्ता से सब कुछ सत्य-सा भासित हो रहा है।
जासु सत्यता तें जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ।।
वह अद्भुत स्वरूपी परमात्मा सबमें है, सब काम उसी के सहारे हो रहे हैं, सबमें उसी का प्रकाश है। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है—
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।।
राम परम प्रकाशक है, वह सबके अन्दर परम प्रकाश कर रहा है। सूर्य, चन्द्र, तारे, बिजली, दीपक आदि का प्रकाश परम प्रकाश नहीं है। यह सब तो बाहर का प्रकाश है। यह सब प्रकाश परमात्मीय प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है। परम प्रकाश हमारे अन्दर है, उसी की धार हमारी आँखों में है, जिसकी सहायता से बाहरी पदार्थों को देखते हैं। यदि एक करोड़ सूर्य उदित हो जायँ, तौभी क्या हम बिना आँख के कुछ देख पाएँगे? नहीं देख सकेंगे। वह प्रकाश देनेवाला राम है। वह राम अनादि है। उस राम का आदि-अन्त नहीं है कि वह कब से है और कबतक रहेगा। वही अनादि राम सबके अन्दर परम प्रकाश कर रहा है और यही ‘अवधपति’ है। वह किसी समय किसी कारणवश अवतरित होकर संसार के नाना कार्य संपादित करता है। भारत में चौबीस अवतार माने गये हैं, जिनमें दो मुख्य हैं—एक राम और दूसरे कृष्ण। भारत में राम-कृष्ण को ईश्वर कहते हैं। काली, दुर्गा, पार्वती, सीता, शिव, ब्रह्मा, विष्णु सब मनुष्य-शरीर में थे। हमलोग उन्हें अभी नहीं देखते हैं। भारत में उन सबों के अवतार हुए थे; लेकिन आज लोग उनके छायाचित्रों, मिट्टी, पत्थर, सोने-चाँदी की मूर्त्तियों को बनाकर पूजते हैं। वे थे कौन? वे कहीं भाग नहीं गये हैं, वे हैं। उस मनुष्य के रूप में वे परमात्मा ही थे। अगर राम के सगुण रूप को ही अनादि राम वा राम का निर्गुण सनातन रूप कहा जाय तो यह रामचरितमानस के विरुद्ध होगा। रामचरितमानस पढ़ें। नराकृति-सगुण हुए बिना अवधपति वा अयोध्या का राजा कहा नहीं जा सकता। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में तो स्पष्ट कहा गया है कि—
भगत हेतु भगवान् प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
और भी—
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
इसलिए अवधपति रूप को राम का अनादि रूप नहीं कहा जा सकता। इस चौपाई का तात्पर्य यह है कि संसार-रूप नाट्यशाला में ‘सब कर परम प्रकाशक’ राम है। सब रूपों में व्यापक राम के निर्गुण सहज स्वरूप को ‘सब कर परम प्रकाशक’ और ‘अनादि’ कहकर मानना निर्भ्रान्त और परमोचित है।
सन्त कबीर साहब आने-जानेवाले पदार्थ को माया कहकर अवतारी रूपों को माया कहते हैं; यथा—
सन्तों आवै जाय सो माया ।
है प्रतिपाल काल नहिँ वाके, ना कहूँ गया न आया ।।
सन्त कबीर साहब की इस वाणी से यही विदित होता है कि दस या चौबीस अवतारों से भिन्न दूसरा कोई है, जो मायातीत सर्वेश्वर है।
अध्यात्म-रामायण प्रथम सर्ग की ‘राम-हृदय-गीता’ के ‘शिव- पार्वती-संवाद’ में श्री हनुमानजी को उपदेश देते हुए श्री जानकीजी ने कहा है—
(हे हनुमान!) तुम रामजी को पारब्रह्म सच्चिदानन्द, द्वैत-रहित, सम्पूर्ण (स्थूल-सूक्ष्म) उपाधियों से रहित, सत्तामात्र कहिये वस्तुमात्र के व्यवहार के चलानेवाले, और मन-वाणी के विषय से परे, आनन्दस्वरूप, निर्मल, शान्त, निर्विकार, निरंजन अर्थात् मायाकृत अज्ञान-रहित परमात्मा जानो।।32-33।। और (हे हनुमान! मुझे उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली मूल प्रकृति जानो, उन रामजी के समीप मात्र होने से मैं आलस्य-रहित होकर इस संसार को रचती हूँ।।34।। और उस परमात्मा के समीप मात्र होने से मेरे रचे हुए जगत् को अज्ञानी लोग उसे परमात्मा में आरोपण करते हैं। उसी परमात्मा का जन्म अयोध्या नगरी में अत्यन्त निर्मल वंश में होना।।35।। विश्वामित्र की सहायता करना, उनके यज्ञ की रक्षा करना, अहल्या का शाप दूर करना, शिवजी का धनुष-भंग करना।।36।। फिर मेरे साथ विवाह करना, परशुराम जी का गर्व तोड़ना, फिर अयोध्या में मेरे साथ बारह वर्ष रहना।।37।। फिर दण्डकारण्य में जाना, विराध का मारना, मायारूपी मारीच का वध करना और माया की सीता का हरण होना।।38।। जटायु का मोक्ष-लाभ होना, कबन्ध का शाप से छुटाना, शवरी का पूजन ग्रहण करना और फिर सुग्रीव से समागम होना।।39।। फिर बालि का वध करना, सीता ढुँढ़वाना, समुद्र पर पुल बँधवाना, फिर लंका पर चढ़ाई करना।।40।। फिर युद्ध में दुष्ट रावण को पुत्र-सहित मारना, विभीषण को राज्य देना, फिर पुष्पक विमान में बैठकर मेरे साथ।।41।। अयोध्या को आना, फिर रामजी का गद्दी पर बैठना इत्यादि सब कर्म मेरे किये हैं।।42।। उनको अज्ञानी जन निर्विकार परमात्मा राम जी में आरोपण करते हैं, वास्तव में रामजी न चलते हैं, न बैठते हैं, न शोक करते हैं, न कुछ चाहते हैं, न कुछ त्यागते हैं और न कुछ करते हैं। वे तो आनन्द की मूर्त्ति, अचल और परिणाम-रहित अर्थात् एकरस हैं। केवल माया के गुणों के कारण कर्म में प्रवृत्त दीखते हैं।।44।।
रामचरितमानस में भी सीताजी को रामजी की माया कहा गया है—
बाम भाग सोभित अनुकूला ।
आदि सक्ति छविनिधि जग मूला ।।
भृकुटि विलास जासु जग होई ।
राम बाम दिसि सीता सोई ।।
आदि सक्ति जेहि जग उपजाया ।
सोउ अवतरहिं मोरि यह माया ।।
इस माया की इतनी प्रबलता है कि कहा नहीं जा सकता। इसके सामने कुछ वश नहीं चलता।
व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचंड ।
(रामचरितमानस)
उसकी प्रचंडता के सामने सभी झुके हुए हैं। सारी दुनिया के लोग कहते हैं कि हम माया के महाजाल में फँसे हुए हैं। गीता में भी इस माया को प्रबल, दुर्भेद्य और दुस्तर कहा गया है, साथ ही परमात्म-शरण होने में बाधा डालनेवाली भी।
यह गुणमयी माया प्रबल दुर्भेद्य है दुस्तर महा ।
आते शरण जा पार होते अति सुगम से वे अहा ।।
पर मूढ़ दुष्कर्मी जिन्हें है अंध माया ने किया ।
आते शरण मेरी नहीं हर ज्ञान माया ने लिया ।।
ऐसी भयानक माया, जिसके चरित को किसी ने लखा नहीं, स्वयं उत्पन्न नहीं हुई है, परमात्मा से उपजायी गयी है।
ये प्रकृति द्वय उत्पत्ति लय, होवैं प्रभू की मौज से ।
ये अजा अनाद्या स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिये ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
सब कुछ परमात्मा ने ही उत्पन्न किया है। सृष्टि के अन्दर जितने जीव हैं, सब उसी प्रभु के अटूट अंश हैं। परमात्मा में सृष्टि की मौज हुई—एकोऽहुं बहुस्याम्—मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ। ऐसा नहीं कि “मैं एक हूँ बहुत बना दूँ।” वही एक परमात्मा अनेक बन गया है। इसीलिए अनेक रूपों में उसी परमात्मा की शक्ति है। प्रत्येक परमाणु, अणु में; लघु-दीर्घ शरीर में वही परमात्मा व्यापक है।
प्रत्येक परमाणु अणु, लघु दीर्घ सर्व तनु ।
प्रभु जी व्यापक, जनु गगन रहाही ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
शास्त्र में कहा गया है—
एकं चमृदपात्रमनेक रूपं एकं च क्षीरं बहुवर्ण धेनुः ।
स्वर्णं एकं बहु भूषणानि एकः परमात्मा शरीरं भिन्नम् ।।
मिट्टी एक है और कुम्हार उससे अनेक बर्त्तन बना लेता है। मिट्टी का रूप बर्त्तन के ऐसा हो जाता है। एक ही मिट्टी के अनेक नाम-रूप हो जाते हैं। नाम-रूप को मिटा देने पर एक ही मिट्टी रह जाती है। गायें अनेक रूप-रंगों की होती हैं, अनेक तरह के घास-भूसे खाती हैं; परन्तु सब उजला ही दूध देती हैं। सोना एक है, उससे अनेक तरह के जेवर बनते हैं, उसके नाम और रूप बहुत हो जाते हैं; लेकिन सब नाम-रूपों के मूल में सोना ही है। इसी को एक संत ने कहा है—
गहने के गढ़े कहीं सोना भी जातु है,
सोना बीच गहनो और गहनो बिच सोन है ।
भीतर भी सोनो और बाहर भी सोन दीसै,
सोनो तो अचल अन्त गहनो को मीच है ।
सोन को तो जानि लीजै गहनो बरबाद कीजै,
यारी एक सोनो तामे ऊँच कवन नीच है ।।
सोने से अनेक तरह के बर्त्तन या आभूषण बनाते हैं, फिर उनको गला दीजिये, सोना का सोना ही प्राप्त हो जायगा। उसी तरह परमात्मा एक है, शरीर भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। सब शरीरों में एक ही परमात्मा है। शरीर भिन्न होने से सबकी बुद्धि व विचार भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं। वेदान्त कहता है कि उस परमात्मा का कभी नाश नहीं होता है, वह सदा एकरस रहता है। वह बहुत दूर नहीं है, वह स्वयं अपने स्वरूप में स्थित है। इस शरीर के पहले आप किसी शरीर में थे, शरीर में आप हैं, जवानी और बुढ़ापे के शरीर में आप रहते हैं। देखते-देखते यह शरीर एक दिन मर जाता है, जलाने पर विलीन हो जाता है; लेकिन आप जो आत्मस्वरूप हैं, उसका कभी नाश नहीं होता है। गीता में कहा है—
नैनं छिन्दन्ति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।
इसी को भाषा में कहा है—
जनमै मरै न भयो न होई । नित्य अरूप अचल है सोई ।।
शस्तर काटि सके नहिं ताही । पावक जारि सकै नहिं जाही ।।
नीर भिंगोय सके नहिं वाको । मारुत शोषि सकै नहिं ताको ।।
ऐसा यहि आतम कहँ जानो । मन महँ तासु सोच मति आनो ।।
याको मृतक कहै जो कोई । महामूढ़ अज्ञानी सोई ।।
नाशवन्त है देह पिछानो । जीवात्मा अविनाशी जानो ।।
देह अंग न्यारे करौ, जहँ तक होत विनास ।
उतपति भय जेहि भाँति ते, करत नरक को वास ।।
वस्तुतः आत्मा या परमात्मा शरीर से भिन्न है; लेकिन सब नाम-रूपों में मौजूद है और रहेगा। शरीर और संसार तो मिटेंगे; लेकिन वह परमात्मा नहीं मिट सकता, वह सत्य है, अविनाशी है। इसी अनन्त परमात्मा के अन्दर सारी सृष्टि है, जैसे आकाश के अन्दर सब चीजें हैं, घर आदि बने हुए हैं। सूक्ष्म होने के कारण वह सबके अन्दर है और उनके परे भी। आकाश कहीं से न आता है, न जाता है। आकाश से भी सूक्ष्म शब्द है। शब्द इतना सूक्ष्म है कि विश्व के किसी कोने में शब्द होने पर हम आकाशवाणी द्वारा सुन लेते हैं। इस शब्द से भी अति सूक्ष्म चेतन आत्मा है। चेतन के कम्पन के बिना शब्द नहीं होता है। देखिये, पहले मैं चुप था और जब बोलने लगा, तो कितने शब्द निकल रहे हैं। इन शब्दों को आप सुनते हैं, पर पकड़ नहीं सकते। इन शब्दों का जो गुण है, उसे आप ग्रहण करते हैं और उसका ज्ञान रखते हैं। फिर शब्द आकाश में विलीन हो जाता है। इन सारे शब्दों का उद्गम स्थान एक परमात्मा ही है। उसे जानें, तभी हमारा जीवन सार्थक होगा। उसे जानने के लिये उसकी भक्ति करनी होगी। भक्ति करने के लिये उसकी युक्ति जाननी होगी।
हाँ, आरम्भ में भक्ति कठिन अवश्य है; लेकिन कठिन कहकर इसे छोड़ देना कायर का काम है। जबतक उसकी भक्ति नहीं करेंगे, और उस परम तत्त्व को नहीं जानेंगे, तबतक इस माया के जाल में पड़े रहेंगे और रात-दिन दुःख भोगते रहेंगे। इस दुःख से छुटकारा नहीं होगा। इसलिए उस परम प्रभु पर अटल विश्वास रखें, मात्र एक उसी का भरोसा रखें, उसकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय!


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
परम आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द तथा परम आदरणीया देवियो! सन्तमत का प्रचार सृष्टि के आदिकाल से ही होता चला आ रहा है और होता रहेगा। जितने सन्त-महात्मा हुए, सभी ने लोक-कल्याण के लिए अपनी वाणियों के द्वारा सदुपदेश दिया; ‘मोह निशा सब सोवनिहारा’ जीवों को जगाने के लिए प्रयत्नशील रहे। सन्तों के परम कल्याणमय रास्ते को अपनाकर आजतक कितने पापियों का उद्धार हुआ, यह कहा नहीं जा सकता। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है—
सन्त शरण जो जन पड़े, सो जन उधरनहार ।
सन्त की निन्दा नानका, बहुरि बहुरि अवतार ।।
अभी आपने वेदवाणी में सुना कि सांसारिक अथवा अनात्म पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों से होता है; परन्तु आत्मस्वरूप का ज्ञान मन, बुद्धि और इन्द्रियों से नहीं होता है। कहने का तात्पर्य यह कि आत्मा इन्द्रियों के ज्ञान से परे है। हम बराबर कहा करते हैं कि ‘हम हैं’ या ‘मैं हूँ’, लेकिन वस्तुतः ‘हम’ या ‘मैं’ क्या है, यह सभी नहीं जानते हैं। हमारे शरीर में एक कोई अनुपम शक्ति अवश्य है, जिसके सहारे शरीर की सारी इन्द्रियाँ कार्यरत हैं और जिस शक्ति के नहीं रहने पर सारी इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं। वह कौन-सी शक्ति है? हम अपनी इन्द्रियों को जानते हैं और कहा करते हैं कि ये हमारी आँखें हैं, ये हमारे हाथ हैं, ये हमारे कान हैं, ये हमारे पैर है; परन्तु इन्द्रियाँ हमें नहीं जानती हैं। हम अपने को अपने से ही जान सकते हैं। सन्त दरिया साहब ने कहा है—
आतम आपु को आपुहि जाने ।
भगवान बुद्ध ने कहा है—
अत्ता हि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया ।
अत्तना’व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभम् ।।
अर्थात् मनुष्य स्वयं अपना मालिक है, उसका मालिक और कौन हो सकता है? अपने पर खूब काबू पाकर वह दुर्लभ मालिक को पा जाता है।
इस प्रकार हमारी स्थिति है। इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। अपने आपको प्रमाणित करने के लिये हम स्वयं हैं। हम तो स्वतः प्रमाणित हैं। परमात्मा को प्रमाणित करने के लिए अनेक वेद, उपनिषद् तथा शास्त्र हैं। सब कोई दूसरों के कहने पर ही कहते हैं कि ईश्वर है; लेकिन अपने को अर्थात् अपनी स्थिति को किसी दूसरे के कहने पर मानते हैं, ऐसी बात नहीं है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने इसी को स्वतःप्रमाण और परतःप्रमाण कहा है। हम स्वतःप्रमाण हैं और परमात्मा परतःप्रमाण। हम एक ही एक हैं, दो नहीं, विभिन्न रूप हमारे ही हैं, ऐसी दृष्टि हो जाने पर आत्मस्वरूप या परमात्मस्वरूप का बोध हो जाता है। सन्त कबीर साहब ने कहा है—
मन तू मानत क्यों न मना रे ।
कौन कहन को कौन सुनन को, दूजा कौन जना रे ।।1।।
दर्पण में प्रतिबिम्ब जो भासै, आप चहूँ दिसि सोई ।
दुविध मिटै एक जब होवै, तौ लखि पावै कोई ।।2।।
जैसे जल ते हेम बनतु है, हेम धूम जल होई ।
तैसे या तत वाहू तत सो, फिर यह अरु वह सोई ।।3।।
जौ समुझै तो खरी कहन है, ना समुझै तो खोटी ।
कहै कबीर दोऊ पख त्यागै, ताकी मति है मोटी ।।4।।
सारांश यह है कि अनेक शरीरों में भिन्न-भिन्न नहीं, एक ही आत्मा है। एकात्मबुद्धि नहीं होना—अनेकात्म बुद्धि होना भ्रमपूर्ण है। जैसे किसी एक रूपधारी के चारो ओर बहुत-से आईने रखे हों, तो उन बहुत-से आईनों में उसकी बहुत-सी परिछाहियाँ दरसती हैं। वैसे ही भिन्न-भिन्न शरीरों के कारण आत्मा भिन्न-भिन्न मालूम पड़ती है। बर्फ, पानी और वाष्प—तत्त्व रूप में तीनों एक ही हैं, वैसे ही जीवात्मा और परमात्मा मूल रूप में एक ही हैं। एकात्म-बुद्धि दृढ़ कर लेना साधारण या मोटी बुद्धि का काम नहीं है, बल्कि विशेष तीव्र बुद्धि का काम है। इस प्रकार कबीर साहब की निष्ठा एकात्मवाद के प्रति मालूम पड़ती है। कठोपनिषद् में भी इस निष्ठा की पुष्टि की गई है—
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सर्वभूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
इसी को गीता के तेरहवें अध्याय में कहा गया है—
है भूत यद्यपि भिन्न-भिन्न तथापि अर्जुन एक है ।
उस एक से विस्तार हो होते असंख्य अनेक हैं ।।
जब दीखने ऐसा लगे तो ब्रह्म होता प्राप्त है ।
जो नित्य स्थिर होकर अजन्मा विश्व भर में व्याप्त है ।।
वेद के भी महावाक्य हैं—
एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति। एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति। सर्व खल्विदं ब्रह्म।
वह ब्रह्म एक-ही-एक है, दूसरा कुछ नहीं। उसी एक से सारी सृष्टि बनी है। उसी एक की भक्ति के बारे में रामचरितमानस में भगवान् श्रीराम परम भक्तिन शबरी को बताते हैं। समूचे रामचरितमानस में बहुतों की भक्ति के बारे में दरसाया गया है; परन्तु जो दर्जा शबरी को प्राप्त है, वह किसी दूसरे को नहीं। शबरी मतंग ऋषि की शिष्या थी। मतंग ऋषि योगिराज थे। उनकी कृपा से शबरी की गति योगविद्या के शिखर तक पहुँची थी। शबरी को योगियों की दुर्लभ गति सुलभ हो गयी थी। इसीलिये तो भगवान् राम ने कहा था—
जागिवृन्द दुर्लभ गति जोई । तो कहँ आज सुलभ भइ सोई ।।
और भी भगवान् कहते हैं—
मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ।।
अर्थात् मेरे दर्शन का अतिशय अनुपम फल है कि जीव अपने आत्मस्वरूप को पाता है।
शबरी को अपना सहज स्वरूप अवश्य ही प्राप्त हो गया था। इसीलिए उसने योगाग्नि में अपने शरीर को त्यागकर उस पद को प्राप्त किया, जहाँ से पुनः इस संसार में लौटना नहीं होता है।
तजि योग पावक देह हरिपद लीन भइ जहँ नहिं फिरै ।
वैसे तो मुक्तिकोपनिषद् में चार प्रकार की मुक्तियों का वर्णन है। सामीप्य—उपास्यदेव की समीपता प्राप्त करनी, सारूप्य-उपास्यदेव के शरीर-सदृश रूप को प्राप्त करना, सायुज्य—उपास्यदेव के साथ युक्त होना अर्थात् उपास्यदेव के शरीर से भिन्न अपना दूसरा शरीर नहीं रखना और सालोक्य—उपास्यदेव के लोक की प्राप्ति करना; लेकिन कैवल्य मुक्ति दुर्लभ है। इस मुक्ति को प्राप्त कर पुनः संसार में लौटना नहीं होता है। रामचरितमानस में कहा गया है—
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद । सन्त पुरान निगम आगम वद ।।
राम भगति ते मुक्ति गुसाई । अनइच्छित आवई बरिआई ।।
मुक्ति बड़ी कठिन है, जो सबको आसानी से प्राप्त नहीं होती। भक्ति की पूर्णता होने पर मुक्ति हो जाती है। शबरी को वह भक्ति प्राप्त थी और वह मुक्ति हुई। इसीलिए भगवान् राम को कहना पड़ा था—
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।
भगवान् राम नवधा भक्ति के बारे में बताते हैं—
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ।।
भक्ति को सावधान होकर सुनने और मन में धारण करने के लिए कहते हैं। पुनः बताया कि भक्ति का आरंभ कहाँ से होता है—
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
प्रथम भक्ति में सन्तों का संग विशेष माना गया है; क्योंकि “संत संग अपवर्ग कर” । संतों का संग मोक्षदायक होता है। दूसरी भक्ति में बताया गया कि मेरी कथा-चर्चा में प्रेम हो। वस्तुतः किसी का गुणानुवाद सुनने से उससे प्रेम होना स्वाभाविक ही है और जब प्रेम हुआ तो उसकी प्राप्ति की युक्ति की इच्छा होने लगती है। इसके लिए गुरु की सेवा अमान भाव से करने बतलायी गयी है।
गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुनगन, करइ कपट तजि गान ।।
गीता में भी गुरु की सेवा से ही यह युक्ति पाना कहा गया है; यथा—
प्रणिपात प्रश्न शुश्रूषा से प्राप्त तुम कर लो उसे ।
देंगे तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश समझोगे उसे ।।
जिस ज्ञान को पाकर न होगा मोह भारत! फिर कभी ।
तुझमें तथा मुझमें दिखाई एक सम देंगे सभी ।।
त्रिपाद्विभूति महानारायणोपनिषद् में भी गुरु की प्रदक्षिणा और दण्डवत् प्रणाम करके हाथ जोड़कर नम्र भाव से तत्त्वोपदेश के लिए प्रार्थना करने के लिये कहा गया है—
“शान्तो दान्तोऽतिविरक्तः सुशुद्धो गुरुभक्तस्तपोनिष्ठः शिष्यो ब्रह्मनिष्ठं गुरुमासाद्य प्रदक्षिणपूर्वकं दण्डवत्प्रणम्य प्रांजलिर्भूत्वा विनयेनोपसंगम्य भगवन् गुरो मे परमतत्त्व रहस्यं विविच्य वक्तव्यमिति।”
अर्थात् शान्त, दमनशील, अतिविरक्त, अतिशुद्ध, गुरुभक्त तपोनिष्ठ शिष्य ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर प्रदक्षिणा और दण्डवत् प्रणाम करके हाथ जोड़कर नम्रता के साथ कहे— “हे भगवान् मेरे गुरु! परम तत्त्व-रहस्य विवेचन के साथ मुझे बतलाइये।”
संत कबीर साहब ने भी गुरु की उपमा सत्य पुरुष से दी है और उनसे विनय करके ही तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा है; यथा—
सत्त पुरुष इक बसै पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।।
ऐसे संत सद्गुरु या सत्तपुरुष (साधु-सन्त) पश्चिम (प्रकाश) में रहते हैं अर्थात् वे पूर्ण ज्ञानी होते हैं। पूर्ण ज्ञान में रहनेवाले अंधकार (अज्ञान) में रहे, यह कदापि संभव नहीं। उनकी तो ब्राह्मी स्थिति हो जाती है, तब वे अज्ञान से परे ज्ञान की, अंधकार से परे प्रकाश की और सगुण से परे निर्गुण की बात क्यों नहीं कहेंगे! गो0 तुलसीदासजी महाराज ने ‘विनय-पत्रिका’ में ऐसे ही को गुरु बताया है—
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
ऐसे गुरु के चरणकमलों की वन्दना करते हुए कहते हैं कि वस्तुतः वे कृपा के समुद्र, मनुष्य के रूप में ईश्वर हैं, जिनका वचन महामोह-रूप अंधकार-राशि को नष्ट करने के लिए सूर्य की किरणों का समूह है। तब क्या ऐसे गुरु की सेवा मोक्षदायक नहीं हो सकती है? अवश्य ऐसे गुरु की सेवा करने से मोक्ष होगा। गुरु कठोर नहीं होते, वे परम दयालु होते हैं। कबीर साहब तो कहते हैं कि ऐसे गुरु अगर मिल जायँ, तो यही समझना चाहिये कि साहिब (परमात्मा) ही मिल गये; और ऐसे गुरु को मनुष्य समझनेवाले को वे ‘अंध’ की संज्ञा देते हैं। ऐसे लोग महादुःखी होते हैं और यमराज के जाल में फँसते हैं।
गुरु मिला साहिब मिला, अंतर रहा न रेख ।
मनसा वाचा कर्मणा, सतगुरु साहिब एक ।।
गुरु को मानुष जानते, ते नर कहिये अंध ।
महादुःखी संसार में, जाय पड़े जम फंद ।।
ऐसे गुरु पर जो अपने को न्योछावर कर देते हैं, तो गुरु भी उनको नाम का दान देते हैं।
पहले दाता शिष भया, (जो) तन मन अरपा सीस ।
पीछे दाता गुरु भये, (जो) नाम दिया बखसीस ।।
ऐसे संत सद्गुरु पर अपना सब कुछ समर्पित करके उनकी सेवा करनी चाहिये।
पाखंड अरुऽहंकार तजि, निष्कपट हो अरु दीन हो ।
सब कुछ समर्पण कर गुरु, की सेव करनी चाहिये ।।
गुरु के शरणागत होने से योगाभ्यास की युक्ति प्राप्त होती है, जो मंत्र-जप से प्रारंभ होती है। श्री रामजी ने शबरी से मंत्र-जप के विषय में कहा था—
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।
अब आगे बताते हैं—
छठ दमसील विरति बहुकर्मा । निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।।
अर्थात् इन्द्रियों को रोकनेवाले स्वभाववाला होना, बहुत-से कर्मों को करने से विरक्त होना (कर्मकाण्डात्मक कर्म के फलों से मन में हटाव रखना) और सदा सज्जनों के धर्म में लगा रहना अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार—इन पंच पापों से बचते रहना छठी भक्ति है।
यह भक्ति दृष्टि-योग है। इसके अभ्यास से अभ्यासी ब्रह्म-ज्योति के केन्द्र (ब्रह्म-ज्योति के अन्तिम पद) सहड्डदल कमल के परे त्रिकुटी तक पहुँचता है, जहाँ मन और इन्द्रियाँ लय होते हैं। तब समता-ज्ञान प्राप्त हो जाता है अर्थात् संसार के स्थावर-जंगम सब रूपों में परमात्मा है, ऐसा बोध हो जाता है। “अचर चर रूप हरि” ऐसी दृष्टि हो जाती है।
आठवीं और नौंवी भक्ति में ईश्वर-भक्ति का प्रतिफल है—जो लाभ हो, उसी में संतोष करना, स्वप्न में भी दूसरे के दोषों को न देखना, सबसे सीधा तथा अकपट रहना और हृदय में न हर्ष और न दीनता लाकर एक परमात्मा का भरोसा रखना—ये सारे गुण समत्व-प्राप्त योगी को प्राप्त हो जाते हैं।
सातवँ सम मोहिमय जग देखा । मोतें अधिक सन्त करि लेखा ।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा । सपनहु नहिँ देखइ पर दोषा ।।
नवम सरल सब सन छल हीना । मम भरोस हिय हरष न दीना ।।
अब भगवान् श्रीराम शबरीजी से कहते हैं कि नवो भक्तियों में जिनको एक भी भक्ति हो, वह चाहे स्त्री, पुरुष, जड़ और चेतन में से कोई हो, हे भामिनी! वह मुझे अतिशय प्यारा है, तुझमें तो सब प्रकार की भक्तियाँ अटल हैं।
नव महँ एकउ जिन्हके होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।।
मैं तो कहता हूँ कि नवों भक्तियों में पहली भक्ति संतों का संग हो जाए, तो चाहे स्थावर हो या जंगम, उसका परम कल्याण होगा। वह इतर योनि में भटक नहीं सकता। उसे मनुष्य का शरीर मिलेगा। मनुष्य का शरीर प्राप्त करके वह ईश्वर की भक्ति करेगा और अन्त में मोक्ष प्राप्त करेगा।
शबरी पहले जन्म में खिखिरनी थी। संतों के संग के प्रभाव से उसे मनुष्य का शरीर मिला। इसीलिए सभी कोई संतों का संग करें, बराबर सत्संग करते रहें, जिससे परम कल्याण हो।
बोलिये श्री सद्गुरु महाराज की जय!


धन्य धन्य सतगुरु सुखद, महिमा कही न जाय ।
जो कुछ कहुँ तुम्हरी कृपा, मोतें कछु न बसाय ।।
प्यारे लोगो!
यह दृश्यमान विश्व कर्ममय है। जिमने प्राणी हैं, सभी कर्मरत दीखते हैं। इसमें अच्छे-बुरे कर्म होते हैं। यों तो ऐसा कहा गया है—
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम ।
सात द्वीप नौ खंड में, सबके दाता राम ।।
अजगर का शरीर बहुत विशाल तथा भारी होता है; लेकिन वह भी अपनी जीविका के उपार्जन-हेतु कर्म करता है। ऐसा देखा गया कि एक जंगल में दो लकड़हारे लकड़ी काटने गये। एक को अजगर साँप ने देख लिया। अजगर साँप जिसे देख लेता है, उसे साँस से खींचने लगता है और खींचते-खींचते अपने निकट ले आता है और उसे निगल जाता है। इसी तरह वह अपना आहार प्राप्त करता है। वह भारी तथा विशाल होने के कारण चल-फिर नहीं सकता है। तो उस लकड़हारे को वह अपनी साँस से खींचने लगा। लकड़हारे को लगा कि उसे कोई खींच रहा है। उसने इधर-उधर देखा तो कुछ दिखाई नहीं पड़ा। वह भयभीत हो चिल्लाने लगा। उसके चिल्लाने की आवाज दूसरे लकड़हारे ने सुनी। वह जान गया कि उसे अजगर साँप खींच रहा है। वह दौड़ता गया और उसे खूब जोर से धक्का देकर दूसरी तरफ गिरा दिया और कहा कि जल्द भागो। वह तेजी से भाग गया। इस तरह साँप की नजर से दोनों ओझल हो गये और जान बच गयी। इस तरह अजगर भी कर्म करता है।
यह अतिशयोक्ति है कि अजगर और पक्षी काम नहीं करते। पक्षी भी अपने आहार-हेतु बहुत दूर-दूर तक जाता है। ब्राह्म मुहूर्त्त में ही वे अपने आहार के लिए दूर निकल जाते हैं; अपने घोंसले का निर्माण भी स्वयं करते हैं। छोटी-छोटी चींटियाँ भी अपने आहार की व्यवस्था आप करती हैं। इस तरह संसार के जितने प्राणी हैं, सभी कर्म करते हैं। बिना कर्म किये कोई नहीं रहता। मनुष्य भी कर्म करता है। हाँ, इसे विवेक रहता है कि कौन कर्म बुरा है और कौन कर्म अच्छा है; कौन करने योग्य है और कौन नहीं करने योग्य है। साथ ही विवेकशील प्राणी होने के नाते शुभाशुभ कर्मफल का भी इसे ज्ञान रहता है। फिर भी बहुत लोग बुरे कर्म करते हैं, जिनके परिणाम में उन्हें दुःख प्राप्त होता है।
शुभाशुभ कर्म का फल स्वयं भगवान् श्रीराम को भी भोगना पड़ा। श्रीराम का राज्याभिषेक होनेवाला था, वे युवराज होंगे। नगर में मंगल-गान होने लगा।
बाजहि बाजे विविध विधाना । पुर प्रमोद नहिं जाइ बखाना ।।
कोकिल-बयनी नारियाँ भी मंगल-गान करने लगीं—“गावहिं मंगल कोकिल बयनी।” लेकिन कर्मफल इतना प्रबल होता है कि उसे टाला नहीं जा सकता—
करम गति टारे नाहिं टरी ।
श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास की आज्ञा होती है। वे वन को चल देते हैं। साथ में श्री सीताजी तथा श्री लक्ष्मणजी भी हैं। उन्होंने प्रथम दिन संध्याकाल तमसा नदी के किनारे वास किया। दूसरे दिन संध्याकाल गंगाजी के किनारे शृंगवेरपुर पहुँचकर वहाँ वास किया। वहाँ गुह निषाद ने बड़े भक्ति भाव से उनका आदर-सत्कार किया। श्री सीता-राम एक वृक्ष के नीचे पत्तों की शय्या पर रात में सोये। श्री सीता-राम को पत्तों की शय्या पर सोया देखकर गुह निषाद को बड़ा दुःख हुआ। वे इसके लिए कैकेयी को दोष देने लगे कि उसी के चलते इन्हें इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है। ये अयोध्या के आनन्द-भवन में मुलायम बिछावन पर सोते थे और आज पत्तों की शय्या पर सोये हैं।
केकयनंदिनि मंदमति, कठिन कुटिलपनु कीन्ह ।
जेहि रघुनन्दन जानकिहि, सुख अवसर दुखु दीन्ह ।।
यह सुनकर श्री लक्ष्मणजी वेदान्त ज्ञान का दिग्दर्शन कराते हुए ज्ञान, वैराग्य और भक्तिरस में सनी कोमल, मधुर वाणी बोले—
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता ।।
हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देनेवाला नहीं है; सबको अपने ही कर्मों का फल भोगना पड़ता है। पूर्व का जो संचित कर्म होता है, वही प्रारब्ध के रूप में भोगना पड़ता है; क्योंकि संसार में कर्म की ही प्रधानता है; जो जैसा करता है, वैसा ही फल पाता है।
कर्म प्रधान बिस्व करि राखा । जो जस करइ सो तस फल चाखा ।।
रामचरितमानस में यह भी कहा गया है—
होइहिं सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावहिं साखा ।।
यदि विचार करेंगे कि राम ने क्या रचकर रखा है, तो यह सामने आएगा—“कर्म प्रधान बिस्व करि राखा।” परमात्मा ने संसार की रचना की और कर्म को प्रधान बना रखा। मानव कर्म करने में स्वतंत्र है, अच्छा-बुरा जैसा कर्म करना चाहता है, करता है; परन्तु फल भोगने में स्वतंत्र नहीं है। फल तो कर्म के अधीन है—कर्मानुसार फल परमात्मा देता है। जिस चीज का बीज बोते हैं, उसी का पेड़-पौधा होता है। ऐसा नहीं कि वृक्ष रोपा गया आक का और फल दे आम का। कहावत है—
रोपे बिरवा आक का, आम कहाँ ते होय ।
आदमी करता है बुरा काम; लेकिन उसका फल चाहता है अच्छा; परन्तु ऐसा होता नहीं। भले ही बुरे काम का फल तुरत न मिले, पर समय पाकर वह अवश्य मिलता है। भगवान् बुद्ध ने कहा है—
“बुरा कर्म तुरन्त के दुहे हुए दूध के समान जल्द नहीं फट जाता, वह राख से ढँकी हुई आग के समान मूर्ख का पीछा करता है।
जबतक बुरे कर्म का फल नहीं मिलता, मूर्ख उसको मधु के समान मीठा समझता है; परन्तु जब वह फल लाता है, तब उसको दुःख प्राप्त होता है।
कम-समझ, मूर्ख आदमी खुद अपने शत्रु हैं; क्योंकि वे बुरे कर्म करते हैं, जिसमें फल कड़वे आते हैं।
वह कर्म करना अच्छा नहीं, जिसके लिए आदमी को अफसोस करना पड़े और जिसका फल उसको दुःख से रो-रोकर भोगना पड़े।
हमारी वर्त्तमान हालत हमारे विचारों का फल है, उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है, वह हमारे विचारों से बनी हुई है। अगर मनुष्य बुरी कल्पना से बोलता या कर्म करता है, तो क्लेश वा दुःख उसके पीछे ऐसे चलते हैं, जैसे गाड़ी के पहिये बैलों के पीछे-पीछे, जो उसे खींचते हैं।”
शुभ कर्म के बारे में भगवान् बुद्ध ने बताया—“शुभ कर्म वह है, जिससे आदमी को पछताना न पड़े और जिसका फल वह आनन्द और खुशी से भोगे।
हमारी वर्त्तमान हालत हमारे विचारों का फल है, उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है, वह हमारे विचारों से बनी हुई है। अगर मनुष्य अच्छी कल्पना से बोलता या काम करता है, तो सुख उसके पीछे ऐसे चलता है, जैसे उसकी छाया, जो उसे नहीं छोड़ती।” (धम्मपद)
शास्त्रों मे बताया गया है कि किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फल अवश्य भोगने पड़ते हैं।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभम् ।
राजा धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे। उनके सामने ही महाभारत के युद्ध में दुर्योधन-सहित उनके सौ पुत्रों का वध हुआ। धृतराष्ट्र बहुत विकल हुए और श्रीकृष्ण पर दोषारोपण करने लगे कि तुमने ही मेरे सभी पुत्रों का वध कराया है। मुझे सौ जन्मों की बात याद है, मैंने ऐसा कोई अशुभ कर्म नहीं किया है, जिसका ऐसा परिणाम मुझे भोगना पड़े।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा— “महाराज! यदि आपको सौ जन्मों के पूर्व की भी बात याद रहती, तो ऐसा नहीं कहते। सौ जन्मों के पूर्व आप राजा थे। आपके पास एक ऋषि हंस के सौ बच्चों को धरोहर के रूप में रखकर तपस्या करने चले गये थे। आपने मंत्री को उन हंस के बच्चों को सुरक्षित रखने का आदेश दिया। आप मांस-भक्षी थे। संयोगवश एक दिन रसोइये को अन्य किसी पशु-पक्षी का मांस उपलब्ध न हो सका, तो उसने उस दिन हंस के एक बच्चे का मांस पकाकर आपको खिलाया। आपने उस मांस की बड़ी तारीफ की और प्रतिदिन वैसा ही मांस पकाने का आदेश दिया। रसोइये ने प्रतिदिन हंस के बच्चे का मांस खिलाना प्रारंभ किया। इस तरह हंस के सभी बच्चों का मांस आपको खिला दिया गया।
कुछ वर्षों के बाद ऋषि आये और आपसे अपने धरोहर के रूप में रखे हंस के बच्चों को माँगा। आपने मंत्री को हंस के बच्चे देने का आदेश दिया; लेकिन बच्चे रहे तब तो दे। मंत्री ने सारी बातें कह सुनाईं। ऋषि ने क्रोधित होकर आपको शाप दे दिया कि इसी तरह तुम्हारे भी सौ बच्चे मारे जाएँगे। उसी अशुभ कर्म का परिणाम है कि आपके सौ पुत्र मारे गये। और आप जन्मान्ध क्यों हैं, जानते हैं? आपके सौ जन्मों के पूर्व की बात है कि आप कछुए को पकड़कर उसकी आँख सी देते थे। ऐसा आपने कई कछुओं के साथ किया। उसी पाप का फल है कि आप जन्म से अंधे हैं।
राजा युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा थे, असत्य भाषण नहीं करते थे; लेकिन महाभारत की लड़ाई में एक झूठ—“अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो” बोलने के परिणाम से नहीं बच सके। स्वर्गारोहण-काल में हिमालय में उनकी अंगुलि गल गई तथा नरक भी देखना पड़ा।
भगवान् श्रीकृष्ण महायोगेश्वर को भी शुभाशुभ कर्म का फल भोगना पड़ा। यदुवशियों के नाश के बाद आप जंगल में सोये हुए थे। एक व्याधे ने हिरण समझकर वाण चला दिया, जो आपके पैर के तलवे में लगा। व्याधे ने निकट आकर भगवान् को देखा तो क्षमा-याचना करने लगा। भगवान् ने कहा कि घबड़ाओ नहीं, यह मेरे पाप का फल है। रामावतार में मैंने तुम्हें छिपकर वाण से मारा था, तुम उस समय बालि थे। इतना कहकर शरीर छोड़ दिया।
इसी प्रकार की अनेक पौराणिक कथाएँ हैं, जिनसे बोध होता है कि शुभाशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है।
रामचरितमानस में तो कहा गया है कि जन्म-मरण, सम्पत्ति- विपत्ति, कर्म-काल, धरती, घर, नगर, धन, परिवार, स्वर्ग-नरक, मिलना- बिछुड़ना, भला-बुरा फल भोगना, शत्रु-मित्र, मध्यस्थ तथा मन के कर्म एवं सभी माया के जाल और व्यवहार—सभी भ्रम के फन्दे हैं, ये परमार्थ-रूप नहीं हैं—
योग वियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा ।।
जनम मरन जहँ लगि जग जालू । सम्पति बिपति करम अरु कालू ।।
धरनि धाम धन पुर परिवारू । सरग नरक जहँ लगि व्यवहारू ।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं । मोह मूल परमारथ नाहीं ।।
ये सब केवल अज्ञानता या मोह के कारण दरसते हैं। अज्ञानता के मिट जाने पर ये नहीं दीखेंगे। अज्ञानता के मिटने पर माया-जाल और व्यवहार लुप्त हो जाएँगे, तब परमार्थ दीख पड़ेगा। इसी मोह के कारण स्वप्न में राजा भिखारी और दरिद्र इन्द्र हो जाते हैं, पर जगने पर स्वप्न का संसार समाप्त हो जाता है, तब न राजा को कोई हानि होती है और दरिद्र को कोई लाभ होता है।
सपने होइ भिखारि नृप, रंक नाकपति होय ।
जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोय ।।
सांसारिक व्यवहार स्वप्न की तरह हैं, जिन्हें हम अज्ञानता के कारण सत्य मान रहे हैं—
मोह निशा सब सोवनिहारा । देखिय सपन अनेक प्रकारा ।।
इस अज्ञानता से परे ज्ञान में माया-त्यागी संसार-रूप रात्रि में जगते हैं।
यहि जग जामिनी जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।।
यहाँ जगने की बात कही गयी है। इससे साबित होता है कि अभी हमलोग जो जगे हुए हैं, यह असली जगना नहीं है। संतों की दृष्टि में यह जगना जगना नहीं है—
माया मुख जागे सभे, सो सूता कर जान ।
दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान ।।
हमारी तीन अवस्थाएँ होती हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। इन्हीं तीन अवस्थाओं में हमलोग रहते हैं और संसार-रूपी रात्रि में सोते हुए संसार-व्यवहार का स्वप्न देखते हैं। इन तीन अवस्थाओं को त्याग कर जो चौथी—तुरीय अवस्था में जाते हैं, वे योगी होते हैं और यथार्थतः वे ही जगे होते हैं। इसी जागरण में विषय-विलास से विरक्ति होती है। गो0 तुलसीदास जी कहते हैं कि जो विषयों में लिप्त नहीं हैं, वे ही संसार में जगे हुए हैं—
जानिय तबहिं जीव जग जागा । जब सब विषय विलास विरागा ।।
इसीलिए गोस्वामीजी महाराज जगने के लिये कहते हैं। जबतक तुरीय अवस्था में नहीं जाएँगे, तबतक मोह-निशा में ही रहेंगे और सांसारिक व्यवहार-रूप स्वप्न का दुःख भोगना ही पड़ेगा। अज्ञानता समाप्त हो जाने पर हमारे सारे क्लेश नष्ट हो जाएँगे; दैहिक, दैविक और भौतिक—त्रय तापों से हमें छुटकारा मिल जायगा।
जागु जागु जागु जीव जो है जग जामिनी ।
देह गेह नेह जानि जैसे घन दामिनी ।।
सोये सपने को सहइ संसृति संताप रे ।
बूड़ो मृग वारि खायो जेंवरी को साँप रे ।।
कहै बेद बुध तू तो बूझ मन माहिं रे ।
दोष दुख सपने को जागे ही पै जाहिं रे ।।
तुलसी जागे तें जाई तिहूँ ताप ताय रे ।
राम नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ।।
संत कबीर साहब की भी वाणी में जगने की बात आती है; यथा—
परमातम गुरु निकट विराजैं , जागु जागु मन मेरे ।
धाइ के सतगुरु चरनन लागो, काल खड़ा सिर तेरे ।।
मेरी सुरत सुहागिनी जाग री ।
क्यों तू सोवत मोह नींद में, उठि के भजनियाँ में लाग री ।।
उपनिषत्कार इस अज्ञान-निद्रा से जगकर श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहते हैं—“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।”
श्रीसद्गुरु महाराज की भी वाणी में जागरण का संदेश है—
क्या सोवत गफलत के मारे जाग जाग मन मेरे ।
यर्थाथ रूप से हमलोग जबतक जगेंगे नहीं, तबतक कर्ममंडल के घेरे में ही रहेंगे और आवागमन का दुःख भोगना ही पड़ेगा।
इन्द्रियों में चेतन-धाराओं के रहने से ही कर्म होता है। ध्यान-योग द्वारा चेतन-धाराओं को इन्द्रियों से खींचकर आज्ञाचक्र के केन्द्र में केन्द्रित करने से कर्मों से छुटकारा होता जायगा। आज्ञाचक्र का केन्द्र है विन्दु। जब एकविन्दुता प्राप्त हो जायगी, तो स्थूल शरीर और संसार से ऊपर उठ जाएँगे। पुनः सूक्ष्म मंडल से ऊपर चले जाने पर सूक्ष्म मंडल के कर्म छूट जाएँगे। इस प्रकार कारण, महाकारण, कैवल्य मंडल से भी ऊपर चले जाने पर परमात्म-दर्शन हो जाएँगे और सारे कर्म- धर्म से छुटकारा हो जायगा। कर्म करने से ही धर्म होता है। चेतन-वृत्ति का सिमटाव हो जाने पर कर्म-धर्म छूट जाएँगे। श्रीसद्गुरु महाराज की वाणी में है—
यहि मानुष देह समैया में करु परमेश्वर में प्यार ।
कर्म धर्म को जला खाक कर देंगे तुमको तार ।।
श्रीशिवनारायण स्वामी की वाणी में है—
निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो तब उर होत इंजोर ।।
छूटत कर्म तार सब टूटत फूटत कठिन कठोर ।
शुभ अरु अशुभ कर्म ना लागे, जागि धरो गृह चोर ।।
ससि ना सूर्य दिवस ना रजनी नहीं शाम नहिं भोर ।
आप देखै तो कर्म मिटावत शिवनारायण ओर ।।
श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय (ज्ञान कर्म-संन्यासयोग) में भगवान् की उक्ति है कि ज्ञानाग्नि में सभी कर्म भस्म हो जाते हैं; यथा—
प्रज्वलित अग्नि प्रचण्ड करती भस्म ईंधन को यथा ।
त्यों ज्ञानरूपी अग्नि से सब कर्म जलते सर्वथा ।।
इस विश्व में शुचि ज्ञान सम है कुछ नहीं यह है सही ।
है योग जिनका सिद्ध पाते ज्ञान वे हैं आप ही ।।
और—
योग-बल से कर्म जिनके ज्ञान से भ्रम दूर है ।
उस आत्मज्ञानी के धनंजय! कर्म बंधन चूर है ।।
शास्त्र में कहा गया है—
तस्य तावदेव हि यावन्न विमोक्ष्ये ।
अर्थात् केवल उतने ही काल उस ज्ञानी के मोक्ष में विलम्ब है, जितने काल तक वह प्रारब्ध कर्मों से छूट जाता है, तब वह शरीर-रूपी उपाधि से रहित होकर ब्रह्म में अभेदता को प्राप्त हो जाता है।
तदा विद्वान पुण्य पापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमुपैति ।
शरीर त्यागते ही ज्ञानी पाप-पुण्य से रहित होकर और भावी जन्म-कर्म से रहित होकर ब्रह्म में लीन हो जाता है।
‘न तस्य प्राणाः उत्क्रमन्ति’—उस ज्ञानी के प्राण लोकान्तर में गमन नहीं करते।


गुरु को कीजे दंडवत, कोटि कोटि परनाम ।
कीट न जाने भृंग को, कर ले आपु समान ।।
बलिहारी गुरु आपनी, घड़ि सौ सौ बार ।
मानुष तें देवता किया, करत न लागे बार ।।
सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय ।
सात समुँद की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ।।
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावनहार ।।
परम आदरणीय धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, परम आदरणीया माताओ एवं बहनो!
आज मेरा अहोभाग्य है कि मैं आपलोगों के सामने आकर बैठ गया हूँ। मैं आपलोगों को क्या सुनाऊँ! मैं तो भूला-भटका-सा इस जिले में आ गया हूँ। मैंने यहाँ कई वर्षों तक नौकरी की है। तत्पश्चात् श्रीसद्गुरु महाराज की महान् कृपा हुई, उन्होंने मुझे अपनी शरण में ले लिया; मुझे उनकी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं इस गाँव को गुरु के समान मानता हूँ; क्योंकि मैंने यहीं आकर कुछ सीखा है और अब श्रीसद्गुरु महाराज के चरणाश्रित होकर अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।
आपने अभी सन्त कबीर साहब की वाणी का पाठ सुना—
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावनहार ।।
यह बात कहने की नहीं है। आपलोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि इस गाँव में श्रीसद्गुरु महाराज का पैतृक स्थान है। उनके परिवार के लोग भी अभी यहाँ मौजूद हैं। गुरुदेव ने सन् 1910 ई0 से ही बहुत कष्टों को सहकर इस सन्तमत-सत्संग का प्रचार किया है, लोगों को सन्तों के सार ज्ञान का उपदेश दिया है। लोकपथ कल्याणमय हो, इसके लिए आपने इस जिले के कोने-कोने में घोड़े, बैलगाड़ी द्वारा और पैदल चलकर भी सत्संग का प्रचार किया है। जिनको लोग ब्रह्म-ज्ञान नहीं सिखलाना चाहते थे, जिनका समाज में अनादर होता था, उन्हें सच्चा ज्ञान देकर उनपर आपने महान् कृपा की। आपने समूचे भारतवर्ष में इस ज्ञान का संदेश फैलाया। अपने पैतृक स्थान सिकलीगढ़ धरहरा में भी आपको जो प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, ऐसी प्रतिष्ठा अपने गाँव में शायद ही किन्हीं साधु को प्राप्त हुई होगी। गाँव के सारे लोग पूज्य दृष्टि से आपको देखते हैं। आपने समाज के उच्च वर्गीय लोगों को ही नहीं, बल्कि निम्न श्रेणी के लोगों को भी धर्म का सच्चा मार्ग दरसाया, जिस कारण दोनों वर्गों में आपकी प्रशंसा सुनी जाती है।
यहीं के निकटवर्त्ती गाँव—परिहारी में संतमत-सत्संग का आयोजन किया गया था। उस गाँव में ब्राह्मणों की संख्या अधिक है। पूज्य श्रीसद्गुरु महाराज का वहाँ भी पदार्पण हुआ था। वहाँ के लोग कहा करते थे— “देखो, जिनके नाम से हमलोग घृणा करते थे, आज उन्होंने ही समूचे भारत-वर्ष में सन्त का झंडा फहरा दिया है।
धर्मोपदेश तो हम पंडित लोग भी करते है; लेकिन उसका कुछ भी प्रभाव लोगों पर नहीं पड़ता है। आज लाखों लोग इनके दर्शन के लिये लालायित हैं, इनके चरणों में उन्होंने अपने जीवन को निछावर कर दिया है। इनके पास वह कौन-सी अद्भुत शक्ति है।” इस तरह आपकी प्रशंसा उच्च वर्ग के लोगों में भी होती है तथा वे लोग श्रद्धा से आपको नमन करते हैं, आपके वचनों पर विश्वास करते हैं।
संतमत को लोगों ने बौद्धिक रूप से समझ लिया है, फिर भी अफसोस की बात है कि वे इसे जीवन में उतारने का बहुत कम प्रयास करते हैं। दिखाने की भक्ति से किसी को पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। यह तो दिली चीज है, दिल का प्रेम है। यह मनुष्य के परम कल्याण का रास्ता है, परम शान्ति का मार्ग हैं इसमें बहुत त्याग-तपस्या की जरूरत है। हमलोग इतने महान् ज्ञान को पाकर भी अपने को बनाने की कोशिश नहीं करते, यह अच्छी बात नहीं है। यह हमारा अभाग्य है। यह अध्यात्म-ज्ञान महान् ज्ञान है। इसमें परा—सबसे ऊँचे दर्जे की भक्ति है। सन्त सुन्दर दासजी महाराज ने बड़ा ही अच्छा कहा है—
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु बिस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवै जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
इस भक्ति से ऊँची कोई भक्ति नहीं है। यह भक्ति सब धर्मों अर्थात् सारे कर्मों को मिटाकर एक कल्याण का रास्ता बताती है। यह जो संसार देखते हैं, यहाँ जितना धूम-धाम देखते हैं, सब अनित्य है। श्रीसद्गुरु महाराज की वाणी में आया है—
सुनिये सकल जगत के वासी । यह जग नश्वर सकल विनाशी ।।
यह जग धूम धाम रे भाई । यह जग जानो छली महाई ।।
सबहिं कहा यहि अगमापाई । तुम पकड़ा यहि जानि सहाई ।।
मृग तृष्णा जल सम सुख याकी । तुम मृग ललचहु देखि एकाकी ।।
याते भव दुख सहहु महाई । बिन सतगुरु कहो कौन सहाई ।।
यहि सराय महँ निज नहिं कोई । सुत पितु मातु नारि किन होई ।।
भाई बन्धु कुटुम परिवारा । राजा रैयत सकल पसारा ।।
सातो स्वर्गहु केर निवासी । दिव्य देव सब अमित विलासी ।।
कोइ न स्थिर सबहिं बटोही । सत्य शान्ति एक स्थिर वोही ।।
शान्तिरूप सर्वेश्वर जानो । शब्दातीत कहि सन्त बखानो ।।
क्षर अक्षर के पार हैं ये ही । सगुण अगुण पर सकल सनेही ।।
अलख अगम अरु नाम अनामा । अनिर्वाच्य सब पर सुख धामा ।।
ये सब मन पर गुण इनके ही । पड़े महादुख संशय जेही ।।
यहि तुम्हरा निज प्रभु रे भाई । जहाँ तहाँ तव सदा सहाई ।।
इन्ह की भक्ति करो मन लाई । भक्ति भेद सतगुरु से पाई ।।
सतगुरु इन्ह में अन्तर नाहीं । अस प्रतीत धरि रहु गुरु पाहीं ।।
गुरु सेवा गुरु पूजा करना । अनट बनट कछु मन नहीं धरना ।।
अनासक्त जग में रहो भाई । दमन करो इन्द्रिन दुखदायी ।।
काम क्रोध मद मोह को त्यागो । तृष्णा तजि गुरु-भक्ति में लागो ।।
मन कर सकल कपट अभिमाना । राग द्वेष अवगुण विधि नाना ।।
रस रस तजो तबहिं कल्याणा । धरि गुरु मत तजि मन मत खाना ।।
पर त्रिय झूठ नशा अरु हिंसा । चोरी लेकर पाँच गरिंसा ।।
तजो सकल यह तुम्हरो घाती । भव बंधन कर जबर संघाती ।।
दारू गाँजा भाँग अफीमा । ताड़ी चण्डू मदक कोकीना ।।
सहित तम्बाकू नशा हैं जितने । तजन योग्य तज डारो तितने ।।
मांस मछलिया भोजन त्यागो । सतगुण खानपान में पागो ।।
खानपान को प्रथम सम्हारो । तब रस रस सब अवगुण मारो ।।
नित सत्संगति करो बनाई । अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा । अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।
नैनन मूँदि ध्यान को साधान । करो होइ दृढ़ बैठि सुखासन ।।
मानस नाम जाप गुरु केरा । मानस रूप ध्यान उन्हि केरा ।।
यहि अवलम्ब ध्यान कछु होई । पुनः दृष्टि बल कीजै सोई ।।
सुखमन विन्दु को धरो दृष्टि से । सुरत छुड़ाओ पिण्ड सृष्टि से ।।
धरकर विन्दु सुनो अनहद ध्वनि । विविध भाँति की होती पुनि पुनि ।।
ध्वनि सुनि चढ़ती सूरति जाई । अन्तर पट टूटै दुखदाई ।।
छाड़ि पिण्ड तम देश महाई । ज्योति देश ब्रह्माण्ड में जाई ।।
ध्वनि धरि याहू पार चढ़ाई । सुरत करै अब सुनै अघाई ।।
राम नाम धुन सतधुन सारा । सार शब्द जेहि सन्त पुकारा ।।
सो ध्वनि निर्गुण निर्मल चेतन । सुरत गहो तजि चलो अचेतन ।।
यहु ध्वनि लीन अध्वनि में होई । निर्गुण पद के आगे सोई ।।
मण्डल शब्द केर छुटि जाई । अधुन अशब्द में जाइ समाई ।।
अधुन अशब्द सर्वेश्वर कहिये । शान्ति स्वरूप याहि को लहिये ।।
अस गति होय सो सन्त कहावै । जीवन्मुक्त सो जगहिं चेतावै ।।
सन्तमता कर भेद रे भाई । गाइ गाइ दीन्हा समुझाई ।।
जो जानै सो करै अभ्यासा । सत चित करि करै जग में वासा ।।
श्रीसद्गुरु महाराज के साधन का सार यही है। यही उनके जीवन का सार है। वे सदा कहते हैं— “देखो, मैंने बाहर कभी भ्रमण नहीं किया, अपने अन्दर ही प्रभु को खोजा, अपनी आत्मा की खोज की और उसका अनुभव करके पूर्ण सुखी हूँ। मैंने अपने जीवन में सब कुछ किया। परमात्मा की दया से हमारी सभी इच्छाएँ पूर्ण हुईं। मैंने लोगों को कल्याण का रास्ता बता दिया है, अब वे इस पर न चलें, इसका साधन न करें, तो इसमें मेरा क्या दोष?”
हमें चाहिये कि हम उनके बताये मार्ग पर चलें, साधन करें। यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। मैं आपलोगों को कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूँ और श्रीसद्गुरु महाराज तथा परम प्रभु परमात्मा से बराबर विनय करता हूँ कि आपलोगों को इसी तरह सत्संग की लगन दें, संतों की वाणियों को पढ़ें, सुनें, समझें और अपने जीवन को उन्नत बनाने की कोशिश करें!
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय!


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
प्यारे धर्मानुरागी सज्जनवृन्द, माताओ एवं बहनो!
सन्तमत के सत्संग में सन्तों के वचनों को सुनना ही मुख्य बात है। अभी आपलोगों ने सन्तों के वचनों को और श्रीसद्गुरु महाराज के वचनों को सुना। इनसे और विशेष बातें सुनी जायँ, कही जायँ—मेरी समझ में नहीं आतीं। सन्तमत की सार बातों को गुरु महाराज ने ‘सत्संग-योग, चारो भाग’ में संगृहीत कर दिया है। हमलोग इन्हीं सब बातों को बराबर सुनें, समझें और उनके मुताबिक अपने को चलाने की कोशिश करें।
सन्तमत में साधना की चार क्रियाएँ बतायी जाती हैं—मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और सुरत-शब्द-योग। इन्हीं क्रियाओं द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों पर्दों से पार जाया जाता है और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पाया जाता है।
ईश्वर-भक्ति का आरम्भ सगुण-साकार से होता है। इसमें ईश्वर की किसी विशेष विभूति के वर्णात्मक नाम का मानस जप किया जाता है, फिर उनके रूप का मानस ध्यान किया जाता है। इसीलिये हमारे यहाँ ठाकुरबाड़ियों में मूत्तियाँ स्थापित की जाती हैं। मूर्त्ति को देखकर उसके मनोमय रूप का ध्यान किया जाता है, तो अन्दर में शुद्धता आ जाती है। बाहर में तो सभी कोई रूप देखते हैं, लेकिन अन्दर में सब कोई नहीं देख पाते। इसके लिये अभ्यास करना पड़ता है। अभ्यास ऐसा हो कि जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते हमेशा अपना ख्याल मानस जप, मानस ध्यान में या देखे हुए विन्दु पर होना चाहिये। इसमें बड़ी मुस्तैदी चाहिये। “तन काम में, मन राम में।”
सन्त पलटू साहब ऐसे ध्यानी को श्रेष्ठ मानते हैं—
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ।।
सो ध्यानी परमान सुरत से अण्डा सेवै ।
आप रहै जल माहिं सूखे में अण्डा देवै ।।
जस पनिहारी कलश भरे मारग में आवै ।
कर छोड़े मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।
फनि मनि धरै उतारि आपु चरने को जावै ।
वह गाफिल ना पड़ै सुरति मुनि माहिं रहावै ।।
पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान ।
कमठ दृष्टि से जो लावई सो ध्यानी परमान ।।
गो0 तुलसीदासजी महाराज ने भी कहा है—
कर से कर्म करै विधि नाना । मन राखे जहँ कृपानिधाना ।।
यह सबसे बड़ी बात है, लेकिन हमलोग भूल जाते हैं। रात-दिन मन संसार में ही लगा रहता है। सन्तलोग बतलाते हैं कि संसार में कैसे रहो। जैसे कमल और पनडुब्बी चिड़िया। कमल भी जल में रहता है और पनडुब्बी चिड़िया भी; लेकिन न तो कमल के पत्ते और न पनडुब्बी चिड़िया के पंख ही जल से भींगते हैं। इसी तरह संसार में अलिप्त भाव से रहना चाहिये। संसार में तो रहना ही होगा; लेकिन मन में संसार नहीं रहे। गुरु नानकदेवजी ने बड़ा अच्छा कहा है—
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै नानक नामु बखानै ।।
जिसका ख्याल हमेशा मानस जप, मानस ध्यान और विन्दु में लगा रहेगा, उसकी ऊर्ध्वगति हो जायगी, सुरत की चढ़ाई ऊपर की ओर हो जायगी। दृष्टि-साधन करने से सिमटाव होता है। सिमटाव में सुरत अंधकार से प्रकाश में चली जाती है और वहाँ ज्योतिर्मय विन्दु को प्राप्त करती है। तब वहाँ शब्द भी होता है और जब शब्द में सुरत लग जाती है, तो प्रकाश गौण हो जाता है, केवल शब्द-ही-शब्द रह जाता है; क्योंकि शब्द में इतनी आकर्षण शक्ति होती है कि वह साधक को अपनी ओर खींच लेता है। इस प्रकार अन्त में एक सारशब्द को पकड़ लेने से वह निःशब्द तक पहुँचता है।
सारशब्द को साधक पकड़ेगा क्या, वही पकड़ लेता है, जरा-सी छूने की देर। जैसे लोहे को पारस में सटने की ही देर है, सोना बनने में देर नहीं। ज्योंही सटा, तुरत सोना बन जाता है। उसी प्रकार सारशब्द के मंडल में जाने भर की देर होती है। उस मंडल में ज्यों गये, वह तुरत अपनी ओर खींच लेता है।
वैसे तो शब्द अंधकार-मंडल में भी होता है। कान बन्द कीजिये, सुनाई पड़ने लगेगा। शरीर के रग-रेशे के भी शब्द होते हैं; लेकिन एकबिन्दुता प्राप्त करने पर जो शब्द सुना जाता है, वह अच्छा होता है। वहाँ सूक्ष्म मंडल का शब्द होता है।
केवल कहने से काम सिद्ध नहीं होगा, कठिनाइयों को झेलते हुए साधनाभ्यास कीजिये। थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते-करते एक-न-एक दिन वह पूर्ण हो जायगा। मुख्य काम तो करना ही है। कहने के लिए तो बहुत कहा जाता है। कहनेवाले बहुत कह गये, लिखनेवाले बहुत लिख गये। आजतक लिख रहे हैं और आगे भी लिखते रहेंगे। बहुत मोटे-मोटे ग्रन्थों की रचना की गयी है। पढ़ने-सुनने वाले भी पढ़-सुन रहे हैं; लेकिन ‘जो करै, सौ तरै।’
इसलिए गुरु ने जो बता दिया है, उसको श्रद्धा और प्रेमपूर्वक कीजिये, उकताइये नहीं। उकताने से काम नहीं चलेगा। बस, यही थोड़ा-सा मैंने कह दिया। मेरा स्वास्थ्य गिर गया है; दवाई चल रही है। बहुत बोलता हूँ, तो कमजोरी हो जाती है।
बोलिये श्री सद्गुरु महाराज की जय!



(1)
तुम साध कहावत कैसे। मैं पूछूँ तुमसे ऐसे ।।1।।
मान न छोड़ो क्रोध न छोड़ो। कुटिल वचन नहिं सहते ।।2।।
कोमल चित न कोमल बोलो। दया भाव नहिं लेसे ।।3।।
आप पुजावत काहु न पूजत। माँग माँग धन जोड़त पैसे ।।4।।
काम न छूटा लोभ न छूटा। मोह ईर्ष्या डारत पीसे ।।5।।
भजन भक्ति अभ्यास न करते। कभी न छूटा तुम इस जम से ।।6।।
घर छोड़ा उद्यम पुनि छोड़ा। मेहनत कोई न करते ।।7।।
देश विदेश फिरो झक मारत। कफन पहिन क्यों लाज लगाते ।।8।।
दंभ कपट छल हिरदे बसता। गिरही को आचार दिखाते ।।9।।
चौके से हम रोटी खावें। रोटी पूरी भेद समझते ।।10।।
बुद्धि विचार न गुरु मिला पूरा। गिरही की भय लज्जा करते ।।11।।
साध चरन अठशठ से उत्तम। भूमि पवित्र जहाँ पग धरते ।।12।।
तुम तो कर्म भर्म में भटके। साध नाम अपना क्यों धरते ।।13।।
भेष बनाय जगत को ठगते। काल ठगौरी डाली तुम पे ।।14।।
अब कुछ समझ करो सतसंगत। डरो जरा नर्कन के दुख से ।।15।।
बिरह भाव बैराग सम्हालो। भक्ति करो और भागो जग से ।।16।।
मन को मारो इन्द्री बाँधो। सुरत लगाओ शब्द अधर से ।।17।।
तब चित कोमल बुद्धि निरमल। आप होय छूटो मन ठग से ।।18।।
अब क्या कहूँ कहा मैं बहुतक। अधिकारी माने इक तुक से ।।19।।
जो निलज्ज कपटी जग मारे। वह क्या जाने भूत पशु से ।।20।।
राधास्वामी कहत सुनाई। मानेंगे कोई हंस बचन से ।।21।।

(2)
ऐन महल पट बन्द कै, चलु सुखमन घाटी हो ।। टेक।।
दृष्टि डोरि स्थिर रहे, तम बिचहि में फाटी हो ।
खुले राह असमान की, टूटय भ्रम टाटी हो ।। 1 ।।
ज्योति मण्डल धँसि धाय के, निरखत वैराटी हो ।
धुर धुन गहि लहि परम पद, बन्धन लेहु काटी हो ।। 2 ।।
सन्तन की यह राज रही, भेख भर्म से पाटी हो ।
‘मेँहीँ’ देवी साहब दया, दीन्हीं भ्रम काटी हो ।। 3 ।।
(3)
साधु-सन्तों का सबसे छोटा सिद्धान्त है, न तो अब तक वह संस्कृत, अरबी, फारसी, इबरानी में पाया जाता है और न उसने अभी तक किसी प्रेस या छापेखाने का मुँह देखा है। बल्कि उसकी नकल मनुष्यों के अन्दर पाई जाती है और वह चोदहे सफों में लिखी हुई है। जबतक कि कोई अन्तर में अभ्यास न करे, तबतक न तो उसके अक्षर जान सकता है और न उसे पढ़ सकता है ।
सन्तों का आम उपदेश यह है कि अन्दर या बाहर जो कुछ कि निगाह में आता है, जहाँ तक कि रूप है, कुल मायावी और नाशवान है, और इनके बाद एक ऐसी जगह है कि न तो वह कभी पैदा हुई है और न कभी नाश होती है। यही सत्य है। इसका नाश नहीं होता। इसका न कुछ रंग है और न कुछ रूप है और न कोई खास नाम है; लेकिन यह कुछ है, जो ख्याल और समझ में आता है, इसलिए वह भी नाम के शब्द से बोले जाने का अधिकारी है। जीव इसका अंश है; क्योंकि इसका भी नाश नहीं होता। इसको उसमें मिलाने को सत्संग अन्तरी कहते हैं और बाहर में उस जगह को कहते हैं, जहाँ परमार्थी बातचीत करने को मनुष्य जमा होते हैं। इनके दस्तूर और कायदे के मुआफिक जो लोग अभ्यास करते हैं, उनको साधु कहते हैं, और जिन्होंने कि अपने को उस लोक में पहुँचाया है, जहाँ कि वह सत्य है, सन्त कहलाते हैं।
(परम संत बाबा देवी साहब)

(4)
आरति समरथ करौं तुम्हारी । दीन-दयाल भगत हितकारी ।।1।।
ज्ञान दीपक लै मन्दिर बारौं । तन मन धन लै आगे वारौं ।।2।।
चित चन्दन लै रगड़ि बनावौं । ब्रह्म पुहुप ले आनि चढ़ावौं ।।3।।
अनहद धुनि गहि घंट बजावौं। शब्द सिंहासन चरण मनावौं ।।4।।
आपहि छत्र चँवरि सिर छाजै । कहै दरिया तहँ सन्त विराजै ।।5।।

(5)
आरति संग सतगुरु के कीजै । अन्तर जोत होत लख लीजै।। 1 ।।
पाँच तत्त्व तन अग्नि जराई । दीपक चास प्रकाश करीजै।। 2 ।।
गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला । मूल कपूर कलश धर दीजै ।। 3 ।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल । पोहप-माल हिय हार गुहीजै ।। 4 ।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई । चन्दन धूप दीप सब चीजैं।। 5 ।।
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा । मधुर मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।। 6 ।।
सर्व सुगन्ध उड़ि चली अकाशा । मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।। 7 ।।
निर्मल जोत जरत घट माँहीं । देखत दृष्टि दोष सब छीजै।। 8 ।।
अधर धार अमृत बहि आवै। सतमत-द्वार अमर रस भीजै।। 9 ।।
पी-पी होय सुरत मतवाली । चढ़ि-चढ़ि उमगि अमीरस रीझै ।। 10।।
कोट भान छवि तेज उजाली । अलख पार लखि लाग लगीजै ।। 11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै । गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।। 12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा । उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै।। 13।।



श्री सद्गुरु महाराज की जय!